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गोंडवाना धरती के महानायक मोतीरावण कंगाली जी के साहित्य ज्ञान की रोशनी सूर्य के समान

गोंडवाना धरती के महानायक मोतीरावण कंगाली जी के साहित्य ज्ञान की रोशनी सूर्य के समान 

आचार्य तिरू. मोतीरावण कंगाली की पूण्यतिथि पर विशेष 



गोंडवाना क्रांतिसूर्य, विख्यात लेखक, साहित्यकार, भाषाविद एवं आचार्य मोतीरावण कंगाली जी के अवसान दिवस 30 अक्टूबर उनके तिरोधान के अवसर पर गोंडवाना दर्शन पृष्ठ 62, स्वयं आचार्य कंगाली जी के मुखारबिंद से, गोंडवाना ऐसा शब्द है जिससे गोंडियनों के मूल वतन का बोध होता है, गोंडियनों की जन्मभूमि, मातृभूमि, धर्मभूमि और कर्मभूमि का बोध होता है । उनके मातृभाषा का बोध होता है फिर चाहे वह कोई भी गोंड हो, कोया गोंड हो, राज गोंड हो, परधान गोंड हो, कंडरी गोंड हो, माड़िया गोंड हो, अरख गोंड हो, कोलाम गोंड हो, ओझा गोंड हो, परजा गोंड हो, बयगा गोंड हो, भील गोंड हो, मीन गोंड हो, हलबी गोंड हो, धूर गोंड हो, वतकारी गोंड हो, कंवर गोंड हो, अगरिया गोंड हो, कोल गोंड हो, उंराव गोंड हो, संताल गोंड हो, हो गोंड ही हो । सभी गोंडवाना भूखण्ड के गणराज्यों के गण, गण्ड, गोण्ड प्रजा हैं । गोंडवाना की आबो हवा हमारा जीवन है, यहां की प्राकृतिक सम्पदा हमारी पूंजी है, यहां के प्राकृतिक नियम, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन दर्शन है, जीवन मूल्य हैं । यहां की प्रकृति की धुन, भाषा, साहित्य,  संगीतकला, जीवन शैली, अस्मिता एवं पहचान का इस भू-भाग से हमारा अटूट संबंध रहा है । हमें पृथक नही किया जा सकता, हमें मिटाया नही जा सकता । हमें समूल नष्ट करने का प्रयास निरर्थक है, हमारे सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों एवं तीज-त्यौहारों का अतिक्रमण करके हम पर थोपे गये अपने आर्यन सामाजिक-धार्मिक संस्कृतिक मूल्य, जीवनदर्शन तथा तीज-त्यौहार आने वाले कल में अपने-आप छठ जायेगें,  फिर नया सबेरा होगा, नया सूर्य उगेगा, नई जागृति आयेगी और यह आर्यन धर्म एवं संस्कृति हमारे लिए निरर्थक साबित होगी ।  हम अपने यथा स्थान अपने मूल में पुन: काबिज होगें ।  




गोंडियन साहित्य को सगा समुदाय को समपर्ण करने वाले मार्गदर्शक, प्रेरणास्त्रोत लिंगोवासी धर्माचार्य मोतीरावण कंगाली जाी महानायक का जन्म 02 फरवरी सन 1949 को महाराष्टÑ विदर्भ के नागपुर जिले के रामटेक तहसील के एक छोटे से गॉव दुलारा में हुआ था । इनके पिता छतीराम और माता रायतार खुद अशिक्षित होते हुए इन्हें मैट्रिक, स्नातक, स्नातकोत्तर की उच्च शिक्षा नागपुर से पूर्ण करवायी,  तत्पश्चात इन्होनें श्ज्ीम च्ीपसवेवचीपबंस इेंम व िज्तपइंस बनसजनतंस अंसनमे चंतजपबनसंतसल पद तमेचमबज व िळवदक ज्तपइम व िब्मदजतंस प्दकपंश्  में शोध कार्य किया । इनकी धर्म पत्नी श्रीमति चन्द्रलेखा कंगाली स्वयं महाराष्ट राज्य शासन में  ैवबपंस ूमसंितम व्पििबमतण् तमेचवदेपइसम ीवनेम ूपमि - ूतपजमत हैं,  इन्होंने भी गोंडियन समुदाय के लिए जीवजगत की उत्पत्ति, उत्थान एवं पतन ग्रंथ की रचना की हैं । गोंडवाना दर्शन, फरवरी-1988 पृ. 24  श्रीमती कंगाली जी का लेख-सबसे महान ध्येय, में आप लिखती हैं कि इस विज्ञान के युग में परिस्थितियां तेजी से बदल रही हैं और हमारा समाज अज्ञान के अंधकार में डूबा हुआ है, जबकि सारी दुनियां प्रगति पथ पर है, इसके लिए हमें सक्त कदम उठाने की जरूरत है। सचमुच चन्द्रलेखा कंगाली जी के क्रांतिकारी विचार आचार्य कंगाली जी से खूब मेल खाते हैं तथा समाज की नई दशा और दिशा तय करने में मील का पत्थर साबित हो सकते हैं । इनकी तीन संतानों में पहली आईआरएस अफसर, दूसरी चिकित्सक एवं तीसरी उच्च शिक्षा में अध्ययनरत है ।



