Type Here to Get Search Results !

संयुक्त राष्ट्र संघ का आदिवासियों के अधिकार के लिए घोषणा पत्र और विश्व आदिवासी दिवस की सार्थकता

 संयुक्त राष्ट्र संघ का आदिवासियों के अधिकार के लिए घोषणा पत्र और विश्व आदिवासी दिवस की सार्थकता 

लेखक-
डॉ अभय सागर मिंज

संयुक्त राष्ट्र संघ के एक विशेष पदाधिकारी जोस आर मार्टिनेज कोबो को विश्व के सभी आदिवासियों के सामाजिक, सांस्कृतिक, जातीय भेदभाव और आर्थिक परिस्थिति के विषय में एक विस्तृत अध्ययन और उस पर आधारित एक प्रतिवेदन प्रस्तुत करने का कार्यभार मिला। तत्पश्चात उन्होंने एक विस्तृत रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रस्तुत किया। 

जिसमें आदिवासियों के घोर शोषण का जिक्र था 

जिसमें आदिवासियों के घोर शोषण का जिÞक्र था। पूरे विश्व में आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन के शोषण और संघर्ष की गाथाएँ एक समान थीं। इसी प्रतिवेदन के आधार पर  9 अगस्त 1982 को प्रथम बार संयुक्त राष्ट्र संघ के एकनॉमिक एंड सोशल काउन्सिल (ईकोसोक) ने आदिवासियों से संबंधित एक कार्यकारी समूह का गठन किया, जिसे वर्किंग ग्रूप आॅन इंडिजेनस पॉप्युलेशन कहा गया। वर्ष 1994 में संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा गठित आदिवासियों से संबंधित कार्यकारी समूह ने इसी 9 अगस्त को सर्वसम्मति से प्रत्येक वर्ष ''विश्व के आदिवासियों का अंतरराष्ट्रीय दिवस'', के रूप में मनाए जाने का प्रस्ताव पारित किया। तब से यह चलन में है और पूरे विश्व में हर वर्ष 9 अगस्त को आदिवासी दिवस के रूप में मनाया जाता है। 

आदिवासियों के लिए घोषणा पत्र की यात्रा इतनी आसान नहीं थी

संयुक्त राष्ट्र संघ का आदिवासियों के लिए घोषणा पत्र की यात्रा इतनी आसान नहीं थी। इस लेख में मैं इसी बात की चर्चा करूँगा। पूरी प्रक्रिया से संबंधित जो संधियाँ, सम्मेलन, कन्वेन्शन, मानवाधिकार तथा अन्य प्रावधान का जिÞक्र थोड़ी संयम से करूँगा नहीं तो पूरा लेख जटिल और नीरस हो जाएगा। लेख को सरल बनाने के लिए कुछ बिंदुओं को जानबूझकर चर्चा से दूर रखूँगा किंतु आप आश्वासित रहें कि मूल भाव में किसी प्रकार का समझौता या परिवर्तन नहीं होगा। 
            वर्ष 1994 में संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा गठित आदिवासियों से संबंधित कार्यकारी समूह ने आदिवासियों के अधिकार के घोषणा पत्र का एक प्रारंभिक ड्राफ़्ट, अल्पसंख्यकों के भेदभाव और संरक्षण पर रोकथाम के लिए गठित उप-आयोग, को प्रस्तुत किया था। समीक्षा के बाद इसे अनुमोदित कर दिया गया। इसके पश्चात, इसे संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग के पास विचार के लिए भेजा गया, जिसे आगे की चर्चा के लिए एकनॉमिक एंड सोशल काउन्सिल (एकोसोक) और संयुक्त राष्ट्र संघ के आम सभा में प्रस्तुत किया गया। 

यह दोनो प्रावधान अनेक सरकारों को स्तब्ध करने के लिए काफी था

जैसा कि अपेक्षित था, अनेक राष्ट्र तुरंत विरोध में खड़े हो गए। मूल रूप से इसकी दो वजह थीं। पहला, इस प्रारंभिक प्रारूप में आदिवासी समुदाय के लिए स्वशासन या आत्मनिर्णय के प्रावधान का जिÞक्र था, जिसके अंतर्गत आदिवासी समुदाय को अपने क्षेत्र में अपने पारंपरिक शासन व्यवस्था को लागू करने और आत्मनिर्णय का अधिकार प्राप्त होता।
दूसरा, महत्वपूर्ण माँग थी कि आदिवासी भूमि पर जल, जंगल और जमीन पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों पर उनका प्रथम अधिकार होगा ना कि किसी राष्ट्र का। यह दोनो प्रावधान अनेक सरकारों को स्तब्ध करने के लिए काफी था। कालक्रम देखें तो पाते हैं की इस प्रारंभिक प्रारूप को यहाँ तक पहुँचने में ही 12 वर्ष लग गए। पर ये तो मात्र अभी संघर्ष की शुरूआत थी। 

