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प्राचीन भारत का प्राकृतिक नववर्ष - पूनल सावरी : डॉ सूर्या बाली “सूरज धुर्वे”

प्राचीन भारत का प्राकृतिक नववर्ष - पूनल सावरी : डॉ सूर्या बाली “सूरज धुर्वे”




मानव जीवन में समय का ज्ञान विकास क्रम में एक मूलभूत पायदान था। मानव ने अपने आस पास की चीजों को देखकर और उनमें होने वाले परिवर्तनों से अपने आपको जोड़ा और इसी क्रम में सूरज
, चंद्रमा और सितारों से समय की गणना की व्यवस्था  भी स्थापित की। जब आधुनिक घड़ियाँ, कलेंडर या अन्य समय की गणना करने वाली चीजें नहीं थीं तब मानव ने समय को प्रकृति के साथ देखना शुरू किया और प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों  से समय चक्र की खोज किया। इस तरह से एक प्राकृतिक चक्र पूरा होने को वर्ष कहा गया। जिस दिन इस वर्ष का पहला दिन होता है उसे नववर्ष का प्रारम्भ माना जाता है और यहीं से नए वर्ष यानि पूनल सावरी की शुरुवात होती है।
आइये आज आपको प्राकृतिक नववर्ष की बधाई देते हुए इसके इतिहास और वर्तमान स्वरूप की जानकारी भी दे दें। भारत को आर्यों के आगमन से पहले कोयामूरी द्वीप कहते थे। कोया गोंडी भाषा का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण शब्द है जिसका मतलब माँ की कोख, गुफ़ा और महुए का फूल होता है । इस धरती पर इस भौगोलिक भूभाग में पहला मानव माँ की कोख से आया और बड़ा होने पर भोजन के रूप में सर्वप्रथम महुए का सेवन किया और प्रकृतिक गुफाओं में जीवन यापन किया। इसलिए आर्यों के आगमन से पूर्व इस देश के मूलनिवासियों को कोया कहते थे और उनकी आने वाले पीढ़ियों को कोयावंशी या कोइतूर या कोयतोड़ कहते थे और उनकी प्रचलित प्राकृतिक जीवन शैली को कोयापुनेम कहते थे। उन सभी की भाषा समूहों को सम्मलित रूप से कोइया भाषा कहते थे जिसका प्रतिधित्व आज गोंडी भाषा करती है।
यही कोया पुनेम आर्यों के आगमन के बाद वैदिक धर्म, फिर बौद्ध धर्म, फिर सनातन  धर्म से और आज के  इस्लाम और हिन्दू धर्म के प्रभाव के बाद भी भारत के कुछ क्षेत्रों में आज भी प्रचलन में है।  इतने धर्मों के प्रभाव और लगभग 5000 साल से ज्यादा समय व्यतीत हो जाने के बाद भी कोया पुनेम आज भी जन जातियों के मध्य जीवित है और जनजातियों की जीवन शैली बना हुआ है।  आर्यों के आक्रमण से पहले पूरे कोयामूरी द्वीप की संस्कृति एक झलक आप हड़प्पा और मोहनजोदड़ों की खुदाई से मिली संस्कृतियों में देख सकते हैं ।
पूनल सावरी (नववर्ष) भी इसी संस्कृति का एक हिस्सा है जिसका स्वरूप आज भी हजारों सालों के बावजूद बदला नहीं है। लगभग 5000 वर्षों से ज्यादा समय बीत जाने के उपरांत भी मूल प्राकृतिक नववर्ष की अवधारणा अभी भी प्रचलन में है  जो विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न विभिन्न नामों से जानी जाती है लेकिन एक साथ मनाई जाती है। इसी प्राकृतिक नववर्ष को पूनल सावरी कहते हैं जिसे सामान्य लोग लगभग भूल गए हैं लेकिन मध्य भारत के जनजातीय क्षेत्रों में आज भी इसे पूर्ववत हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
गोंडी भाषा (कोइयाँ भाषा) में पूनल का अर्थ नया और सावरी का अर्थ वर्ष होता है। यानि पूनल सावरी का मतलब  नववर्ष होता है। आज यह  नववर्ष हिंदूवर्ष चैत के प्रथम दिन यानि चैत प्रतिप्रदा से शुरू होता है। गोंडी में सेमल के पेड़ को ’सावरी मड़ा’ कहते हैं और सावरी शब्द यहीं से लिया गया है क्यूंकि इस समय सेमल के पेड़ में लाल लाल पुष्प आते हैं जो प्राकृतिक वर्ष चक्र शुरू होने के धोतक है।  ध्यान रहे कि प्रकृति में इसी समय हजारों अन्य वृक्षों में भी फूल आते हैं लेकिन सेमल के पेड़ को ही इस वर्ष का प्रतीक क्यूँ माना जाता है ?
