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ईमानदारी, वफादारी, टिकिट फाईनल होते ही बदल जाती है बेईमानी-गद्दारी में क्यों ?

ईमानदारी, वफादारी, टिकिट फाईनल होते ही बदल जाती है बेईमानी-गद्दारी में क्यों ?

भाजपा, कांग्रेस, गोंगपा कोई भी हो दल हो सब में मौजूद है भीतरघात के खिलाड़ी

राजनैतिक दलों में ईमानदारी, वफादारी, जिम्मेदारी, जवाबदारी की बात करने वाले पदाधिकारी और कार्यकर्ताओं की हकीकत और वास्तविकता तब सामने आने लगती है । जब चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों की टिकिट राजनैतिक दलों के द्वारा घोषणा की जाती है । जैसे ही किसी भी दल में उम्मीदवार तय होता है तो अन्य जो टिकिट के दावेदार होते है वे और उनके समर्थकों के द्वारा खुलकर राजनैतिक दलों के संगठनों के मुखिया, रीति-नीति सिद्धांतों की बखिया गली चौक-चौराहों में आकर खोलने लगते है और संगठन के मुखियाओं शीर्ष नेताओं पर दोषारोपण खुलेआम करने लगते है । पार्टी के सारे सिद्धांतों को सारी तहजीब मर्यादा को भूलकर यहां तक अपशब्दों का भी उपयोग करने से कोई गुरहेज नहीं करते है इनकी बातों को सुनने वाला समझ जाता है कि ये राजनैतिक दलों के प्रति कितने वफादार व ईमानदार या स्वार्थ के लिये राजनीतिक दलों में कार्य करते है । 

सिवनी। गोंडवाना समय। लोकतंत्र में चुनाव की बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है और इन चुनाव में राजनैतिक दलों के द्वारा उम्मीदवार के रूप में बनाये जाने वाले प्रत्याशी को जनसेवक बनने के लिये कुर्सी या पद मिलता है कुछ सौभाग्यशाली भी होते है जो किसी राजनैतिक दलों से नहीं होते और निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जनसेवक बनने का उन्हें मौका मिलता है । चुनाव के दौरान राजनैतिक दलों में काम करने वाले संगठन के पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं की ईमानदारी, वफादारी आईने के तरह साफ हो जाती है या साफ शब्दों में कहें पदाधिकारी व कार्यकर्ता कितने दूध के धूले है यह स्पष्ट नजर आने लगता है । राजनैतिक दलों के संगठन के पदाधिकारी और कार्यकर्ता अपने संगठन के प्रति कितने ईमानदार व वफादार है इसका खुलासा चुनाव के दौरान हो जाता है उनके अंदर कितना स्वार्थ स्वयं के सुख के लिये अंदर भरा होता है यह भी सामने आ जाता है । यदि हम देखे तो पूरे पांच वर्ष में चुनाव के दौरान गुटबाजी की चरम सीमा, खुले आम आरोप-प्रत्यारोप, एक दूसरे को नीचे दिखाने के लिये खुलकर बयानबाजी करना, बदनाम करने के लिये षडयंत्र रचने का खेल कहीं खुलकर होता है तो कहीं छिपकर खेला जाता है जो छिपकर खेलते है उन्हें भीतरघाती शेरों की संज्ञा दी जाती है । राजनैतिक दल कोई भी हो सबकी स्थिति अमूमन यही है चुनाव के पहले और उम्मीदवार तय होने के पहले जिस तरह से शपथ, संकल्प लिया जाता है अपनी पार्टी को हर हाल में जिताने की सौगंध-कसम खाते है वह जैसे ही उम्मीदवार तय होता है उसकी सत्यता सामने आ जाती है क्योंकि जिस उम्मीदवार को राजनैतिक दल के संगठनों के द्वारा उम्मीदवार व प्रत्याशी घोषित किया जाता है उसके  विरोध में मोर्चा तो खोलते ही है साथ में संगठन के शीर्ष नेतृत्वों का भी खुलकर विरोध करने लगते है । जो यह साबित करने लगता है कि पदाधिकारी व कार्यकर्ता अपने अपने संगठनों के प्रति कितने ईमानदार, वफादार है उनका पूरा काला चिठ्ठा सामने आने लगता है ।