एक संगठन में अनुबंधित होकर मर मिटने के लिये कटिबध होंगे तो बन सकता है गोंडवाना राज्य

आचार्य कंगाली जी का अद्भुत वक्तव्य गोंडवाना दर्शन पृ. 62, 63, 64, 65 में लेख है कि सम्पूर्ण गोंडवाना हमारी मातृ भूमि, पितृ भूमि तथा देव भूमि है । यहां रहने वाले हम सब आदिवासी एक हैं, हमारी संस्कृति एक है, गोंडवाना धरती ही हमारी अस्मिता है । इस भूमि पर हमारा अधिकार पुन: क्यों नही हो सकता ? जब मराठी के लिए महाराष्टÑ, गुजरातियों के लिए गुजरात, पंजाबियों के लिए पंजाब, बिहारियों के लिए बिहार, राजपूतों के लिए राजस्थान, कन्नड़ियों के लिए कर्नाटक, तमिलियों के लिए तमिलनाडु, बंगाली के लिए पश्चिम बंगाल, तेलगुभाषी के लिए तेलंगाना और छत्तीसगढ़ी के लिए छत्तीसगढ़ बन सकता है तो करोड़ों गोंडी भाषी, भिलोड़ी, कोली, कुडुख, मुण्डा भाषियों के लिए गोंडवाना राज्य गठित क्यों नही हो सकता है ? क्या सिर्फ हमें ही अपने भू-भाग पर भाषाई आधार पर एक राज्य में रहने का अधिकार नही है ? आज भी समय है । यदि मेरे सम्पूर्ण आदिवासी समाज के प्रबुद्ध भाई-बहन एक सूत्र में,  एक संगठन में अनुबंधित होकर मर मिटने के लिए कटिबद्ध होगें तो मुझे आशा ही नही बल्कि पूर्ण विश्वास है कि,  इस उद्देश्य को अपना अंतिम लक्ष्य बनाकर  सर्वांगीण विकास साध्य करने के लिए यह क्रांतिकारी कार्य करेगें तो गोंडवाना राज्य बनाये जाने के इस महा अभियान में हम अवश्य सफल होगें ।



अलिखित मौखिक साहित्य को लिपिबद्ध किया

आचार्य कंगाली जी ने अपने स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के पश्चात भारतीय रिजर्व बैंक, नागपुर में सन 1976 में सिक्का परीक्षण लिपिक पद पर भर्ती हुए तथा नौकरी के दौरान गोंडी धर्म, संस्कृति, रीति रिवाज, भाषा-बोली, लिपि, आचार-विचार, पर्व-उत्सव, संस्कार आदि को साहित्य के माध्यम से रेखांकित एवं लिपिबद्ध किया ।  बचपन से ही अपने समाज की दयनीय दशा और बदहाल जीवन को देखकर इनके मन में पीड़ा होती थी, एक तरफ सरकारी नौकरी तथा दूसरी तरफ पारिवारिक जिम्मेदारी बावजूद इसके इन्होने समाजिक कल्याण, समाजिक उत्थान, सामाजिक जन-जागृति, जनचेतना तथा सामाजिक विकास हेतु अपनी जाति पर शोधकार्य करने का दृढ़ संकल्प किया । आपने अलिखित मौखिक साहित्य को एकत्रित करना शुरू किया । आपके मन में जबरदस्त सामाजिक सोच होने के कारण आप निरंतर इस दिशा में आगे बढ़ते रहे, तिरू मोतीराावण कंगाली जी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे, उन्हें 25 दिसम्बर, 1988 ई को हाईकोट के एडव्होकेट श्री बी.एन. नेताम के द्वारा अखिल गोंडवाना साहित्य सम्मेलन भद्रावती, जि. चंद्रपुर, महाराष्टÑ के अवसर पर आचार्य की उपाधि से विभूषित किया गया । व्यस्तत्म जीवन और समयाभाव के बावजूद आपने कम समय में अनेकानेक यात्रायें कर गोंडी संस्कृति की विस्तृत जानकारी संग्रहित की ।