सेमल प्रकृति का एक ऐसा पेड़ है जिसमें एक से लेकर बारह पत्तों का क्रम मिलता है। सेमल प्रकृति का अकेला ऐसा वृक्ष है जिसकी किसी टहनी पर एक पत्ते से लेकर 12 पत्तों तक लगे मिलते हैं जो वर्ष के बारह महीनों का प्रतीक रूप होता है।  कोयापुनेमी मुठवा पारी पहाण्दी कुपार लिंगों ने इसी पेड़ के नीचे बैठकर इसी दिन पूरे कोया समाज को बारह कुल गोत्रों में बांटा था और 33 शिष्यों को दीक्षा देकर कोया पुनेम के प्रचार प्रसार के लिए तैयार किया था।
कोइतूर व्यवस्था में प्रथम माह को उंदोमान या मड़ मान कहलाता है ( गोंदी में मड़ का अर्थ मधुर और मान का अर्थ महीना होता है ) जिसे हिन्दू लोग मधुमास कहते हैं ।
गोंडी महीनों के नाम
1.   उंदोमान
2.   चिंदोमान
3.   कोदोमान
4.   नालोमान
5.   सायोमान
6.   सारोमान
7.   येरोमान
8.   अरोमान
9.   नरोमान
10. पदोमान
11. पादूमान
12. पांडामान

प्राचीन भारत(कोयामूरी द्वीप)  कृषि प्रधान देश था और यहाँ से सभी त्योहार केवल फसलों पर आधारित हुआ करते थे जो बाद में आर्यों के आक्रमण के बाद कई किंवदंतियों, देवी देवताओं और धार्मिक अनुष्ठानों से जोड़ दिये गए और प्राचीन कोइतूरियन परंपराओं में वैदिक कर्मकांड डालकर उनके मूल स्वरूप को विकृत कर दिया गया है। पूनल सावरी भी नयी प्राकृतिक चक्र के आगमन का स्वागत और अभिनंदन है जिसमे प्रकृति में नए सृजन की संभावनाओं की शुरुवात होती हैं।
पूरे वर्ष में कोइतूर कृषि व्यवस्था को दो मूल भागों में विभाजित किया जाता है उन्हारी (रबी की फसल ) और सियारी (खरीफ की फसल) । चूंकि पहले सिंचाई के साधन नहीं हुआ करते थे और पूरी कृषि व्यवस्था केवल वर्षा पर निर्भर होती थी इसलिए वर्ष में केवल दो फसल ही ली जाती थी। जैसे जैसे विकास के क्रम में हम आगे बढ़े वैसे वैसे सिचाई के साधनों में बढ़ोत्तरी हुई और रबी और खरीफ के अलावा जायद की फसल भी लेने लगे । उन्हारी और सियारी फसलों के बीच में जो तीन महीने का अंतर होता था उसमें ही शादी विवाह और अन्य घरेलू कार्यों को सम्पन्न किया जाता था।
इस समय गेहूं की फसल पूरी तरह से पककर तैयार होती है और किसान फसल की कटाई, मडाई, और भंडारण के लिए पूरे घर को तैयार करते हैं। पूरी प्रकृति अपने शबाब पर होती है।  अगर आप ध्यान दें तो सम्पूर्ण भारत में इसी समय कई और त्योहार मनाए जाते है जो पूनल सावरी (प्राकृतिक नववर्ष)  के ही आधुनिक स्वरूप है और भाषा, क्षेत्र के अनुसार विभिन्न विभिन्न नामों से पुकारे जाते हैं जबकि सबमें मूल भावना एक ही है कि प्रकृति का स्वागत और प्रकृति के साथ चलने कि परंपरा का निर्वहन। और इन अन्य सभी त्योहारों के मनाने का तरीका भी काफी हद तक मिलता जुलता है।