दस वर्षों के लिए पुन: 2005-2015 तक बढ़ा दिया 

वर्ष 1994 के प्रारंभिक ड्राफ़्ट के बहुराष्ट्रीय विरोध को संतुलित करने के लिए 1995 में एक ''ओपन एनडेड इंटर शेशनल वर्किंग ग्रूप'', का गठन किया गया। उसी दरमियान, संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 1995-2004 को विश्व आदिवासी दशक घोषित कर दिया। ओपन एनडेड इंटर शेशनल वर्किंग ग्रूप को यह उम्मीद थी कि शायद इसी विश्व आदिवासी दशक के दौरान ही आदिवासियों के अधिकार के घोषणा पत्र का एक प्रारंभिक ड्राफ़्ट पारित कर दिया जाएगा किंतु ऐसा हुआ नहीं। संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार आयोग ने पुन: आदिवासी दशक (द्वितीय) को दस वर्षों के लिए 2005-2015 तक बढ़ा दिया। 

कुल 144 राष्ट्रों ने इसके समर्थन में वोटिंग की, 11 देश तटस्थ रहे

वर्ष 2006 में संयुक्त राष्ट्र संघ के आंतरिक ढाँचे में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए और इसी क्रम में संयुक्त राष्ट्र संघ का मानवाधिकार आयोग परिवर्तित होकर संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार परिषद बन गया और वर्ष 2006 में ही 29 जून को संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार परिषद ने संयुक्त राष्ट्र संघ का आदिवासियों के अधिकार के लिए घोषणा पत्र को विभिन्न राष्ट्रों के समक्ष प्रस्तुत करने की लिए अनुमोदित कर दिया। 
           अंतत: 13 सितम्बर 2007 को, लगभग 25 वर्षों के अथक परिश्रम और सतत संघर्ष के पश्चात आदिवासियों के अधिकार के लिए घोषणा पत्र को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंगीकृत कर लिया। कुल 144 राष्ट्रों ने इसके समर्थन में वोटिंग की, 11 देश तटस्थ रहे और कुछ विकसित राष्ट्रों ने इसका विरोध किया। जो 11 देश तटस्थ रहें वो थे बंग्लादेश, भूटान, रूसी संघ, जॉर्जिया, केन्या, नाइजीरिया, कोलम्बिया, बुरुंडी, समोआ, अजेरबैजान और यूकरैन। अनेक विकसित राष्ट्र जैसे कि अमेरिका, कनाडा, न्यूजीलैंड और आॅस्ट्रेल्या ने शुरूआत में विरोध किया और वहीं यूकरैन, प्रशांत महासागर के उपद्वीप देश, अनेक एशियाई देशों ने उदासीन रवैया अपनाये रखा।  

कनाडा में आदिवासियों को प्रथम नागरिक का दर्जा प्राप्त 

कनाडा में वहाँ के आदिवासियों को ''प्रथम नागरिक'' या ''फर्स्ट नेशन'' का दर्जा प्राप्त है। शुरूआत में कनाडा ने संयुक्त राष्ट्र के घोषणा पत्र का विरोध किया था। उनका मानना था कि संयुक्त राष्ट्र के घोषणा पत्र कनाडा के संविधान के अनुकूल नहीं था और विशेष रूप से कनाडा के संविधान के अनुच्छेद 35 के ठीक विपरीत था। ''असेम्ब्ली ओफ फर्स्ट नेशन'', ने जब संगठित होकर इसके लिए दबाव बनाया तब उनको उत्तर देते हुए तब की कनाडा की सरकार ने कहा कि कुछ आदिवासियों के हित के रक्षा के लिए हम अन्य सामान्य नागरिकों के साथ असंतुलित व्यवहार नहीं कर सकते हैं। असेम्ब्ली ओफ फर्स्ट नेशन का संगठित प्रयास होता रहा और अंतत:  12 नवंबर 2010 को कनाडा सरकार ने संयुक्त राष्ट्र के  घोषणा पत्र को अंगीकृत कर लिया। 

आॅस्ट्रेल्या ने आदिवासियों को खोय हुये अधिकार को सम्मान के साथ वापस किया 

आॅस्ट्रेल्या में भी इसी प्रकार का घटनाक्रम चला और 3 अप्रैल 2009 को ''रुड्ड सरकार'' ने आदिवासियों के संयुक्त राष्ट्र के घोषणा पत्र को अंगीकृत कर लिया। जिसके लिए उनके संविधान में विशेष बदलाव भी करना पड़ा। तत्पश्चात आॅस्ट्रेल्या के अनेक सरकारी कार्यक्रमों की शुरूआत पारम्परिक उद्घोषणा के साथ होती है। जिसमें वो उस भूमि के पारंपरिक स्वामी, वहाँ के  आदिवासियों  का आभार व्यक्त करते हैं। वे उन सभी अतीत के आदिवासी पुरखों, वर्तमान आदिवासी समुदाय और आने वाली इस पवित्र भूमि की पीढ़ी का भी आभार और सम्मान व्यक्त करते हैं। आॅस्ट्रेलिया में इस प्रकार की उदघोषणा इस बात की परिचायक है कि आॅस्ट्रेल्या ने वहाँ के आदिवासियों को उनकी खोए हुए अधिकार, सम्मान के साथ वापस किया है। 

