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आदिवासियों के विनाश का साक्षी है स्टैच्यू आॅफ यूनिटी

आदिवासियों के विनाश का साक्षी है स्टैच्यू आॅफ यूनिटी

स्टैच्यू आॅफ यूनिटी प्रोजेक्ट की वजह से करीब 75,000 आदिवासी होंगे प्रभावित




भारत के आधुनिक विकास के इतिहास में एक और काला अध्याय जुड़ने वाला है । वह 31 अक्टूबर 2018 को भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुजरात के नर्मदा जिले स्थित केवड़िया के साधु बेट द्वीप में स्थापित सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति स्टैच्यू आॅफ यूनिटी का उद्घाटन करेंगे । इसके प्रतिरोध में आदिवासियों ने गुजरात बंद का आह्वान किया है और परियोजना से प्रभावित 72 गांवों के आदिवासी शोक मनायेंगे । जिसमें राज्यभर के 75,000 आदिवासी शामिल होंगे । उन्होंने घोषणा की है कि उस दिन उनके घरों में खाना नहीं पकेगा वे ऐसा शोक तब मनाते हैं, जब उनके गांव में किसी की मृत्यु हो जाती है । वे स्टैच्यू आॅफ यूनिटी के विरोध में शोक इसलिए मना रहे हैं क्योंकि यह परियोजना उनके लिए विनाशकारी साबित हुआ है । गुजरात सरकार ने स्टैच्यू आॅफ यूनिटी को स्थापित करने के लिए ग्रामसभाओं के निर्णयों के विरूद्ध पुलिस और कानून का सहारा लेकर आदिवासियों की जमीन छीन ली है । उनके धार्मिक स्थलों को बर्बाद किया है और खेत- खलिहान एवं गांवों को पानी में डुबो दिया है । यहां मौलिक प्रश्न यह है कि क्या आदिवासी देश की एकता और अखंडता का हिस्सा नहीं हैं? यह कैसा स्टैच्यू आॅफ यूनिटी है, जिसमें आदिवासियों को शामिल नहीं किया गया है? क्या अमेरिका की तरह ही भारत भी आदिवासियों की लाश पर विकास की इमारत खड़ा नहीं कर रहा है? यह ठीक उसी तरह है जिस प्रकार से देशभर में जनहित, प्रगति, राष्ट्रहित, विकास और आर्थिक तरक्की के नाम पर आदिवासियों से उनकी जमीन, जंगल और जलस्रोत छीनकर उन्हें संसाधनविहीन बना दिया गया है लेकिन उन्हें उसका हिस्सा नहीं बनाया गया ।

आदिवासी कब तक अपने ही देश में छले जायेंगे ? 