हिन्दू नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को शुरू होता है और उनकी मान्यता के अनुसार इस दिन ग्रह और नक्षत्र मे परिवर्तन होता है। हिन्दी महीने चैत की शुरूआत इसी दिन से होती है। पेड़-पोधों मे फूल,मंजर,कली इसी समय आना शुरू होते हैवातावरण मे एक नया उल्लास होता है जो मन को आह्लादित कर देता है।  इसी दिन से मूलनिवासी जनजातीय लोग जवारा बोते हैं और इसी के समकक्ष हिंदुओं में नवरात्रि की शुरुआत होती है। जिसमे हिन्दू लोग उपवास रह कर देवी की पूजा आराधना करते हैं जबकी कोइतूर व्यवस्था में किसी भी देवी देवता का स्थान नहीं है केवल प्रकृति का स्वागत और अभिओनंदन होता है। लेकिन आजकल आप जावरा पर्व और नवरात्रि पर्व को एकसाथ मनाते देख सकते हैं जो दो संस्कृतियों का मिश्रम साफ साफ दिखाई देता है।
चारों तरफ गेहूं की पकी फसल का दर्शनआत्मबल और उत्साह को जन्म देता है। खेतों में हलचलफसलों की कटाई हंसिए का मंगलमय खर-खर करता स्वर और खेतों में डांट-डपट-मजाक करती आवाजें। जरा दृष्टि फैलाइएभारत के आभा मंडल के चारों ओर पूनल सावरी क्या आया मानो खेतों में हंसी-खुशी की रौनक छा गई।
नई फसल घर मे आने का समय भी यही है। इस समय प्रकृति मे उष्णता बढ्ने लगती हैजिससे पेड़ -पौधेजीव-जन्तु मे नव जीवन आ जाता है। लोग इतने मदमस्त हो जाते है कि आनंद में मंगलमय  गीत गुनगुनाने लगते है।  नव वर्ष एक उत्सव की तरह पूरे भारत में अलग-अलग स्थानों पर तथा अलग अलग विधियों से मनाया जाता है। विभिन्न सम्प्रदायों के नव वर्ष समारोह भिन्न-भिन्न होते हैं और इसके महत्त्व की भी विभिन्न संस्कृतियों में परस्पर भिन्नता है। लेकिन इन विन्नताओं के वावजूद पूनल सावरी का स्वरूप एक ही है क्यूंकी प्रकृति कभी बदलती नहीं मानव भले ही उसे मनाने का अपना तरीका बदल ले।
कोइतूर व्यवस्था में समय की गणना चंद्रमा (नालेंज) के हिसाब से होती है।  इस वर्ष उंदोमान(गोंडी वर्ष का पहला महीना) का प्रथम दिन(परेवा)  25 मार्च को पड़ रहा है और यहीं से पूनल सवारी की शुरुवात होती है। पूरे देश में आज के दिन ही विभिन्न मूल संस्कृतियों में नए वर्ष की शुरुवात होती है। लेकिन हिन्दू कलेंडर के अनुसार नया वर्ष चैत्र के पहले दिन से शुरू होता है लेकिन हिन्दू लोग भी अपना नव वर्ष इसी दिन (चैत्र के पंद्रहवें दिन) से मानते हैं। भारत की सभी मूल निवासी भाषाओं और संस्कृतियों में अमावस्या से अमावस्या के बीच के समय को माह कहते हैं। लेकिन हिन्दू कलेंडर में माह की गणना पूर्णिमा से पूर्णिमा के बीच में होती है  (चैत) के प्रथम दिन से शुरू होकर उंदोमान के ही 15वें दिन यानि पूर्णिमा को पूरा होता है।
