कोयली कचारगढ़ जैसा नैसर्गिक और प्राकृतिक स्थान नहीं है कहीं
कंगाली जी ने 1984 में गोंडी सप्तरंगी ध्वजा फहराकर की थी शुरूआत
यही मानव धर्म है, यही कोयाधर्म है, यही गोंडी धर्म है, यही सत्य है
कोयाधर्म और दर्शन का कोयलीकचारगढ़ में होता है साक्षात्कार
भारत में अनेक कृत्रिम नैसर्गिक स्थान एवं गुफाएं हैं जो पाषाणकालीन और ताम्रयुगीन हैं लेकिन कोयली कचारगढ़ जैसा नैसर्गिक और प्रकृतिक स्थान कहीं भी नही हैं । आदिवासियों की देवभूमि कोयलीकचारगढ़ जहां मनुष्य और देवत्व का साक्षात्कार होता है, जहां कोयादर्शन से साक्षात्कार होता है, गोंडी आचार्य लिंगोवासी तिरूमाल मोतीरावण कंगाली जी की मेहनत, लगन, अथक प्रयास, निरंतर परिश्रम और शोध से आदिवासियों की देवभूमि कोयली कचार की खोज की गई,
आचार्य मोतीरावण कंगाली जी ने सर्वप्रथम सन 1984 में गोंडी सप्तरंगी ध्वजा फहराकर कचारगढ़ जतरा की शुरूआत की तब से लगातार यहां प्रतिवर्ष 5 दिनों तक सम्पूर्ण देश के अलग-अलग राज्यों के आदिवासी लाखों की तादाद में आते हैं। यहां सम्पूर्ण देश के आदिवासी जिसमें राजनीतिक, गैरराजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आदिवासी पंडा, पुजारी, संत, महात्मा, साधु, संयासी, नेगीं एवं सामाजिक कार्यकतार्ओं का समागम होता है। जतरा के दौरान पूरे 5 दिनों तक आदिवासी सामाजिक संगठनों, संस्थाओं एवं मण्डलियों द्वारा गोंडी, धर्म, भाषा, संस्कृति से संबधित सामाजिक, धार्मिक विचार गोष्ठियों का आयोजन, गोंडी सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन, गोंडी नृत्य, गीत-संगीत, कला का आयोजन, साहित्य विचारगोष्ठी तथा भिन्न-भिन्न तरह के कार्यक्रमों के आयोजन के साथ-साथ आदिवासियों से संबंधित सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक समस्याओं पर चिंतन एवं विमर्श होता है।महाराष्ट, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की सीमा से लगा हैं
कोयली कचारगढ़ गोंडी धर्मगुरू पारीकुपार लिंगों की कर्मभूमि, आदिगुरू कुपारलिंगों के गुरू हीरासूका पाटालीर की जन्मभूमि तथा शहादत और बलिदान की गवाह, माता कलीकंकाली, दाई रायतारजंगो और अरूरू शंभू इस कोयामूरी गण्डोद्वीप के 88 स्वयंभूओं में प्रथम शंभू-गौरा की तपोभूमि, महाराष्ट राज्य के गोंदिया जिला के अंतर्गत मुम्बई-हावड़ा मार्ग पर दरेकसा रेल्वे स्टेशन से 4 कि0मी0 दूरी पर धन्नेगांव के पास है, यह तीन राज्यों महाराष्ट, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की सीमा से लगा हैं।
सुख-शांति के साथ शरीर को स्वस्थ्य, ताजगी और स्फूर्ति प्रदान करती हैं
यह सतपुड़ा के घने जंगलों के बीच नैसर्गिक वैभव तथा प्रकृतिक सौन्दर्य, कुदरती हरितिमा से अच्छादित पर्वत, पहाड़ एवं चट्टानें, विशाल गुफाएं, पहाड़ों के खोह से कल-कल करते झरने एवं स्रोते ऐसी राग और तान छेड़ते हैं मानों हीरासूका पटालीर की किंगरी से सात सुरों वाली मीठी, सुरीली, कर्णप्रिय ध्वनि लगातार बिना रूके यहां
की वादियों में गूॅज रही हो, वहीं अथाह जलमग्न गहराई को समेटे जलकुण्ड मानों सूर्य से बातें करते हों, उनकी किरणों से ऐसा लगता है मानो सप्तरंगी गोंडी ध्वजा इस देवस्थान के आसमान में हवा के झोकों के साथ लहरा रहा हो। यहां की वादियां, नैसर्गिक सौन्दर्य, प्राकृतिक झरने, स्रोते, जीव-जन्तु, पशु-पक्षियों का कोलाहल मानों