182 देशों ने घोषणा पत्र को अंगीकृत कर लिया था

न्यूजीलैंड सरकार ने ''माओरी'' आदिवासियों के दबाव में 19 अप्रैल 2010 को संयुक्त राष्ट्र के घोषणा पत्र को अंगीकृत कर लिया था। उत्तरी अमेरिका ने भी 16 दिसम्बर 2010 को राष्ट्रपति बराक ओबामा के नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र के घोषणा पत्र को अंगीकृत कर लिया। विकसित देशों से जो सफल उदाहरण हमें देखने को मिले हैं उनका यहाँ एक विशेष संदर्भ है। उन देशों में मानवाधिकार के प्रति लोग जागरूक हैं। उन सबमें सामूहिकता है। शिक्षित जन, समाजिक बदलाव को सकारात्मक ढंग से देखते हैं। इसलिए जब मैं विशेष रूप से भारत की चर्चा करूँगा तब एक उम्मीद अवश्य होगी की हम अपने अधिकार को ले कर जागरूक होंगे और आने वाले समय में सरकार से अपने अधिकार की माँग संवैधानिक दायरे में रह कर मजबूती से करेंगे। अप्रैल 2009 में आयोजित डरबन रिव्यू कॉन्फ्रÞेन्स में तब तक कुल 182 देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ का आदिवासियों के अधिकार के लिए घोषणा पत्र को अंगीकृत कर लिया था।

आदिवासी देशज ज्ञान प्रणाली का महत्व 

देशज ज्ञान प्रणाली किसी भी समुदाय के जीवन जीने की कला और शैली को दशार्ती है। यह ज्ञान मनुष्य के दशकों के अपने वातावरण की चुनौतियाँ से जूझने और उसमें सफलता पाने की कहानी है। देशज ज्ञान किसी समुदाय के लिए स्थानीय संघर्ष की सफलता की दास्तान है। किस प्रकार से आदि काल से एक समुदाय एक वातावरण में निवास करता आया और हजारों वर्षों का ज्ञान वह एकत्रित करता आया है और पीढ़ी दर पीढ़ी उसे हस्तांतरित करता गया। आज हम उच्च तकनीकी जीवन का जितना भी दम्भ भर लें, हजारों वर्षों के अनुभव आधारित अर्जित ज्ञान को दरकिनार करना पूरी तरह से सही नहीं होगा। आज अफसोस है कि इस अमूल्य ज्ञान को ग्रहण करने वाला कोई नहीं। सबसे बुरी स्तिथि यह है कि उसी समाज के लोग उस ज्ञान को लेना या संरक्षित नहीं करना चाहते हैं। 

उनका निदान शायद इन्हीं देशज ज्ञान के द्वारा हो सकती है 

यह देशज ज्ञान है क्या? और ये इतना आज महत्वपूर्ण क्यों होता जा रहा है। आदिकाल से मनुष्य अपने निवास स्थान में अपने पर्यावरण जल, जंगल और जमीन से अपने अस्तित्व और जीवन के लिए संघर्ष करता आया है। उन्होंने अपने पर्यावरण को दोहन के लिए नहीं अपितु उनको अपने जीवन का एक अंग बनाया और उनको आत्म-साथ किया। यह उनके पृथ्वी पर जीवन के लिए अनिवार्य था। अपनी आवश्यकताओं को सतत अर्जित ज्ञान के द्वारा उन्होंने पूरा किया और इस ज्ञान को ही पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित किया। यह हस्तांतरण मौखिक रूप से होता आया है और यह ज्ञान मूल रूप से आदिवासी समाज के गीत, संगीत, दंत कथाएँ, लोक कथाएँ, बोली, मुहावरे इत्यादि में निहित होती हैं। आदिवासी समाज का यह ज्ञान किसी एक का नहीं अपितु पूरे समाज का होता है और ये समाजीकरण की प्रक्रिया में स्वत: लोगों तक पहुँचती है। यह देशज ज्ञान किसी खास समुदाय का हो सकता है और इसमें उनके ही सामाजिक और सांस्कृतिक ज्ञान और संघर्ष की गाथा का समावेश हो सकता है। आज जो विश्व भर में चुनौतियाँ देखने को मिल रहीं हैं, उनका निदान शायद इन्हीं देशज ज्ञान के द्वारा हो सकती है। 