गोंडी साहित्य के सूखे को हरा-भरा करके ऐतिहासिक कार्य किया 

आपने तिरू रंगेल सिंह राजनेगी सिवनी द्वारा लिखित कोयापुनेम ता सार, गोंडी सगा बिडार,  गोंडवाना ता महाकलडूब ग्रंथ आदि के माध्यम से सन 1989 में कोया पुनेम ता सार ग्रंथ तथा गोंडी धर्म दर्शन की रचना कर गोंडी जनमानस को गोंडीधर्म में दीक्षित करने का कार्य किया । मंगल सिंह राजनेगी,  कोचेवाड़ा लामता, जि0 बालाघाट जिन्होनें 1918-19 ई0 में गोंडी लिपि की खोज की एवं उनकी गोंडी किताबें -गोंडी धर्म विचार, गोंडी धर्म पुराण, गोंडी लबेद, गोंडी भजन माला, बड़ा  देव दर्शन, गोंडी पहाड़ा आदि प्राप्त कर लिंगोवासी मोतीरावण कंगाली जी ने तिरू मंगलसिंह राजनेगी की गोंडी लिपि गं्रथ के वास्तविक स्वरूप में बदलाव करके गोंडी लम्क पुन्दान नामक गोंडी लिपि ग्रंथ की सन 1991 में रचना की,  तिरू कंगाली जी इस गं्रथ की प्रस्तावना में लिखते हैं कि गोंडीलम्क पुंदान तिरू मंगल सिंह राजनेगी परधान कृत गोंडी लिपि बोध भाग 01 एवं भाग 02 के आधार पर बनाया गया है । आगे कहते है कि गोंडी लिपि का प्रचार सन 1838 में सम्पूर्ण मध्य भारत में था और आज भी यह लिपि आंध्र, विदर्भ और मध्य प्रदेश के गोंडी भाषिक क्षेत्रों में प्रचलित हैं । लिंगोवासी मोतीरावण कंगाली जी ने बाद में इन ग्रंथों के माध्यम से कई गोंडी ग्रंथों की रचना की तथा समाज को बहुमूल्य गोंडी साहित्य प्रदान किया । आचार्य लिंगोवासी मोतीरावण कंगाली जी ने गोंडी साहित्य के सूखे को हरा-भरा करके ऐतिहासिक कार्य किया ।


गोंडियन साहित्य ग्रंथों का रचा इतिहास 

आचार्य कंगाली जी ने कई धार्मिक और सामाजिक गं्रथों की रचना करके समाज के साहित्य के सूखें को हरा-भरा किया जिनमें उनकी अमर कृतियां गोंडी धर्मदर्शन और कोया पुनेम ता सार, गोंडी सगा बिडार, 1980 जैसे धार्मिक और सामाजिक, सांस्कृतिक साहित्य है । इसके अलावा उनकी लिखी गोंडवाना गढ़ दर्शन, गोंडवाना कोटदर्शन, गोंडी नृत्य का पूर्वोत्तर इतिहास, कुंवारा भिमाल पेन ता सार, तीन्दाना मांदी ते वारीना पाटांग, मुंडारा हीरो गंगा, कोयाभिड़ीता गोंडी सगा बिडार, चांदागढ़ की महाकाली कंकाली, दंतेवाड़िन वेनदाई दंतेश्वरी, कोराड़ी तिलकाई दाई, जंगो दाई, प्रिय राजा रावण के भजन, गांव देवी देवताओं के भजन इसके अलावा गोंडवाना का सांस्कृतिक इतिहास, गोंडों का मूलनिवास स्थल, गोंडी भाषा व्याकरण, गोंडी भाषा शब्दकोष भाग 1 एवं भाग 2, सिंधुघाटी का गोंडी में उद्वाचन आदि अन्य ग्रंथों की रचना की ।