भाजपा अनुशासन नहीं बागियों की बनने लगी पहचान

हम यदि बात करें भारतीय जनता पार्टी की तो पं दीनदयाल उपाध्याय जी, श्यामा प्रसाद मुर्खजी, पं अटल बिहारी वाजपेई सहित अनेक ऐसे पितृपुरूष है जिन्होंने पूरी ईमानदारी वफादारी से भारत के अनेक प्रांतों में सरकार बनाकर भाजपा को केंद्र की सत्ता तक पहुंचा दिया । भाजपा को अनुशासन, सिद्धांत, रीति-नीति की कड़कता के साथ पालन करने के लिये विशेष रूप से पहचाना जाता है । भाजपा में संगठन के निर्णय को सर्वमान्य मानकर उसका पालन किया जाता है इस दृष्टि से अपनी एक अच्छी छबि के रूप में राजनैतिक गलियारों में चर्चाओं के दौरान सुनने को मिलता है । जब भाजपा सत्ता पाने के लिये संघर्ष कर रही थी उस दौरान कार्यकर्ताओं के पास प्रचार-प्रसार से लेकर चुनाव के दौरान पड़ने वाली आवश्यकताओं के लिये उन्हें तरसना पड़ता था वहीं कांग्रेस इन सब चीजों में आगे रहती थी । तब भाजपा में ईमानदार, वफादार पदाधिकारी कार्यकर्ताओं के द्वारा मेहनत, मशक्त करके पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में जो संघर्ष किया गया । भाजपा में पहले भी संगठन का निर्णय सर्वमान्य होता था और आज भी होता है नहीं मानने वाला कोई भी उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है । अब भाजपा देश के कई राज्यों में राज कर रही है तो केंद्र में भी सरकार में है लेकिन पार्टी वहीं संगठन वहीं रीति-नीति, सिद्धांत में भी कोई बदलाव नहीं आया है हां अब सत्ता का गरूर कहे या स्वार्थ दिखाई देने लगा है वो भी सिर्फ चुनाव में पार्टी की ओर से अधिकृत उम्मीदवार बनने के लिये दावेदार नेता और उनके समर्थक खुलकर यह कहने लगते है कि पार्टी ने यदि गलत उम्मीदवार को चुनाव में उतारा तो हम तो अपनी ही पार्टी को निबटायेंगे अर्थात चुनाव में हरायेंगे, पार्टी जीत नहीं पायेगी हार जायेगी, हमारा खेल नहीं बना तो हम अपनी ही पार्टी का खेल बिगाड़ेंगे कहने से ही नहीं चूकते है खेल बिगाड़ते है और चुनावी परिणाम पार्टी के खिलाफ में आ जाता है । पार्टी की हार के पीछे उनके अपने ही कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों की मुख्य भूमिका होती है तो जब ये अपने ही पार्टी व संगठन के प्रति वफादार नहीं हो सकते है तो इनसे जनता के प्रति वफादारी कहां तक उम्मीद की जा सकती है । हालांकि ये अपना अपना स्वार्थ, पद, प्रतिष्ठा की बात स्वयं की विचारधारा भी हो सकती है लेकिन भाजपा की बात करें तो ये विचारधारा को लेकर बड़े ही अनुशासन को लेकर चलने वाली राजनीतिक दलों में अपनी अलग पहचान रखती है । वर्तमान में परिदृश्य में जिस तरह से चुनाव लड़ने के इच्छुक पदाधिकारी और उनके समर्थक खुलकर भाजपा में खुलेआम प्रदर्शन कर रहे है वह भाजपा के पितृपुरूषों और भाजपा को जमीन लेकर आसमान की ओर पहुंचाने में योगदान देने वाले जीवित व दिवंगत नेताओं की आशाओं पर किस तरह से पानी फेरने का काम कर रहे है यह जगजाहिर हो रहा है ।