विश्व को त्रासदी से बचाना है तो देशज ज्ञान के महत्व को समझना होगा 

आज देशज ज्ञान के महत्व को नकारा नहीं जा सकता है। विश्व के तमाम बड़े संगठन विश्व के संकट से चिंतित हैं और वो सभी इसके नियंत्रण का प्रयास कर रहे हैं। चाहे वह संयुक्त राष्ट्र संघ हो या अंतर राष्ट्रीय विज्ञान परिषद या कोई अन्य बड़ी संस्थान, सभी ने अपने महत्वपूर्ण बड़े बड़े सम्मेलनों में इस बात पर विशेष जोर दिया है की यदि विश्व को बड़ी त्रासदी से बचाना है तो देशज ज्ञान के महत्व को समझना होगा। इन सम्मेलनों में इस बात पर भी बड़ी बहस हुई है की देशज ज्ञान को विज्ञान के साथ विश्लेषण कर के देखने का समय है। आज भी देशज ज्ञान विलीन नहीं हुआ है किंतु विज्ञान के इस युग में जहां कारण और प्रभाव से ही विज्ञान अपना अस्तित्व बनाए रखा है वहाँ देशज ज्ञान का विज्ञान के द्वारा सत्यापन सही होगा। जहां सारा विश्व आदिवासी समाज की ओर देख रहा है, हमारा आदिवासी समाज कहीं और देख रहा है। इस विडम्बना को नए शोधार्थियों को दूर करना होगा। 

देशज ज्ञान स्थानीय होता है 

देशज ज्ञान स्थानीय ज्ञान होता है और ये किसी विशिष्ट संस्कृति और समाज में अपने पर्यावरण से क्रिया का परिणाम होता है। स्थानीय समुदाय इस ज्ञान का विकास आवश्यकता के अनुसार करता है और ये अनेक प्रयासों के पश्चात विकसित होता है। इस प्रक्रिया में वर्षों का समय लग सकता है। कई पीढ़ियों के प्रयास का यह परिणाम होता है और इस प्रकार का ज्ञान अनमोल है, इसमें कोई दो राय नहीं होना चाहिए। मानव शास्त्र में हम गुणवत्ता अध्ययन पर जोर देते हैं और इसके लिए ये अनिवार्य होता है की हम किसी एक किसी विशेष समुदाय का गहन अध्ययन करते हैं। हमारे लिए एक गाँव या समुदाय का समग्र अध्ययन बहुत महत्वपूर्ण होता है और जब हम समग्र अध्ययन करते हैं तो एक गाँव या समुदाय को हर कोण से देखने का प्रयास करते हैं। 

आदिवासियों ने प्राकृतिक संसाधनों का कुशलता से प्रबंधन किया 

आदिवासी या देशज समाज में यह समग्र अध्ययन उसके जीव जंतु से संबंध, उसके भूमि, जल जंगल, पर्यावरण, प्राकृतिक घटनाएँ, आपदाएँ, भौगोलिक परिस्थिति से संबंध में हम देख सकते हैं। आदिवासी समुदाय ने हजारों वर्ष से इन सभी प्राकृतिक संसाधनों का कुशलता से प्रबंधन किया है। उन्होंने समुदाय के अंदर ही यह सीखा की किस जीव जंतु के साथ कैसा व्यवहार होना है, किस पेड़ और पौधे को भोजन ऋंखला में रखना है, भूमि, जल और जंगल का प्रबंधन कैसे करना है। संसाधन का सतत उपयोग इन्होंने वर्षों से किया है। 

जानवरों का शिकार (गर्भ अवस्था) में निषेध है

अनेक प्रकार से सांस्कृतिक नियम और निषेध बनाए गए हैं ताकि प्राकृतिक रूप से उपलब्ध संसाधनों का उपयोग संयम से हो सके। निषेध नियमों में जानवरों का शिकार (गर्भ अवस्था) में निषेध है, देशज समुदाय यह भी जानता है कि किस समय में कौन सा जानवर गर्भ धारण करता है क्योंकि जंतुवों  में यह अनेक बार  मौसम आधारित होती है और इसलिए उनका शिकार उस समय निषेध होता है। वनस्पतियों पर भी यह लागू होती है। इस प्रकार के निषेध समुदाय के स्वास्थ्य पर भी नियंत्रण रखतीं है क्योंकि किसी उपलब्ध वनस्पति का सेवन का सही समय प्राकृतिक चक्र के साथ होता है, अन्यथा वह दुष्प्रभाव भी डाल सकती है। यह सभी ज्ञान आदिवासियों के परंपरा में शामिल है। मछली मारने के पश्चात कुछ पकड़े मछलियों को पुन: जलाशय में छोड़ दिया जाता है जो असल में बीज का कार्य करतीं हैं।

हम अपनी संतान या आने वाली पीढ़ी के लिए क्या छोड़ कर जा रहे हैं ?

इन देशज समुदाय में सामूहिकता भी विशेष महत्व रखतीं हैं। ऐसे अनेक गहन अवलोकन विधि हैं जिस से देशज समुदाय बता सकता है की उस वर्ष का मौसम कैसा होगा और यह देशज समाज सामूहिकता में ही संसाधन की उपलब्धता के अनुसार ये निर्णय लिया जाता है कि किस संसाधन का उपयोग किस मात्रा में करना है और किस संसाधन को उस वर्ष संरक्षण की आवश्यकता है। यहाँ आवश्यकता के सिद्धांत पर समाज कार्य करता है ना की लालच पर और ये हम सबके लिए सबसे बड़ी सीख है। हम आज भी इन महत्वपूर्ण बातों को उपहास में उड़ा देते हैं पर सोचने की आवश्यकता है की हम अपनी संतान या आने वाली पीढ़ी के लिए क्या छोड़ कर जा रहे हैं ?