क्या आदिवासियों के आंखों में आंसू डालकर देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय एकता की बात करना शोभा देता है? यह किस तरह की राष्ट्रीय एकता और अखंडता है, जिसके लिए आदिवासियों के अस्तित्व को दांव पर लगा दिया गया है? ऐसे फर्जी एकता और अखंडता का विरोध क्यों नहीं किया जाना चाहिए? स्टैच्यू आॅफ यूनिटी नरेन्द्र मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट है। इसकी शुरूआत 2010 में हुई थी । गुजरात सरकार ने इस कार्य को अंजाम तक पहुंचाने के लिए 7 अक्टूबर 2010 को सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय एकता ट्रस्ट की स्थापना की और छड़ इक्ट्ठा करने के लिए देशभर में अभियान चलाकर 5 लाख लोगों से दान के रूप में 5 हजार मेट्रिरक्स टन छड़ इक्ट्ठा किया गया लेकिन इसे मूर्ति बनाने की बजाय दूसरों कार्यों में लगाया गया । यह लोगों के भावनाओं के साथ खिलवाड़ ही है । इसके बाद सुराज हस्ताक्षर अभियान एवं एकता मैराथन दौड़ का आयोजन किया गया । मूर्ति स्थल को पर्यटन स्थल बनाने के लिए केवड़िया एरिया डेवलपमेंट आॅथोरिटी का गठन किया गया तथा इसके लिए गुरूदेश्वर वायर-कम-कैसवेट मानव निर्मित झील परियोजना की शुरूआत की गई । इस परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहण के खिलाफ उठ खड़े हुए, आदिवासियों को रास्ते से हटाने के लिए स्टेट रिजर्व पुलिस फोर्स का एक यूनिट नर्मदा बटालियन का गठन किया गया, जो परियोजना स्थल पर कैम्प करती रही । जब आदिवासियों को जानकारी हुई कि नर्मदा डैम के बाद फिर से उनकी जमीन ली जायेगी और डैम के लिए ली गयी जमीन को दूसरे कार्य में लगायाजायेगा । तब उन्होंने इसका विरोध करना शुरू कर दिया । केवड़िया, काठी, वगाड़िया, लिम्बाडीह, नवागम एवं गोरा गांव के लोगों ने 1961-62 में नर्मदा डैम के लिए उनसे ली गई 927 एकड़ जमीन को वापस देने की मांग की । क्योंकि उन्हें अबतक इस जमीन का मुआवजा नहीं दिया गया है, आदिवासियों के आंदोलन को देखते हुए गुजरात सरकार ने गुरूदेश्वर को तलुका बनाने की घोषणा की और उनके अन्य मांगों को पूरा करने का वचन दिया। इस तरह से 31 अक्टूबर 2013 को गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नरेन्द्र मोदी ने इसका शिलान्यास किया, सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति स्टैच्यू आॅफ यूनिटी 182 मीटर ऊंची है, जो दुनिया का सबसे ऊंची मूर्ति है । जो 2398 करोड़ रुपए की लागत से बना है । इस परियोजना में आदिवासियों के कुल 72 गांव प्रभावित हुए हैं,आदिवासियों का आरोप है कि गुजरात सरकार ने ग्रामसभाओं के निर्णयों के खिलाफ जबरर्दस्ती जमीन लेने के बाद भी अपना वादा पूरा नहीं किया है ।सरकार ने सिर्फ कुछ लोगों को ही जमीन का मुआवजा दिया है ।

आदिवासियों के धार्मिक स्थलों को डूबों दिया गया  

गुरूदेश्वर के रमेश भाई बताते हैं कि सरकार ने आदिवासियों की जमीन ले ली और बदले में सिर्फ पैसा दिया है लेकिन पुनर्वास पैकेज के रूप में किया गया वादा- जमीन के बदले जमीन और सरकारी नौकरी अबतक किसी को नहीं मिली है, गांवों में ऐसे भी आदिवासी हैं, जिन्होंने गैर-कानूनी भूमि अधिग्रहण के विरोध में अब तक जमीन का पैसा भी नहीं लिया है कुछ विस्थापित आदिवासियों को अपने गांवों से हटाकर बंजर जमीन में बसाया गया है इसलिए आदिवासी सवाल उठा रहे हैं कि वे बंजर जमीन में क्या करेंगे ? स्टैच्यू आॅफ यूनिटी के लिए आदिवासियों का खेत-टांड़ और घर-बारी के साथ-साथ उनके धार्मिक स्थल को भी पानी में डूबो दिया गया, नर्मदा डैम के 3.2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पहाड़ी टेकड़ी, जिसे वराता बाबा टेकड़ी कहा जाता है । आदिवासियों का देवता है, जिसे आदिवासियों से छीन लिया गया है, यह सुप्रीम कोर्ट के फैसला का खुला उल्लंघन है । ओडिशा माईनिंग कोरपोरेशन बनाम वन व पर्यावरण मंत्रालय एवं अन्य सी स. 180 आॅफ 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देते हुए स्पष्ट कहा है कि जिस तरह से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 एवं 26 के तहत दूसरों को धार्मिक आजादी है, उसी तरह आदिवासियों को भी धार्मिक आजादी का मौलिक अधिकार है इसलिए उनके धार्मिक अधिकारों की सुरक्षा और धार्मिक स्थलों का संरक्षण किया जाना चाहिए लेकिन केन्द्र एवं राज्य सरकारों को आदिवासियों के अधिकारों से कोई सरोकार ही नहीं है । इसलिए उनके अधिकारों के साथ मजाक किया गया है आदिवासियों के धार्मिक स्थल को छीनने के लिए क्या नरेन्द्र मोदी को उनसे माफी नहीं मांगनी चाहिए?