यात्रियों का स्वागत करते हों । यहां की वादियों में आयुर्वेदिक जड़ी-बूटी तथा जंगली वनस्पति की खुशबू मिश्रित वायु सदैव बहती है जो तन, मन और मष्तिक को अध्याित्मक सुख-शांति के साथ शरीर को स्वस्थ्य, ताजगी और स्फूर्ति प्रदान करती हैं।
हमें कोया जीवन मूल्य और दर्शन की शिक्षा प्राप्त होती है
कचारगढ़ में अरूरू शंभू, शंभू-गौरा, माता कलीकंकाली, कुपारलिगों के गुरू हीरासूका पटालीर, आदिगुरू कुपारलिंगों, माता रायतारजंगों और समस्त गोंडी सगादेवों के साक्षात्कार से हमें कोया जीवन मूल्य और दर्शन की शिक्षा प्राप्त होती है । जहां सम्पूर्ण विश्व के महान धर्मों से यह पूछने पर कि दुनियां का मालिक कौन है ? इस विषय पर इसाई का दर्शन कहता है कि दुनियां का मालिक यीशु है । मुसलमान कहता है कि दुनियां का मालिक अल्लाह है और बाकी सब लोग कहते हैं कि दुनियां का मालिक भगवान है, ईश्वर है, परमात्मा है, आत्मा है, जीवात्मा है, ब्रम्ह है, लेकिन कोयादर्शन कहता है कि-दुनियां का मालिक जंगल है, पहाड़ है,सूर्य है, चंद्र है, तारे हैं, पृथ्वी है, नदी है, नाले हैं, जीव-जंतु हैं, जलाशय है, झरने हैं, हवा है, पानी है, आकाश है, प्रकृति है, यह नैसर्गिक वातावरण हैं, यही दुनियां का मालिक है, यही नीति नियंता है, यही सम्पूर्ण जीवों का रक्षक है, यही जीवन है, यही दर्शन है और यही मानव धर्म है, यही कोयाधर्म है, यही गोंडी धर्म है, यही सत्य है। इसी कोयाधर्म और दर्शन का कोयलीकचारगढ़ में साक्षात्कार होता है, जहां कोयाधर्म का, गोंडी दर्शन का, गोंडीधर्म का मानवता की सेवा, समानता, एकता, भाईचारा, प्रेम, विश्वास, सत्य, अहिंसा, शांित, त्याग, सेवा, बलिदान, जीवन, सह-अस्तित्व, सामूहिकता, सहकारिता और सहयोग ही मानव मात्र के लिए परम संदेश है । यही आदिवासी जीवन है, यही आदिवासी दर्शन है, यही आदिवासियों का धर्म है। यही सेवा-सेवा, जयसेवा, जयजोहार, सेवाजोहार का मूलमंत्र है ।
प्रकृति की रक्षा का ज्ञान हमें आदिगुरू लिंगों ने दिया है
आदिवासी प्रकृति से उतना ही लेता है जितना आवश्यक है, अकारण कभी प्रकृति को नुकसान नही पंहुचाता, आदिगुरू कुपारलिंगों ने हमें यही मार्ग बताया है, हमारे माता-पिता ही सजोरपेन शक्ति हैं, हम अपने पुरखों के लिंगोंवासी होने के उपरान्त पेनशक्ति में मिलाते हैं, माता-पिता की सेवा, पुरखों की सेवा, अपने समाज की सेवा, मानवता की सेवा, नारी का सम्मान, नारी को धरती, धरनी का सम्मान तथा प्रकृति की रक्षा का ज्ञान हमें आदिगुरू लिंगों ने दिया है । आदिगुरू लिंगों ने मोद तंदरी शक्ति, बौद्धिक, शारिरिक, सामाजिक, आर्थिक ज्ञान जीवन-यापन के लिए, जगत कल्याण के लिए 12 वर्षों तक कठोर तप, साधना करके पितृषक्ति, सयंम और समभाव का मंत्र दिया ।
कोया समाज को संगीत, त्याग और बलिदान की दी शिक्षा
सातरंग, सातदिवस, सातसुर, सातदेव, सात समुंदर, सातखण्ड धरती, सात महाद्वीप, सात ऋतु, टुन्डा, मन्डा, कुण्डा संस्कार का ज्ञान, सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्रों का ज्ञान हमें दिया । गोंडी सगावेनों को ज्ञानी, आत्मसंयमी, स्वावलंबी, नैतिक तथा सामाजिक मूल्यों के साथ जीवनमूल्य के सिद्धांत की शिक्षा, सम्पूर्ण विधाओं का ज्ञान, विश्व में मानवता को जीवंत रखने का ज्ञान दिया। माता रायतारजंगों ने मातृशक्ति, मानवसेवा और त्याग की शिक्षा दी, वहीं आदिगुरू लिंगों के गुरू हीरासूका ने कचारगढ़ की भूमि पर गोंडीसगावेनों की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहूति दी, कोयावंशी सगा समाजिक व्यवस्था और सभ्यता के लिए शहादत की मिसाल पेश की, कोया समाज को संगीत, त्याग और बलिदान की शिक्षा दी। ऐसी धार्मिक भूमि, देवस्थली कोयली कचारगढ आदिवासियों के लिए धार्मिक आस्था और विश्वास का मुख्य केन्द्र बन गया है ।