लुप्तप्राय आदिवासी भाषाओं और संस्कृतियों के संरक्षण और संवर्धन की आवश्यकता

विगत वर्ष अप्रैल 2019 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय ने एक बड़ी पहल की थी और एक अंतराष्ट्रीय स्तर के कार्यशाला का आयोजन किया था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय ने लंदन विश्वविद्यालय, कील विश्वविद्यालय, जर्मनी और डॉक्टर राम दयाल मुंडा जनजातीय शोध संस्थान, राँची के साथ संयुक्त प्रयास से अंतर्राष्ट्रीय लुप्तप्राय भाषाओं और संस्कृतियों के प्रलेखन कार्यशाला को अभूतपूर्व बनाया था। अंतर्राष्ट्रीय लुप्तप्राय देशज भाषाओं और संस्कृतियों के प्रलेखन केंद्र की स्थापना इसी अथक प्रयास का परिणाम है । 

लगभग 400 भाषाएं, विलुप्त हो गई है

आँकड़े बताते हैं की पिछली शताब्दी में, लगभग 400 भाषाएं, विलुप्त हो गई हैं, और अधिकांश भाषाविदों का अनुमान है कि दुनिया की शेष 6,500 भाषाओं में से 50% इस सदी के अंत तक विलुप्त हो जाएंगी क आज, दुनिया की दस शीर्ष भाषाएं दुनिया की आधी आबादी पर अपना आधिपत्य स्थापित कर चुकी हैं। क्या भाषा की विविधता को संरक्षित किया जा सकता है, या हमें संरक्षित करना चाहिए ? यह एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। 

भाषा किसी भी समाज और संस्कृति का संवाहक होता है

भाषा और संस्कृति एक दूसरे के समपूरक हैं। किसी एक का अस्तित्व दूसरे के बिना सम्भव नहीं है। मानवशास्त्र के अनुसार यदि भाषा नहीं हो तो एक समाज का अस्तित्व ही नहीं होगा। भाषा किसी भी समाज और संस्कृति का संवाहक होता है जिसके द्वारा हमारे समाज की सांस्कृतिक धरोहर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होती है।भाषा का संरक्षण और समवर्दन आदिवासी समाज में अत्यंत महत्वपूर्ण इसलिए हो जाता है क्योंकि हमारी आदिवासी समाज आज भी मौखिक परंपरा पर जीवित है। इनका समय रहते प्रलेखन नित्यांत आवश्यक है क्योंकि भाषा ने ही हमारे समृद्ध संस्कृति को अतीत में जीवित रखा। यह प्रक्रिया यहीं समाप्त नहीं होगी और यही भाषा हमारी पहचान को वर्तमान और आने वाले भविष्य में भी जीवित रखेगी।

वो आईक भाषा बोलने वाली अंतिम सदस्य थीं

चूंकि बहुत सारी भाषाएं हैं, जो दुर्लभ या लुप्तप्राय है, इस प्रकार क प्रलेखन केंद्र एक सार्थक प्रयास होगा। दुनिया भर में दुर्लभ या लुप्तप्राय बहुत सारी भाषाएं हैं। जिनके 100 से भी कम बोलने वाले लोग हैं। उदाहरण के लिए-जापान में ऐनू और चिली में यगन। दूसरा उदाहरण मैरी स्मिथ जोन्स का हैं, जिनका निधन 2008 में अलास्का में हो गया और उनके साथ ही आईक भाषा को बोलने वाले समाप्त हो गए। वो आईक भाषा बोलने वाली अंतिम सदस्य थीं।

दुर्भाग्य है की हमारी मातृभाषा को आज भी दरकिनार कर दिया जाता हैं

भाषाविद बतलाते हैं की भाषाएं आम तौर पर सामाजिक रूप से कमजोर तब होतीं हैं जब एक समाज या समूह अपनी मातृभाषा को छोड़ कर अन्य भाषा की ओर विस्थािपत होता है। इस परिदृश्य में, यह समाज अब दूसरी भाषा बोलता है और इसका प्रमुख कारण भी है। प्रचलित और मुख्य धारा की भाषाएँ नौकरियों, शिक्षा और अन्य अवसरों तक पहुंचने के लिए महत्वपूर्ण है और कभी कभी ये अनिवार्य भी बन जाती है। कभी-कभी, विशेष रूप से आप्रवासी समुदायों में, माता-पिता अपने बच्चों को उनकी मातृभाषा को छोड़ कर अन्य भाषा सीखने के लिए प्रेरित और बाध्य करते हैं। इसे जीवन में उनकी सफलता के लिए अनिवार्य मानते हैं। हमारे प्रदेश में भी ऐसे अनेक बड़े स्कूल हैं जहाँ फ्रÞेंच और जर्मन भाषा सिखाए जाते हैं पर दुर्भाग्य है की हमारी मातृभाषा को आज भी दरकिनार कर दिया जाता हैं। आज के युग में जहाँ चारों तरफ भीषण प्रतिस्पर्धा है वहाँ लोग व्यावसायिक भाषा को निसंदेह अधिक महत्व देते हैं और बोल चाल में हिंदी-अंग्रेजी का प्रयोग अत्यधिक करते हैं। मैं ये नहीं कहतीं की ये गलत है किंतु मेरा और एक महत्वपूर्ण प्रश्न है-इन सब के बीच अपनी मातृभाषा का त्याग क्यों? बहु भाषी होना बहुत कठिन नहीं है।