कंगाली एकमात्र व्यक्ति थे जिन्होंने पढ़ा था सिंघुघाटी की चित्र लिपि


लिंगोवासी मोतीरावण कंगाली एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने सिंधुघाटी सभ्यता की चित्र लिपि को गोंडी में पढ़ने में सफल हुए । पाश्चात्य पुरातत्ववेत्ता एवं शिक्षाविद् जान मार्शल, कंनिघम, आरडी बैनर्जी, डीआर साहनी आदि पुरोधाओं ने उस चित्रलिपि को पढ़ने में असफल रहें  । लिंगोवासी कंगाली जी का सैंधवी लिपि का गोंडी में उद्वाचन पूरे वैश्विक जगत के इतिहास, पुरातत्व, धर्म, दर्शन, विज्ञान में नए सिरे से ज्ञान का उद्गम का रास्ता साफ कर दिया तथा दुनिया को यह बता दिया कि सिंधूघाटी यहां के मूलनिवासियों की सभ्यता थी जो विश्व में सबसे प्राचीन, विकसित और महान सभ्यता थी ।  इसके अलावा लिंगोवासी मोतीरावण कंगाली जी ने गोंड समाज को रंपेमअंण्बवउ वेबसाइड का निर्माण कर समाज के जन्म से लेकर मृत्यु तक सम्पूर्ण संस्कार, धार्मिक रीति रिवाज, धार्मिक आस्था, खान-पान, पेन ठाना, कुल देवता, ग्राम देवता, गढ़, गोत्र, बाना, टोटम, अनुष्ठान, पर्व, उत्सव, त्यौहार, धार्मिक पूजा-पद्धति, विधि-विधान, धार्मिक कार्यों के करने के तरीके, इलाज, आदि इसमें गोंड समाज से जुड़े समस्त क्षेत्रों को सम्मिलित किया गया है । यह उनकी एक क्रांतिकारी पहल है । अपनी संस्कृति और पहचान को बनाये रखने की तथा मुकाम तक पंहुचाने की पहल है, अपनी अस्मिता और स्वाभिमान को बचाये रखने की पहल है ।  



कंगाली जी की महान उपलब्धियों में से एक कोयली कचारगढ़ की खोज 

वे नियमित रूप से अंग्रेंजों द्वारा लिखित गं्रथों एवं गजेटियरों का अध्ययन करते रहते थे साथ ही ग्रामीण अंचल से गोंडी लोकसंगीत, नृत्य, जनश्रुति, परधान पठारियों की किस्से, कहानी, उनकी गाथाओं का संग्रह, गोंडी लोक व्यवहार तथा लोक मान्यताओं का संग्रह करना उनके व्यवहार में शामिल था । वे बिना थके और हार माने निरन्तर अपने शोधकार्य के दौरान कोयली कचारगढ़ की वादियों और पहाड़ों की खाक छानते रहे, अंतत: उन्होंने कोयली कचारगढ़ को गोंडियन समुदाय के लिए एक धार्मिक स्थल के रूप में स्थापित करने में सफलता अर्जित की । उन्होंने अपने प्रसिद्ध गं्रथ गोंडी धर्म दर्शन में कोयली कचारगढ़ और वहां की नैसर्गिक वादियों का तथा गोंडी देवी-देवताओं के साथ आदिकाल में हुई घटित घटनाओं का बहुत मार्मिक और रोचक चित्रण किया है । गुरू कुपार लिंगों ने किस प्रकार गोंडियन सामाजिक व्यवस्था प्रतिस्थापित की, इन सब बातों को मोतीरावण कंगाली जी ने सबके सामने लाने का प्रयास किया है । कुपार लिंगों के गुरू हीरासूका पाटारी के बलिदान और शहादत, पारीकुपार लिंगों की गोंडी सगावेनों को दी गई गोंडी धर्म शिक्षा-दीक्षा और ज्ञान-साधना, तपस्या, माता कली कंकाली के त्याग, दाई रायतार जंगो की सेवा और विश्वास, शंभू-गौरा के समर्पण और आशीर्वाद को पीढ़ी दर पीढ़ी चिरस्मरणीय और चिरस्थायी बनाने के उद्देश्य और प्रयोजन के लिए श्री कंगाली जी ने सर्वप्रथम सन 1984 में गोंडी सप्तरंगी ध्वजा फहराकर इस धार्मिक जतरा की शुरूआत की । गोंडवाना दर्शन फरवरी-1988 पृ. 34-35, कोयापुनेम जय सेवा मंत्र में लिखते हैं कि मानवता की नि:स्वार्थ सेवा हमारे लोगों के द्वारा की जाती है फिर भी हमें उसके बदले वनवासी तथा जंगली जीवन गुजारने को मजबूर किया जाता हैं, इसके लिए हमारे समस्त गोंड वंश के प्रबुद्ध भाइयों को विचार करने की आवश्यकता है तथा अन्याय के खिलाफ एकजुटता के साथ आवाज बुलंद करने की जरूरत है ।


