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अबुआ दिशुम अबुआ राज, हमारा देश हमारा राज

अबुआ दिशुम अबुआ राज, हमारा देश हमारा राज

विश्लेषक-साधना उईके
अध्ययनरत- बी. ए द्वितीय वर्ष
सीहोर, मध्य प्रदेश
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहातु गाँव में हुआ था। मुंडा रीती रिवाज के अनुसार उनका नाम बिरसा इसलिए रखा गया था क्योंकि उनका जन्म बृहस्पतिवार के दिन हुआ था। बिरसा के पिता का नाम सुगना हातु मुंडा था और माता का नाम करमी हातु था। बिरसा मुंडा के परिवार ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था । बिरसा के पिता सुगना मुंडा जर्मन धर्म प्रचारकों के सहयोगी थे।       

 25 साल की उम्र में बने जननायक        


बिरसा मुंडा का बचपन अपने घर, ननिहाल और मौसी की ससुराल में बीता, बाद में उन्होंने कुछ दिनों तक चाइबासा के जर्मन मिशन स्कूल में शिक्षा ग्रहण की परन्तु स्कूल में उनकी आदिवासी संस्कृति का जो मजाक उड़ाया जाता था, वह उन से सहन नहीं हुआ और उन्होंने वह स्कूल छोड़ दिया। बिरसा का बचपन बहुत ही संघर्ष के साय मेें बीता। बचपन से ही उनके मन में क्रांति की चिंगारी सुलग रही थी।
               बिरसा मुंडा ने स्कूल छोड़ने के बाद हिन्दूओ के प्रभाव मे आने के कारण कुछ दिनो तक इस धर्म के अनुसार काम करते रहे परन्तु उन्होंने अपने आदिवासी भाइयों के साथ हो रहे अत्याचार को देखकर, अपने जीवन में कई प्रकार की परेशानी सहन की उसी के सम्पर्क में आये और उन्होंने बहुत कुछ सीख लिया। फिर उन्होंने फैसला किया और आदिवासी जनजीवन के इस मसीहा ने केवल 25 साल की उम्र में बिहार, झारखंड और ओडिशा में जननायक की पहचान बनायी ।        

बिरसा मुंडा द्वारा किये गये संघर्ष

1886 से 1890 का दौर उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ रहा। जिसमें उन्होंने ईसाई धर्म के प्रभाव से अपना धर्म का अंतर समझा। उस समय मस्य सरदार आंदोलन शुरू हो गया था। इसलिए उनके पिता ने उनका स्कूल छुड़वा दिया था क्योंकि वो ईसाई धर्म का विरोध कर रहे थे। फिर सरदार आंदोलन की वजह से उनके दिमाग मे ईसाइयों के प्रति विद्रोह की भावना जाग्रत हो गयी और फिर बिरसा मुंडा जी भी आंदोलन में शामिल हो गये और अपनी पारम्परिक रीति-रिवाजों के लिए लड़ना शुरू कर दिया।     

उनके मन में अंग्रेजों के अत्याचार के प्रति क्रोध की ज्वाला भड़क उठी                                


बिरसा मुंडा ने आदिवासियों की  जमीन छीनने, लोगों को ईसाई बनाने और महिलाओं को दलालो द्वारा उठा ले जाने वालो को अपनी आँखों से देखा था। जिससे उनके मन में अंग्रेजों के अत्याचार के प्रति क्रोध की ज्वाला भड़क उठी थी। फिर बिरसा मुंडा ने किसानों का शोषण करने वाले जमींदारो के विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा दी और प्रतिक्रांति की शुरूआत की। 

जल-जंगल -जमीन के लिये आंदोलन कर दिलाया अधिकार

लोगो को इकट्ठा होते देख कर ब्रिटिश सरकार ने बिरसा को लोगो की भीड़ जमा करने से रोका पर बिरसा मुंडा कहा मानने वाले थे। उन्होंने कहा मैं तो अपनी जाति को अपना धर्म सिखा रहा हूं और अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा हूं।
        इस बात पर पुलिस ने उनको गिरफ्तार करने का प्रयत्न किया लेकिन गांव वालों ने उन्हें छुड़ा लिया। फिर बिरसा मुंडा जी ने जल-जंगल -जमीन के लिये आन्दोलन शुरू कर दिया। बिरसा मुंडा वह पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने आदिवासियों की जल-जंगल-जमीन की लड़ाई लड़ी थी और अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह किया था और वंचितों को हक, अधिकार दिलाया। 

आदिवासी स्वभिमान, स्वतंत्रता और संस्कृति को बचाने का संग्राम था

यह सिर्फ कोई वगावत नहीं थी बल्कि यह तो आदिवासी स्वभिमान, स्वतंत्रता और संस्कृति को बचाने का संग्राम था। बिरसा ने अबुआ दिशुम अबुआ राज यानी हमारा देश हमारा राज का नारा दिया। देखते ही देखते सभी आदिवासी जंगल पर दावेदारी के लिए इ्कट्ठे हो गये। अंग्रेजी सरकार ने बिरसा के उलगुलान को दबाने की हर सम्भव कोशिश की लेकिन आदिवासियों के गुरिल्ला युद्ध के सामने उन्होंने घुटने टेक दिये  ।