और फिर बच्चे भाषा सीखना बंद कर देते हैं

लुप्तप्राय भाषाओं के बोलने वालों को उत्पीड़न का लंबा इतिहास भी झेलना पड़ा है। हमारे आदिवासी बच्चे जब स्कूल जाते हैं तो अक्सर उन्हें अपनी मूल भाषा को इस्तेमाल करने के लिए अवसर नहीं मिलता है। हमारी अध्ययन व्यवस्था इसे और कठिन बनाती है। दूसरी एक और बात है जो हमारे लोगों के बीच है। अनेक लोग अपनी मातृभाषा के प्रयोग को हीन दृष्टि से देखते हैं और आप सभों को मैं बता दूँ की भाषा मात्र लिखने या संजोये रखने से नहीं बचेगी, इसे बचाए रखने के लिए इसका अभ्यास और निरंतर उपयोग करना होगा। संस्कृतियाँ एक विशेष पर्यावरणीय संदर्भ में विकसित हुई हैं। इसलिए जब भाषा मर जाती है, तो उस ज्ञान का अधिकांश हिस्सा उनके साथ चला जाता है और फिर बच्चे भाषा सीखना बंद कर देते हैं, वे भी उस पारंपरिक ज्ञान को प्राप्त करना बंद कर देते हैं।

आॅस्ट्रेलिया लुप्तप्राय भाषाओं का विश्व रिकॉर्ड रखता है

इन कारणों से दुनिया भर में अनेक भाषाएँ लुप्त हो रहीं हैं। यूनेस्को की एटलस ने दुनिया की 576 लुप्तप्राय भाषाओं को गंभीर रूप से लुप्तप्राय के रूप में सूचीबद्ध किया है और जिसमें हजारों भाषाएँ अत्यधिक खतरे या विशेष संरक्षित वाले श्रेणी में वगीर्कृत किए गए हैं। हालाँकि, जनसंख्या के अनुपात में मापा जाए, तो आॅस्ट्रेलिया लुप्तप्राय भाषाओं का विश्व रिकॉर्ड रखता है। जब यूरोपीय पहली बार वहां पहुंचे, तो देश भर में 300 आदिवासी भाषाएँ बोली जाती थीं। तब से, 100  भाषाएँ तो विलुप्त हो गई हैं और भाषाविदों ने शेष 95% को अपने आखिरी पड़ाव पर होने का आकलन किया है। 

वैज्ञानिक आदिवासी जीवन शैली में निदान ढूंढ रहे है

आॅस्ट्रेल्या के अनेक सरकारी कार्यक्रमों की शुरूआत पारम्परिक उद्घोषणा के साथ होती है। हम  इस भूमि के पारंपरिक स्वामी, यहाँ के आदिवासियों का आभार व्यक्त करते हैं।  हम उन सभी अतीत के '' आदिवासी पुरखों, वर्तमान आदिवासी समुदाय और आने वाली इस पवित्र भूमि की पीढ़ी का भी आभार और सम्मान व्यक्त करते हैं''। आॅस्ट्रेलिया में भाषा संरक्षण की एक कार्यशाला के उद्घाटन सत्र में इस प्रकार की उदघोषणा, इस बात की परिचायक है की आदिवासी संस्कृति भले ही अलिखित है किन्तु अपने आप में अत्यंत समृद्ध है। आज जब सारा विश्व अनेक प्रकार के संकट से गुजर रहा है तब विश्व के बड़े से बड़ा देश और वैज्ञानिक आदिवासी जीवन शैली में  निदान ढूंढ रहा है। ऐसे में आदिवासियों की पारंपरिक जीवन पद्धिति को समझना निहायत आवश्यक हो जाता है। इस ज्ञान को समझना थोड़ा जटिल होता है और इसलिए ऐसे ज्ञान के खजाने को प्रलेखन के माध्यम से संरक्षित करना ही होगा। अनेक अनसुलझे तथ्य आने वाले समय में सुलझेंगे।

हम अपने घरों में मातृभाषा को बोलने में करें प्रयोग 

इन सभी कारणों से, भाषाविद तेजी से लुप्त हो रही भाषाओं की विविधता को दस्तावेज और संग्रह करने के लिए प्रयासरत हैं। उनके प्रयासों में शब्दकोश बनाना, इतिहास और परंपराओं को रिकॉर्ड करना और मौखिक कहानियों का अनुवाद करना शामिल है। अगर वास्तव में अच्छा प्रलेखन है, तो एक मौका है कि इन भाषाओं को भविष्य में पुनर्जीवित किया जा सकता है। ऐसे समय में ये अति आवश्यक है की हम अपने घरों से मातृभाषा को बोलने चालने में प्रयोग आज से ही करें और इसे अनिवार्य रूप से प्राथमिक और उच्च शिक्षा में पुनर्जीवित करने के प्रयासों को एक नयी गति दें।