समर्थ गोंडवाना की पुन: स्थापना के लिए कंगाली के सिद्धांतों एवं पदचिन्हों का अनुसरण करना होगा

आचार्य मोतीरावण कंगाली जी गोंडवाना को पुन: गोंडवाना राज्य के रूप में पुनसर््थापित होते हुए देखना चाहते थे । यह हमारे लिए अस्मिता और गौरव की बात है । आज आचार्य कंगाली जी के विचारों और सिद्धांतों को धता बताकर उनके ही समाज के कुछ प्रबुद्ध लोग गोंड जाति समाज के संगठन के शीर्ष पदों में रहकर, अपने को आचार्य मोतीरावण कंगाली जी के अनुयायी बताकर, आचार्य मोतीरावण कंगाली जी के विचारों एवं सिद्धांतों की अवहेलना करके उनका खून करके केवल गोंड जाति की बात करना तथा गोंड के अलावा  कोई नही की बात करना, जाति कट्टरता को बढ़ावा देना । गोंड, गोंडी और गोंडवाना की बात करना बावजूद इसके गोंडवाना राज्य की परिसंकल्पना करना हमें लगता है कि यह निहायत ही अपरिपक्वता की निशानी है । हम सिर्फ गोंड और गोंडी की बात करके आचार्य मोतीरावण कंगाली जी के विचारों एवं सिद्धांतों का अपमान ही कर सकते हैं, इसके अलावा कुछ हासिल नही हो सकता । हमें समर्थ गोंडवाना की पुन: स्थापना के लिए आचार्य मोतीरावण कंगाली के सिद्धांतों एवं पदचिन्हों का अनुसरण करना होगा, जिसमें माढ़िया, मुड़िया, कोल, भील, बैगा, ओझा, परजा, पठारी, परधान, कंडरा, नगारची, दोरला, ढुलिया, बादी, गायकी, सरोती, कंडरा, हल्वा, हल्वी, धुरवा, बिंझवार,  माना, भैना, भूइयां, भूमिया, भारिया, कोरकू , गोंडी लोहार, कोलम, कंध, कुई  आदि सभी की भूमिका की बात करना पड़ेगा । गोंड समाज जाति संगठन के शीर्ष पर बैठे कुछ प्रबुद्ध लोग जो सिर्फ गोंड की बात करने वालों को समझना चाहिए कि किसी भी जाति समाज में एकीकरण का ताना-बाना धर्म आधारित होता है जहां क्षेत्रीयता, भाषा-बोली, रहन-सहन, आचार-विचार, कार्य और व्यवसाय में भिन्नता हो सकती है वहा केवल गोंड जाति की बात करके गोंडवाना की परिकल्पना को साकार नही किया जा सकता । पुन: समर्थ गोंडवाना राज्य की स्थापना नही की जा सकती ।