ग्राम सभा के विरोध के बाद भी हुआ निर्माण 

भूमि अधिग्रहण का विरोध करने पर आदिवासियों को विकास विरोधी होने का तामगा पहनाया जाता है लेकिन गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री सुरेश मेहता ने भी स्टैच्यू आॅफ यूनिटी परियोजना का विरोध किया है उन्होंने आरोप लगाया है कि स्टैच्यू आॅफ यूनिटी पेसा कानून 1996 का उल्लंघन कर गैर-कानूनी तरीके से बनाया गया है। पेसा कानून 1996 के अनुसार, ग्रामसभा का निर्णय अंतिम होता है लेकिन आदिवासियों के विरोध के बावजूद गुजरात सरकार ने इस परियोजना को आगे बढ़ाया, वगाड़िया गांव के अरविन्द तडवी कहते हैं कि नर्मदा डैम का पानी नहर के जरिये कच्छ पहुंचता है लेकिन आदिवासियों के 28 गांवों को पानी नहीं दी जाती है. यह आदिवासियों के साथ अन्याय है.इसके अलावा देशभर के 50 पर्यावरणविदों ने भारत सरकार के वन, पर्यावरण एवं जलवायु मंत्रालय को पत्र लिखकर स्टैच्यू आॅफ यूनिटी परियोजना का विरोध किया था, उनका आरोप है कि गुजरात सरकार ने इस परियोजना के लिए पर्यावरण स्वीकृति हासिल नहीं की है । इस परियोजना से शूलपानेश्वर अभ्यारण्य एवं नर्मदा के निचला हिस्सा, जो इको सेनसिटिव जोन के रूप में चिन्हित है, प्रभावित होगा । यह परियोजना पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 एवं ईआईए अधिसूचना सितंबर 2006, एनजीटी एवं न्यायलयों के आदेशों का उल्लंघन है लेकिन इन सारे विरोधों को दरकिनार करते हुए भाजपा सरकार ने चुनाव में भावनात्मक फायदा उठाने के लिए कांग्रेस से उनकी विरासत और आदिवासियों से उनकी जमीन छीनकर स्टैच्यू आॅफ यूनिटी को स्थापित किया है, क्या यह शर्मनाक नहीं है?

प्रधानमंत्री के वक्तव्यों के बाद भी छीन रहे आदिवासियों की जमीन

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आदिवासियों से संबंधित कार्यक्रमों के अपने भाषणों में कई बार दोहराते हुए कहा है कि उनके रहते कोई माई का लाल नहीं है जो आदिवासियों की जमीन छीन ले, लेकिन हकीकत ठीक इसके विपरीत है उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद नर्मदा डैम की ऊंच्चाई बढ़ाने का निर्णय लिया, जिसे आदिवासियों की जमीन डूब गई । स्टैच्यू आॅफ यूनिटी बनाने के लिए आदिवासियों की जमीन छीनकर उन्हें मातम मनाने पर मजबूर कर दिया है। इसी तरह झारखंड के आदिवासियों की जमीन को लूटकर अडानी और वेदांता को देने की पूरजोर कोशिश की जा रही है । मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी भी अपनी जमीन बचाने के लिए संघर्षरत हैं । इसलिए अब आदिवासियों को अपनी गलतफहमी दूर कर लेनी चाहिए कि चुनाव में जुमलेबाजी करने वाले नेता उनके रक्षक नहीं हो सकते हैं क्योंकि कॉरपोरेट घराना और इन नेताओं के बीच में एक बहुत मजबूत गांठजोड़ बन चुका है । यह गांठजोड़ जनहित, राष्ट्हित, विकास, आर्थिक तरक्की और राष्ट्रीय एकता के नाम पर आदिवासियों को उनकी ही जमीन पर जमींदोज कर रहा है । उक्त लेख ग्लैडसन डुंगडुंग के फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है ।