आदिवासी धर्म कोड की आवश्यकता   

भारत में लगभग 12 करोड़ आदिवासियों की जनसंख्या है और इन आदिवासियों में प्राकृतिक या मूल आदिवासी धर्म में आस्था रखने वालों की तादाद अच्छी खासी है। सभी आदिवासी धर्मों में मूल विधि सामान है किंतु उनके आदिवासी धर्म के शब्दावली अलग अलग हैं। अमेरिका के विख्यात मानवशास्त्री प्रोफेसर रॉबर्ट राफ ने लुप्तप्राय भाषाओं पर गहन अध्ययन किया है और उनका एक निष्कर्ष बड़ा रोचक है। उन्होंने अपने अनुसंधान में यह सिद्ध किया कि जिस समाज में धार्मिक क्रियाएँ मातृभाषा में होतीं हैं वो भाषा स्वयं ही संरक्षित होती हैं। पिछले महीने के माय माटी के अंक में मैंने लुप्तप्राय भाषा पर लेख लिखा था। मातृभाषा, धर्म और  संस्कृति के मध्य प्रगाढ़ सम्बंध होते हैं और यहीं से प्रेरणा मिली कि इस संवेदनशील विषय पर भी लिखना चाहिए। 

अलग आदिवासी धार्मिक पहचान की आवश्यकता क्यों ? 

यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। इस प्रश्न और इसके उत्तर, दोनो का आम जन तक संप्रेषण अनिवार्य है। जनगणना के प्रारूप से  यह स्पष्ट हुआ कि ''अन्य धर्म''  का जो रिक्त स्थान होता था उसकी कोडिंग नहीं होती है। लोगों को जनगणना के दौरान प्रारूप में उपस्थित छ: धर्मों में से ही किसी एक को चुनना अनिवार्य हो गया है। यह एक अत्यधिक चिंता वाली बात है। इस संशोधन से अब आदिवासियों की जनसंख्या निश्चित तौर पर कम दशार्यी जानी थी। दूसरा सबसे बड़ा धक्का ये लगा कि आदिवासियों को अब अन्य धर्म की ओर धकेला जाने लगा। हमारे देश में धर्म और राजनीति में निकटतम संबंध है जो आदिवासियों को असुरक्षित और आघात योग्य बनाती है।

राष्ट्रीय धर्म को मानने पर विवश किया जाता है

ऐसे अनेक देश हैं जहां अपने पूर्वजों के मूल आदिवासी धर्म के साथ-साथ नए धर्म का समावेश बिना किसी अवरोध के देखने को मिलता हैं। फिलिपींज, ताइवान, थाईलैंड, कंबोडिया, लाओस जैसे देशों में आदिवासी धर्म के साथ साथ अन्य धर्म का पालन सौहार्द के साथ होता है किंतु अनेक देशों में यह भी देखने को मिला है कि उन्हें आदिवासी धर्म को त्यागने पर मजबूर कर के राष्ट्रीय धर्म को मानने पर विवश किया जाता है। मलेशिया और इंडोनेशिया में इस प्रकार के उदाहरण देखने को मिले हैं और वहाँ के आदिवासी समुदाय ने एकजुट होकर इसका विरोध भी किया है और अपने आदिवासी धर्म की संवैधानिक मान्यता के लिए जोरदार प्रदर्शन किया है। इंडोनेशिया में संगठित आदिवासी समुदायों की एक संगठन, ''अमान'', ने एक सफल उदाहरण प्रस्तुत किया है।

अपितु ये एक संवैधानिक अधिकार है

भारत जैसे देश में जहां अनेक धर्म और जाति के लोग निवास करते हैं, वहाँ आदिवासियों को परोक्ष रूप से भारत के मूल निवासी के रूप में पहचान प्राप्त है। ऐसे में एक अलग आदिवासी धर्म कोड की माँग न्यायसंगत है। यह मात्र एक इच्छा या मंशा नहीं है, अपितु ये एक संवैधानिक अधिकार है। वर्ष 2006 में जब दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्ययनरत था तब सरना कोड की माँग को लेकर कुछ सामाजिक और राजनैतिक प्रतिनिधि जंतर मंतर में धरना दे रहे थे। हम विद्यार्थियों में से कुछ लोग वहाँ शरीक हुए थे और एक अच्छा अनुभव हुआ था। पद्मश्री डॉक्टर रामदयाल मुंडा से भी इस बीच धार्मिक पहचान की लड़ाई पर अनेकों बार चर्चा हुईं। वर्ष 2007 में ज्ञात हुआ कि सरना कोड की माँग को ले कर एक प्रतिनिधि दल रेजिस्ट्रार जेनरल से भी मिला था। कुछ बातें निकल कर पुन: सामने आयीं और वो बड़ी चुनौती थीं। शायद लगा, ये हमारे बस की बात नहीं। वर्षों बीत गए और अलग धार्मिक पहचान के लिए जनगणना में एक अलग से कोड का प्रावधान आज तक सुनिश्चित नहीं हो सका।   