आदिवासियों के लिये वे धरती-आबा यानी धरती पिता के कहे जाने लगे

बिरसा मुंडा आदिवासियों के भगवान कहे जाने लगे 1894 में बारिश नहीं होने पर भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। जिससे लोग बीमार होने लगे परंतु बिरसा मुंडा जी को उनकी कई प्रकार की जड़ी बूटियां का भी ज्ञान था, वो एक कुशल वैद्य भी थे और कई प्रकार की बीमारियों की प्राकृतिक औषधियाँ बनाते थे।
          जिससे वे अपने आदिवासियों भाइयो को जड़ी-बूटियों देकर उनका इलाज करते। बिरसा ने दयाभाव से अपने लोगों की सेवा की उन लोगों का इलाज करने के प्रति जागरूक किया। सभी आदिवासियों के लिये वे धरती-आबा यानी धरती पिता के कहे जाने लगे।                 
              अग्रेजो के खिलाफ आंदोलन के दौरान बिरसा गुप्त स्थान पर अपनी सभा रखते थे। जनवरी 1900 में उलिहातू के नजदीक डोमबाडी पहाड़ी पर बिरसा अपनी जनसभा रखे हुये थे। जिस बिरसा को अंग्रेजों की तोप ओर बंदूक की ताकत नही पकड़ पाई, वो बिरसा अपनो की ही गद्दारी के कारण बिरसा के बंदी बनने का कारण बनी अंग्रेजी सरकार ने बिरसा को पकड़वाने के लिए 500 रुपए की धनराशि के इनाम की घोषणा किया।
           किसी अपने ही व्यक्ति ने बिरसा के ठिकाने का पता अंग्रेजों तक पहुँचाया। अंग्रेजी सरकार के  सिपाहियों ने बिरसा की जनसभा वाले स्थान को चारो तरफ से घेर लिया और अंग्रेजो व आदिवासियों के बीच जंग शुरू हुई। जिसमें महिलाओं और मासूम बच्चे भी मारे गये। बिरसा मुंडा जी की सेना में कम लोग होने की वजह से अंग्रेजो ने धोखे से उन पर ओर उनकी सेना पर आक्रमण कर बिरसा को बंदी बना लिया।

अंग्रेजो की गुलामी से आजादी दिलाने वाले की शहादत में भी षडयंत्र 

आखिर में 9 जून 1900 को बिरसा ने रांची के कारगार में आखिरी सांस ली बताया जाता है की उनको अंग्रेजों द्वारा जहर देकर मारा गया था। बिरसा मुंडा एक महान योद्धा थे, जिन्होंने जल जगंल की लडाई लड़ी थी। आदिवासी को हक अधिकार दिलाया था। आज आदिवासी लोगों के पास जो जमीन बची है, वह इन्हीं की देन है। बिरसा मुंडा महान योद्धा थे, जिन्होंने अंग्रेजो कि गुलामी से आजाद करने की लड़ाई लड़ी थी। इन्होंने सिर्फ आदिवासी के लिए ही लड़ाई नहीं लड़ी बल्कि पूरे देश को अंग्रेजों की  गुलामी से आजाद करने की लड़ाई लड़ी थी।

आज भी रहस्य बनी हुई बलिदान की गाथा

9 जून 1900 को झारखंड के मुंडा परिवार में जन्मे बिरसा मुंडा ने साहस की स्याही से पुरुषार्थ के पृष्ठों पर शौर्य की शब्दावली रची। झारखंड में अपने क्रांतिकारी चिंतन और आजादी की नवीन चेतना से 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में समाज की दशा और दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया। छोटा नागपुर के आस-पास मुंडा आदिवासी आंदोलन(1899-1900) का नेतृत्व किया। ब्रिटिश हुकूमत ने गिफ्तार करके रांची की जेल में डाल दिया। रांची जेल में रहस्मय हालात में 9 जून 1900 को इनका निधन हो गया।

धरातल पर तत्कालीन युग के एकलव्य 

बिरसा मुंडा सही मायने में पराक्रम और सामाजिक जागरण के धरातल पर तत्कालीन युग के एकलव्य हैं। आदिवासियों के मसीहा जिन्हें वर्तमान में मूलनिवासी अपना आदर्श मानते है। वहीं 9 जून को इनका स्मृति दिन हैं। देश के सभी वंचित वर्ग के साथ-साथ उन सभी लोगो को सलाम जो अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध अपनी मुहिम जारी रखे हुए हैं और इस स्वतंत्र भारत में आगे भी लड़ते रहेंगे।

कम शिक्षित होने के बाद समाज के लिये कर सकते है संघर्ष             

ये उन महावीरों की भूमि है, जिसे हम गोंडवाना लैंड या भारत देश कहते है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों एवं सभी प्रकार की जाति इस महान देश मे निवास करती है। जिसमे से एक जाति मुंडा है, जो आज भी अपने पूर्वज भगवान बिरसा मुंडा को पूजते है। ऐसे महानायक से हमे शिक्षा मिलती है कि कम पढे-लिखे होने के बाद भी समाज को आगे बढ़ाने के लिये संघर्ष करते रहे। जननायक को तो हमे हर समय याद करना चाहिए। हां इतना जरूर कहूंगी कि उनकी जयंती हो बलिदान दिवस पर मुझे बिरसा मुंडा का इतिहास पढ़ने में और लिखने में एक पॉजिटिव एनर्जी मिलती है।
विश्लेषक-साधना उईके
अध्ययनरत- बी. ए द्वितीय वर्ष
सीहोर, मध्य प्रदेश

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