गोंडी भाषा एक नदी की तरह प्रवाहित होने वाली धारा 

गोंडवाना दर्शन फरवरी-मई 2001, पृष्ठ संख्या 12, राष्टÑीय 10 वॉ गोंडी साहित्य सम्मेलन चॉदागढ़ के अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में आचार्य कंगाली जी कहते हैं कि गोंडी भाषा सिर्फ गोंड जाति की बपौती नही है, अगर यह कहा जाय कि गोंडी भाषा मात्र गोंड लोगों की है तो यह मिथ्या प्रचार है । यह एक नदी की तरह प्रवाहित होने वाली धारा है । कोया पुनेम गोंडीधर्म सद्मार्ग गोंडवाना दर्शन जुलाई-2014, पृ.सं. 23-24 में कहते हैं जिनके पास राज्य की बागडोर थी वे राज गोंड हुए, पूजा, रीति-नीति, कर्मकाण्ड, वंशावली, यशोगान, बखान, ज्ञान एवं सद्मार्ग देने वाले तथा राज गोंडों के राज्य का संचालन करने वाले  को परधान गोंड कहा गया है ।  जड़ी-बूटी, मंत्र-तंत्र तथा जड़ चेतन को समाज हित में कार्य करने वाले, शादी-विवाह करवाने वाले, ठाकुर देव, खीला-मुठवा, धरती देवों का पूजन करवाने वाले को बैगा कहा गया । जमीन से लोह तत्व निकालकर पिघलाकर लोहा बनाया उसे अगरिया गोंड, पशुओं का संरक्षण-संवर्धन करने वाले को गायकी गोंड, जमीन के अंदर खुदाई करने वाले को कोल गोंड, जंगल में पशु-पक्षी पकड़ने वाले को बहेलिया गोंड, बाजा-बजाने वाले को ढुलिया गोंड, नृत्यगीत करने वाले भिम्मा गोंड, बांस की वस्तुएं बनाने वाले को कंडरा, नगारची, गांडा, चिकवा, भील, भिलाला आदि सब समुदाय गोंड ही हैं । आर्य संस्कृति के आगमन के साथ ही हमारी सामाजिक व्यवस्था धाराशाही हो गई, रीति-नीति में परिवर्तन तथा रोटी-बेटी का संबंध नहीं होने लगा जबकि मूलरूप में ये सभी जाति-समुदाय गोंड हैं ।


अपना नाम मोतीराम से मोतीरावण कंगाली रख लिया

इस सदी के महानायक ने 30 अक्टूबर, 2015 को 66 वर्ष की उम्र में अपने जीवन के सफर को समाप्त कर दिया । गोंडियन समाज का यह सूर्य अस्त होते-होते भी अपनी लालिमा को बिखेरते गया । एक शख्सियत, एक पहचान सदा-सदा के लिए इस धरा से अपनों को अलविदा कह दिया । हमेशा समाज के लिए शहीद होने की बात करने वाले एक हस्ताक्षर, एक कलमकार, एक कलम का योद्धा हमेशा-हमेशा के लिए कलम को अलविदा कह दिया । समाज के आबा, कलम के स्वामी, महान आचार्य के इस तरह आकस्मिक अवसान पर न सिर्फ गोंडियनों को अपूर्णनीय क्षति हुई बल्कि सारे बौद्धिक जगत को आपने शोकाकुल कर दिया । आचार्य मोतीरावण कंगाली जी जिन्होंने गोंडी जनों की धर्म, संस्कृति, भाषा-बोली, रहन-सहन, धार्मिक और सामाजिक पहचान को सहेजने और संवारने में अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया, जिन्होनें अपने प्रिय राजा रावण के बारे में जानकर समाज में जागृति एवं चेतना लाने के उद्देश्य से अपना नाम मोतीराम कंगाली से मोतीरावण कंगाली कर लिया । इस गोंडवाना धरती के महानायक की ज्ञान की रोशनी सूर्य के समान है, इस सूर्य के विचारों और सिद्धांतों को रौंदकर सिर्फ एक अकेली गोंड जाति की बात करना उस सूर्य को दिया दिखाने के समान है, हास्यास्पद है । आचार्य जी के विचार एवं सिद्धांत अपने-आप में सिर्फ गोंड जाति की बात करने वालों को एक करारा थप्पड़ है । गोंड जाति गोंड वंश की कार्यपालिक रक्त समूह की जाति है, यह शक्ति एवं बुद्धि की मिशाल है, आदिकाल से सैकड़ों जातियां-उपजातियां इसके अन्दर समाहित रहीं हंै । इस सामर्थ्यवान कार्यपालिक जाति को सिर्फ गोंड जाति तक सीमित करके स्वमेव अपने पूर्वजों, आचार्यो, धमार्चार्यो  के आचार-विचार एवं सिद्धांतों का अपमान करने वालों को आचार्य मोतीरावण कंगाली जी कभी बर्दास्त नही कर सकते, उन्हें अपना अनुयायी कभी स्वीकार नही कर सकते । सिर्फ गोंड जाति की बात करने वालों को जाति-उपजाति की संकीर्ण मानसिकता और विचारधारा से उपर उठकर सोचना होगा, तभी गोंड, गोंडी और गोंडवाना राज्य की संकल्पना साकार होगी, नया सबेरा होगा । यही इस सदी के महानायक के लिए हमारी सच्ची श्रद्धांजली और आदरांजली होगी ।

लेखक-रायभगत के0एल0 उइके





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