आज प्रकृति का बिगड़ रहा संतुलन
बुद्ध हुए, महावीर हुए, यीशु हुए, पैगम्बर हुए, नानक हुए, मार्क्स हुए, अशोक हुए, अकबर हुए, गांधी हुए और अम्बेडकर हुए लेकिन न भूख खत्म हुई न हिंसा, न जाति खत्म हुई न असमानता, न लैंगिक भेद खत्म हुआ न काले-गोरे का भाव बावजूद इसके आज मनुष्य सृष्टि का दोहन करके सबकुछ नष्ट कर रहा है, पृथ्वी सिमट रही है, समुद्र का स्तर बढ़ रहा है, ग्लेसियर खिसक रहे हैं, ओजोनपरत में छेद हो रहे हैं, सूर्य का तापमान बढ़ रहा है, कहीं अतिवृष्टि हो रही है तो कहीं अनावृष्टि। आज प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है, जंगल खत्म हो रहे हैं, पानी का स्तर नीचे जा रहा है, वायु में आक्सीजन की कमी हो रही है।
आदिवासी हजारों सालो से प्रकृति को सहेजने में लगा हैै
दुनियां में अपने हितसंवर्धन के लिए होड़ मची हुई है, वहीं मौलिक संस्कृति व परम्पराओं के ध्वजावाहक, सांस्कृतिक विरासत के अभिभावक, आस्था, धर्म एवं अध्यात्म के महानायक आदिवासी हजारों सालो से प्रकृति को सहेजने में लगा हैै, प्रकृति से उसका अटूट रिश्ता रहा है, उसका निकट का संबंध रहा है, प्रकृति आदिवासी की सहचरी रही है, बिना पेड़-पौधों और प्रकृति की पूजा किये आदिवासी के कोई भी धार्मिक-सामाजिक कार्य सम्पन्न नही माने जाते।
आदिवासी धर्म और दर्शन से लेना चाहिय सीख
आदिवासी शुरू से प्रकृति पर निर्भर रहा है, गैरआदिवासी यदि आदिवासी की धर्म और दर्शन को अपना लेते हैं, अंगीकार कर लेते हैं, यदि दुनिया का मालिक भगवान, ईश्वर, आत्मा, जीवात्मा, अल्लाह, यीशु, और परमेश्वर के स्थान पर प्रकृति, जंगल, पहाड़ नदी, वायु, आकाष, सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी को दुनिया का मालिक मान लेते हैं तो
प्रकृतिक असंतुलन अपने आप ठीक होे जायेगा, दुनिया में संतुलन अपने-आप बन जायेगा। विश्वकल्याण के लिए, मानवकल्याण के लिए, चरित्र निर्माण के लिए, विश्वबंधुत्व के लिए, जगत के उत्थान के लिए समस्त संसार को आदिवासी धर्म और दर्शन को अपनाना चाहिए, आत्मसात करना चाहिए। आदिवासी धर्म और दर्षन से सीख लेना चाहिए ।
अटूट आस्था, श्रद्धा एवं विश्वास को व्यक्त करता है
देवस्थान कोयली कचारगढ़ की धार्मिक यात्रा आदिवासी की अटूट आस्था को बयां करता है, जहां सैकड़ों मील की दूरी से आदिवासियों के अलावा गैरआदिवासी भी इस आस्था और विश्वास से आते हैं कि कचारगढ़ आने मात्र से उनके बहुत से दुख-दर्द और परेशानियां कम हो जाती हैं, हमने कचारगढ़ की यात्रा कर चुके बहुत से लोगों के मुहं से सुना है कि कचारगढ़ की यात्रा करने से वे अपने दुख, कष्ट और परेशानियों से मुक्त हो गये, बहुतों ने कहा कि देवस्थान कचारगढ़ की यात्रा से नशा-व्यसन आदि से छुटकारा मिल गया, असाध्य रोग एवं बीमारियों से छुटकारा मिला, विक्षिप्त हुए लोगों की मन:स्थिति ठीक हो गई, देवस्थान कचारगढ़ की यात्रा के बाद हमारे परिवार में अमन और सुख-चैन है, एक महिला ने बताया कि मेरा आदमी कचारगढ़ की यात्रा करने के बाद से शराब पीना छोड़कर घर-परिवार का देखभाल करने लगा आदि। इस प्रकार हमें कचारगढ़ के बारे में सालों से कई तरह की बातें सुनने को मिलते हैं जो वास्तव में लोगों की अटूट आस्था, श्रद्धा एवं विश्वास को व्यक्त करता है। प्रत्येक आदिवासी को अपने जीवनकाल के दौरान एक बार देवस्थान कचारगढ़ की धार्मिक यात्रा और जतरा अवष्य जाना चाहिए, अपने देवस्थान का दर्षन करना चाहिए । संभव हैै कि आपके जीवन में भी कोई चमत्कारिक उपलब्धि, सफलता या लाभ कचारगढ़ की यात्रा करने मात्र से हो जाय ।