कोइतूर व्यवस्था में कोई भी पर्व एक दिन न मानकर पूरे 15 दिन (पखवाड़ा) तक मनाया जाता है जिसकी शुरुवात परेवा से होती है और अमावस्या/ पूर्णिमा पर समापन होता है। इसलिए आप देखेंगे कि इसी 15 दिनों में पूरे भारत में फसलों के त्योहार मनाए जाते हैं जिन्हे हम विभिन्न नामों से जानते और मानते हैं।
पंजाब में नया साल बैशाखी नाम से 13 अप्रैल को मनाया जाता है। तेलगु नया साल मार्च-अप्रैल के बीच आता है। आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में इसे उगाड़ी या उगादी (युगादि=युग+आदि का अपभ्रंश) के रूप में मनाते हैं। यह चैत्र महीने का पहला दिन होता है। तमिल नया साल विशु 13 या 14 अप्रैल को तमिलनाडु और केरल में मनाया जाता है। कश्मीरी कैलेंडर नवरेह १९ मार्च को होता है। महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा के रूप में मार्च-अप्रैल के महीने में मनाया जाता हैकन्नड नया वर्ष उगाडी कर्नाटक के लोग चैत्र माह के पहले दिन को मनाते हैंसिंधी उत्सव चेटी चंदउगाड़ी और गुड़ी पड़वा एक ही दिन मनाया जाता है। मदुरै में चित्रैय महीने में चित्रैय तिरूविजा नए साल के रूप में मनाया जाता है।  बंगाली नया साल पोहेला बैसाखी 14 या 15 अप्रैल को आता है।
पूनल सावरी के आधुनिक रूप जो भारत के विभिन्न हिस्सों में आज भी जीवित हैं और धूम धाम से मनाए जाते हैं जिसे आप नीचे दिये गए सूची में देख सकते हैं।
त्योहार
राज्य
त्योहार
राज्य
गुड़ी परवा
महाराष्ट्र
नवरेह
जम्मू कश्मीर
वैशाखी
पंजाब और हरियाणा
तिरुविजा
तमिलनाडु
उगाड़ी
कर्नाटक , आंध्रप्रदेश
पोहेला बैशाखी
पश्चिम बंगाल
चेटी चंद
गुजरात
नव संवत्सर
उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश बिहार

आज भी गोंडवाना क्षेत्र मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और झारखंड राज्यों के जन जातियों में  पूनल सावरी को बड़े धूम धाम से मनाया जाता है। यह त्योहार मूलतया मातृ प्रधान त्योहार है जिनमें मातृ शक्तियों कि मुख्य भूमिका होती है । महिलाएं ही इस त्योहार को मनाने के लिए आगे रहती हैं और पुरुष उनका साथ देते हैं।
अपनी संस्कृति और सभ्यता को आत्मसात करने और प्रकृति के साथ ताल ताल में ताल मिला के चलने का समय है और यही कारण है कि आज भी जन जातीय समाज अपनी संस्कृति और सभ्यता को सहेजने में सफल रहा है। कितनी भी विषम परिस्थियाँ रही हों कोइतूर समाज आज भी कोयामूरी द्वीप में अपनी उपस्थिति को बरकरार रखते हुए है और अपनी परंपरों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सौपते हुए आगे बढा रह है।
पूरे कोया विडार को बहुत बहुत सेवामान और सेवा सेवा सेवा जोहार !!
डॉ सूर्या बाली “सूरज धुर्वे”
अंतर्राष्ट्रीय कोया पुनेमी चिंतन कार और कोइतूर विचारक
भोपाल, मध्य प्रदेश

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