कांग्रेस गुटबाजी के लिये शुमार, सत्ता पाने की भर रही ललकार

देश में आजादी के बाद से कांग्रेस की सत्ता रही है बीते कुछ वर्षों की बात करें तो देश के कुछ राज्यों से कांग्रेस का सिंहासन हिलना शुरू हुआ तो धीरे धीरे उनकी प्रदेश में सरकार सत्ता का सुख भोगना कांग्रेस के भाग्य से छिनता जा रहा है । केंद्र में भी कांग्रेस की स्थिति तो ऐसी हुई कि विपक्ष में रहने लायक नहीं बची आखिर क्यों इसके पीछे क्या कारण है सरकार के प्रति जनता के बेरूखी तो है ही या उनकी नीतियां का भी परिणाम हो सकता है लेकिन यदि हम संगठन को राजनैतिक दलों के रूप में चुनाव में कांग्रेस की भूमिका को देखे तो कांग्रेस में गुटबाजी क्षेत्रीय नेताओं की वजनदारी से ग्रसित दिखाई देती है । हम देश की नहीं मध्य प्रदेश की ही बात करें तो यहां पर कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, अरूण यादव, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अजय सिंह, सुरेश पचौरी, कांतिलाल भूरिया से लेकर अनेक ऐसे चेहरे है जो अपने अपने क्षेत्र में कांग्रेस को अपनी नीतियों के अनुसार चलाते है जो गुटबाजी को स्पष्ट प्रदर्शित करती है । कांग्रेस में गुटबाजी के रूप में अपनी विशेष पहचान रखती है अब हम बात करें चुनाव में कांग्रेस की ईमानदारी वफादारी की तो कांग्रेस में भी उम्मीदवारों के चयन को लेकर विवाद की स्थिति बनती है जो कांग्रेस के लिये कहीं न कहीं हार का कारण बन जाती है । कांग्रेस में भी एक बीमार और सौ अनाज की कहावत दिखाई दे रही है एकता बाहरी है लेकिन अंदरू नी विघटन भी स्पष्ट समझ आ रहा है प्रदेश में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कोन बनेगा इसी को लेकर लड़ाई छिड़ी हुई है तो वहीं विधायक के लिये उम्मीदवार बनने के लिये गुटबाजी चरम पर है कहा जाये तो गलत नहीं होगा । टिकिट को लेकर दावेदार अपने अपने समर्थकों के साथ लाबिंग कर रहे है तो यह भी दबी जुबान से कह रहे है कि यदि हमारे अनुसार टिकिट कांग्रेस में नहीं मिली तो हम अपनी ही पार्टी को चुनाव में सबक सिखाने का काम करेंगे और ऐसा होता भी आया है यह उदाहरण चुनाव के परिणाम स्वयं बताते है । मतलब कांग्रेस में रीति-नीति-सिद्धांत तो है लेकिन उनका पालन क्षेत्रिय क्षत्रप नेताओं के अनुसार होता है अर्थात उनके नेता जो नियम चलाते है उसी आधार पर उनके समर्थक कांग्रेस में अपनी भूमिका निभाते है यही कारण है कि कांग्रेस अब सत्ता पाने के लिये संघर्ष कर रही है । कांग्रेस मेें भी जैसे ही उम्मीदवारों की घोषणा होगी विरोध के स्वर और अपनी ही पार्टी को हराने वाले स्वार्थियों की मुहिम रणनीति चालू हो जायेगी आखिर ऐसा क्यों अपनी ही पार्टी के प्रति पदाधिकारी व कार्यकर्ता करने के लिये तैयार हो जाते है यह जनता को समझना आवश्यक है ।