यह गुजरे जमाने की बात हो गई जब ये सशक्त संगठित समुदाय था
आज आदिवासी जातियां अपने अस्तित्व और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए संगठित, एकजुट और लामबंद हो रही हैं। देश के अलग-अलग दिशाओं से बड़ी जातियों में शुमार गोंड, भील, उरांव, संथाल और मुण्डा जो साहसिक, बौद्धिक और शक्ति सम्पन्न जातियां हैं जिनकी सैकड़ों उपजातियां हैं, इनकी शूरता, वीरता, विद्वता, शौर्य, पराक्रम, साहस का वर्णन हमें पुराणों और शास्त्रों में भी मिलता है। यह गुजरे जमाने की बात हो गई जब ये सशक्त संगठित समुदाय थीं। आज ये सशक्त संगठित समुदाय जातियों में तब्दील होकर अपनी अलग-अलग जाति समाज के नाम पर सामाजिक सम्मेलन और युवक-युवति परिचय सम्मेलन के बहाने अपना-अपना शक्ति प्रदर्शन करने में लगे हैं ।
गोंडवाना साम्राज्य में चार चॉद लगाने वालों के वंशज आज असंगठित हो गये है
आज ये तमाम आदिवासी समुदाय की जातियों का अस्तित्व संकट से घिर गया है । यही कारण है कि गोंडवाना साम्राज्य में चार चॉद लगाने वालों के वंशज आज इतने असंगठित हो गये है। हम आदिवासी पारिदृष्य पर गहराई से नजर डालते हैं तो पाते हैं कि जनजातियों के आपस में भारी बिखराव, मतभेद, द्वेश, ईर्ष्या, टूटन, जलन और आपसी वैमन्स्यता स्पष्ट दिखाई देता है। आदिवासियों की समस्याओं पर चर्चा, परिचर्चा, चिंतन-मंथन करना सब चाहते है और सबका लक्ष्य भी एक ही है लेकिन रास्ते-रास्ते अलग अलग बना रखे है। आपसी जातिय वैमनस्यता, ईर्ष्या, द्वेश, टूटन और जलन के कारण बहुत से आदिवासी प्रतिनिधित्व भी उभर नहीं पा रहा है। आदिवासी प्रबुद्धों को इस विषय पर आत्मचिंतन एवं मथंन करने की आवश्यकता है । गोंडवाना के गौरवशाली इतिहास को पुनर्स्थापित करने में किसी आदिवासी जाति की ऐतिहासिक भूमिका हो सकती हैं ? हमें ऐसा कहीं दूर-दूर तक कोई सम्भावना नजर नहीं आ रही है ।
तभी आदिवासी मान-सम्मान एवं स्वाभिमान की बात कर सकते हैं
आज आदिवासी समुदाय को अपने धार्मिक, सामाजिक यात्रा, जतरा, मेला और उत्सवों को न सिर्फ मनोरंजन या धार्मिक आस्था और श्रद्धा तक सीमित रहने देने की आवश्यकता नही है, ऐसे अवसरों पर सैकड़ों आदिवासी संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है, इनमें से कुछ आदिवासी संगठनो के प्रतिनिधि जो खुद को बुद्धिजीवी होने का दंभ भरते हैं, इन्हें दोस्त और दुश्मन की पहचान करना सीखने की जरूरत है। इन्हें भोले-भाले, असहाय, कमजोर आदिवासियों के शोषण, दमन और अत्याचार करने वालों की पहचान करना, सीखने की जरूरत है। आज आदिवासियों के हक और अधिकारों की लड़ाई एक जाति, समाज या क्षेत्रीयता के आधार पर नही लड़ी जा
सकती, यह बात इन संगठनों के प्रतिनिधियों को सीखने की जरूरत है। आदिवासी समाज की लड़ाई राष्टय स्तर की है ओर आदिवासी समाज अपनी लड़ाई संगठित और एकजुट होकर ही लड़ सकते हैं। आदिवासी समाज के धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्थल उन्हें इस बात की प्रेरणा देते हैं। तभी आदिवासी समाज अपने कोयलीकचारगढ़ जैसे धार्मिक, ऐतिहासिक विरासतों, धरोहरों को पर्यटन का दर्जा दिलवाने में कामयाब हो सकते हैं। तभी आदिवासी मान-सम्मान एवं स्वाभिमान की बात कर सकते हैं ।