बेहतर होगा कि मूर्ति के अनावरण के पहले सरकार आदिवासियों की शिकायतों पर गौर करे

केंद्र सरकार के अति उत्साह के कारण सरदार पटेल की प्रतिमा विवादों में फंसती नजर आ रही है। गौरतलब है कि नरेंद्र मोदी सरकार और गुजरात सरकार दुनिया की सबसे ऊंची सरदार पटेल की प्रतिमा स्टैच्यू आॅफ यूनिटी के भव्य अनावरण के लिए जोर-शोर से तैयारी में लगी है। लेकिन इस मूर्ति के आसपास के गांवों के हजारों आदिवासी इसके विरोध में भारी प्रदर्शन करने की तैयारी में हैं। खबरों के मुताबिक स्टैच्यू आॅफ यूनिटी प्रोजेक्ट की वजह से करीब 75,000 आदिवासी प्रभावित होंगे। प्रधानमंत्री नर्मदा जिले के केवड़िया में प्रतिमा के अनावरण का विरोध करेंगे। आदिवासियों के मुताबिक उस दिन 72 गांवों में कोई खाना नहीं पकेगा। वे उस दिन शोक मनाएंगे, क्योंकि इस प्रोजेक्ट की वजह से उनका जीवन बर्बाद हो गया है। पारंपरिक तौर पर आदिवासी समुदाय में उस दिन भोजन नहीं पकाया जाता है, जब वे किसी मृतक के लिए शोक मना रहे होते हैं। आदिवासी आक्रोश में हैं। वे कह रहे हैं कि वे गुजरात के महान पुत्र सरदार पटेल के खिलाफ नहीं हैं। उनका सम्मान किया जाना चाहिए। उनका यह भी कहना है कि वो विकास के भी खिलाफ नहीं हैं। लेकिन उनका आरोप है कि मौजूदा सरकार का विकास का विचार एकतरफा है और यह आदिवासियों के खिलाफ है। आदिवासियों की शिकायत है कि उनकी जमीन सरदार सरोवर नर्मदा परियोजना के साथ मूर्ति और अन्य सभी पर्यटन गतिविधियों के लिए ले ली गई है। खबरों के मुताबिक इस कथित असहयोग आंदोलन को राज्य के 100 छोटे और बड़े आदिवासी संगठन समर्थन दे रहे हैं। उत्तरी गुजरात के बनासकांठा से लेकर दक्षिण गुजरात के नौ आदिवासी जिले के लोग विरोध प्रदर्शन में शामिल होंगे। गौरतलब है कि स्टैच्यू आॅफ यूनिटी प्रोजेक्ट की वजह से प्रभावित हुए 72 गांवों में से 32 गांव सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। इनमें से 19 गांवों में तथाकथित रूप से पुनर्वास नहीं हुआ है। केवड़िया कॉलोनी के छह गांव और गरुदेश्वर ब्लॉक के सात गांवों में सिर्फ मुआवजा दिया गया है। लेकिन जमीन और नौकरी जैसे वादों को अभी तक पूरा नहीं किया गया है। पीड़ित परिवारों का कहना है कि कुछ प्रभावित लोगों ने भूमि अधिग्रहण के विरोध में पैसे भी नहीं लिए हैं। वहीं जितने लोगों को जमीन दी गई है, उनमें से अधिकतर का कहना है कि वे इससे संतुष्ट नहीं हैं। बेहतर होगा कि मूर्ति के अनावरण के पहले सरकार आदिवासियों की शिकायतों पर गौर करे।



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