गोंगपा में त्याग, तपस्या, बलिदान, के बाद भी अंदरूनी विद्रोह का है स्थान

गोंडवाना गणतंत्र पार्टी जो पर कार्यकर्ता पदाधिकारी अपने साधन संसाधन जुटाकर संगठन को पांच साल चुनाव तक मजबूत करने, एकता के साथ चलने, गोंगपा की पहचान त्याग, तपस्या ओर बलिदान की बात करते नहीं थकते है, हर हाल में गोंगपा को चुनाव जिताने के लिये शपथ संकल्प लेते है हम मिलजुलकर एकता के साथ में चुनाव में जो भी उम्मीदवार पार्टी संगठन तय करेगा उसे जिताने के लिये काम करेंगे । मंचों माईकों से नेताओं पदाधिकारियों की बात सुनकर ऐसा लगता है कि गोंगपा भी बड़े राजनैतिक दलों को पछाड़ देगी और कम साधन संसाधन में अपना उम्मीदवार को जिता लेगी लेकिन गोंडवाना गणतंत्र पार्टी में भी जब एक किलो अनाज, 10 का नोट और एक वोट के नारे मध्य प्रदेश से तीन विधायक और कांग्रेस को सत्ता से दूर और भाजपा को परसी हुई थाली में सत्ता का सुख सौंपने का काम संघर्ष के साथ किया था तो राजनैतिक भूचाल आ गया था और आदिवासी बाहुल्य राज्यों में गोंगपा का राजनैतिक भविष्य उज्जवल दिखाई देने लगा था लेकिन जैसे जैसे राजनैतिक गतिविधियों का दौर बढ़ा समय बीतते गया तो गोंगपा में भी कहीं न कहीं स्वार्थ की भावना बलबती होती गई और दो फाड़ से लेकर अपने अपने राजनैतिक भविष्य को संवारने के लिये पदाधिकारी कार्य करने लगे और हश्र यह हुआ कि तीन विधायक बनने के बाद अब गोंगपा का एक भी विधायक नहीं है जबकि कार्यकर्ताओं और मदताताओं का रूझान व प्रतिशत गोंगपा के साथ बहुसंख्यक है लेकिन उसके बाद भी गोंगपा का विधायक नहीं बन पाता है उसके पीछे क्या कारण कहा जा सकता है । गोंगपा में भाजपा कांग्रेस की तरह स्थिति निर्मित होती दिखाई देती है कि जैसे ही गोंगपा में उम्मीदवार के नाम का चयन होता है घोषणा होती है तो चुनाव लड़ने वाले अन्य दावेदार अपने समर्थकों के साथ पार्टी के फैसले को गांव से लेकर शहर तक गलत निर्णय हुआ ठहराकर पार्टी के उम्म्मीदवार को हराने की शपथ सौगंध खाने लगते है वे अपनी पुरानी शपथ सौगंध को भूल जाते है बगावत के तेवर अपनाते हुये घर में बैठ जाते है और उम्मीदवार को अकेले चुनाव में लड़ने के लिये छोड़ देते है और परिणाम हार का सामने आने की उम्मीद बढ़ जाती है आखिर ऐसा क्यों होता है जो पदाधिकारी और कार्यकर्ता त्याग, तपस्या, बलिदान की बात करता है पार्टी के प्रति ईमानदार, वफादारी की बात करता है वह खुलेआम पार्टी के प्रति गद्दारी की बात करने लगता है । पार्टी के निर्णय को स्वीकार नहीं कर पाता है वरन उसका विरोध कर अपनी ही पार्टी को हार की दिशा में ले जाने के लिये तैयार हो जाता है तो फिर कैसे विश्वास भरोसा किया जाये कि जो अपनी ही पार्टी के प्रति वफादार ईमानदार नहीं है तो वह जनता के प्रति कैसे ईमानदार हो सकते है ।


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2 Comments
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  1. गोंडवाना समाचार बहुत अच्छा न्यूज़ लेकर आता हैं।।

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  2. धन्यवाद श्रीमान....हमारा सच दिखाने का प्रयास यूँही बना रहेगा

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