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दब रही जनजाति संस्कृति को उभारने रूसमा सैयाम बनाती है सुंदर कलात्मक चित्र

दब रही जनजाति संस्कृति को उभारने रूसमा सैयाम बनाती है सुंदर कलात्मक चित्र  

मलाजखंड। गोंडवाना समय। 
हम आपको बता कि जनजातियों की कला, संस्कृति, परंपरा और जनजातियों के निवास स्थल पर स्थित प्राकृतिक सौंदर्यता आदिकाल से अपनी विशेषताओं को आज भी समेटे हुये अपना गौरवमयी इतिहास को स्वर्णिम ऐतिहासिक स्वरूप में प्रदर्शित करने निरंतर बढ़ रही है
इसके लिये विशेषकर जनजाति समुदाय के सभी लोग अपने समाज का कर्ज चुकाते हुये अपना सामाजिक फर्ज निभाने में अपनी मुख्य भूमिका निभा
रहे है उनमें से एक नाम रूसमा सैयाम भी है। 

पेंटिंग की हर कोई करता है प्रशंसा 

बालाघाट जिले के मलाजखंड से निकट ही दूरी पर बसे ग्राम लोरा की मूलत: निवासी रूसमा सैयाम के पिता स्व श्री चंद्रभान  सैयाम अब हमारे बीच नहीं है वहीं मां श्रीमती भागन सैयाम अभी भी बेटी का हौंसला बढ़ाने साथ दे रही है
उन्होंने ऐसी बेटी को जन्म दिया जो कि आधुनिकता और फैशन के इस युग में जनजाति समाज की अद्भुत कला संस्कृति के साथ जनजातियों के निवास स्थल के आसपास प्राकृतिक सौंदर्यता को आगे बढ़ाने में अपनी रूची दिखाते हुये खुद ही पेंटिंग सीखकर मनमोहक चित्र को हाथों से उकेरकर ऐसा स्वरूप देती है कि देखने वाला बिना तारिफ या प्रशंसा करे नहीं रहता है।

सहेलियां कहती है हमें भी सिखाना

वर्तमान में अपने कैरियर को दिशा देने के लिये प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कर रही रूसमा सैयाम कक्षा 9 वीं से ही पढ़ने के साथ साथ जनजातियों की कला संस्कृति पर आधारित बने हुये पुरातन चित्र जिनमें जनजातियों की कला संस्कृति उनकी दिनचर्यायों की वास्तविकता अलग झलकती हुई दिखाई देती है, उन चित्रों को पेंटिंग के माध्यम से बना रही है।
वहीं इस पेंटिंग को रूसमा सैयाम ने किसी से बनाना नहीं सीखा है वरन उन्होंने स्वयं ही मेहनत, लगन व प्रयास के बल पर बनाना सीखा है यही विशेषता है।
रूसमा सैयाम बताती है कि जब वह स्कूल व कॉलेज में पेंटिग बनाती है तो साथ में पढ़ने वाली सहेलियां पेंटिंग की तारिफ और प्रशंसा तो करती ही है साथ में यह भी कहती है हमें भी इस तरह की पेंटिंग बनाना सिखाना।

दिमाग में समाई हुई है जनजाति कला संस्कृति

रूसमा सैयाम बताती है कि जनजाति वर्ग से मैं स्वयं भी आती हूं और मैं जिस क्षेत्र में निवास करती हूं वह भी जनजाति बाहुल्य क्षेत्र है उन क्षेत्रों में जनजाति वर्ग की कला संस्कृति अक्सर देखने को मिलती है, उसके साथ ही अनेक स्थानों पर भी जनजातियों की कला संस्कृति को जानने व देखने को मिल ही जाता है तो वह दिमाग में आकृति स्वरूप अक्सर आंखों के सामने दिखाई देता है।
इसके साथ ही आज भी जनजातियों की कला संस्कृति वास्तविकता में भी दिखाई देती है, जिन्हें हुबहुं पेंटिंग को आकार देने में ज्यादा मेहनत नहीं लगती है। वही रूसमा सैयाम बताती है कि उन्होंने स्कूल, कॉलेज के साथ अन्य आयोजनों में एवं बीते दिनों बालाघाट में आयोजित जनजाति मेला में भाग लिया है।
जहां पर उनकी पेंटिंग को सराहा जाता है। इसके साथ ही सबसे बड़ी बात रूसमा सैयाम यह कहती है कि जनजाति कला संस्कृति कहीं न कहीं दबाया जा रहा है। इसलिये मेरा यह प्रयास है कि जनजातियों कला संस्कृति को देश दुनिया के साथ सभी सामने उभारकर ला सकुं इसलिये पेंटिंग करने में सबसे रूची रखती हूं।

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