आदिवासी धर्म के लिए विभिन्न कॉलम नहीं दिया जा सकता

दिल्ली में रेजिस्ट्रार जेनरल ने प्रतिनिधि मंडल से कहा कि आदिवासी धर्म कोड की माँग अनेक स्थानों से उन्हें बराबर मिलती रहीं हैं। उन्होंने साझा किया कि हर प्रांत से अलग नाम से माँग है। झारखंड से सरना कोड की माँग है तो मध्य प्रदेश से गोंडी की, राजस्थान से भीली धर्म  कोड के लिए माँग है तो छत्तीसगढ़ से कोया पुनेम की। ठीक उसी तरह से उत्तर पूर्वी राज्यों के आदिवासियों की भी अलग शब्दावली वाली धर्म कोड की माँग है। इन सभों की माँग जायज है क्योंकि ये सभी मूल आदिवासी प्राकृतिक धर्म को मानने वाले धर्म हैं। किंतु रेजिस्ट्रार जेनरल ने एक उचित बात सबके समक्ष रखी थी। उन्होंने कहा कि इन सभी को एक ही आदिवासी धर्म के लिए विभिन्न कॉलम नहीं दिया जा सकता है। मेरी समझ में इसका एक सरल समाधान है। 

धर्म कोड के लिये एकजुट होकर आम सहमति बनाना होगा 

जिस प्रकार भारत के 732 से भी अधिक जनजाति स्वयं को पहले अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत रखते हैं और बाद में अपने उपजाति के स्थान पर उराँव, मुंडा, हो, गोंड, भील, संथाल, नागा इत्यादि का प्रयोग करते हैं। ठीक उसी प्रकार भारत के सारे प्राकृतिक धर्म को मानने वाले आदिवासी अपनी उप धर्म सरना, जाहेर, गोंडी, भीली, कोया पुनेम इत्यादि लिख सकते हैं। जहां तक मुख्य धर्म की शब्दावली की बात है, तो सभी आदिवासी समाज को एकजुट होकर एक नाम पर सहमति बनानी होगी। चाहे वह आदि धर्म हो या कोया पुनेम या फिर सरना धर्म या आदिवासी धर्म। आदिवासियों को धार्मिक पहचान की संघर्ष में एकजुट होना होगा। अभी जो समय की माँग है, वो एक वृहद् सामाजिक आंदोलन की है। कुछ समय के लिए राजनैतिक आंदोलन को दरकिनार करना होगा।

सामाजिक हित में व्यक्तिगत आकांक्षाओं को त्यागना होगा

मेरी समझ के अनुसार निश्चित ही सामाजिक आंदोलन को राजनैतिक आंदोलन का संपूरक बन के साथ चलना चाहिए किंतु निम्नलिखित टिप्पणी को पहले हम समझने का प्रयास करें। वर्षों से सामाजिक आंदोलन और राजनैतिक आंदोलन साथ-साथ चले किंतु बहुत सार्थक परिणाम देखने को नहीं मिला। इसका एक कारण है। मेरा अध्ययन सही नहीं भी हो सकता है किंतु मंथन आवश्यक है। अनेक अध्ययनों में देखा गया है कि जहां राजनैतिक उद्देश्य की बात होती है वहाँ समाज विभाजित हो जाता है, चाहे वह कोई भी समाज हो और कोई भी राजनैतिक दल हो और इसलिए मैंने जोर दिया है कि अभी भारत के सम्पूर्ण आदिवासियों को सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता है और सामाजिक प्रतिनिधित्व करने वालों को भी एक निस्वार्थ प्रयास करना होगा। सामाजिक हित में व्यक्तिगत आकांक्षाओं को त्यागना होगा। तभी कुछ सार्थक परिणाम होंगे अन्यथा ये संघर्ष आपके बाद भी पीढ़ी डर पीढ़ी चलती रहेगी जब तक आदिवासी पूरी तरह मिट नहीं जाते।
|

शहरी क्षेत्र में आदिवासी धर्म के पालनकर्ता नगण्य है

|
विफलता का एक प्रमुख कारण हम सब भी हैं। मात्र त्योहारों में अपना प्राकृतिक धर्म या सरना धर्म जैसे तैसे निभा लेने से आप कैसे उम्मीद करते हैं कि आपके धर्म की गरिमा और पहचान बनी रहेगी। बाकी साल भर हमारी धार्मिक आस्था कहीं और नजर आती  है। इस प्रकार के अधूरे मन से किए गए प्रयास कैसे सफल होंगे ? इस प्रश्न का उत्तर भी हमें ही देना है। शहरी क्षेत्र में आदिवासी धर्म के पालनकर्ता नगण्य है, कम से कम मनोवृत्ति तो ऐसी ही है। ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक बार भ्रमण करने का और धार्मिक सम्मेलनों को निकट से देखने का अवसर प्राप्त हुआ है। अवलोकन से ये बात स्पष्ट होती है कि हमें सामाजिक आत्म विश्लेषण की आवश्यकता है। धार्मिक आंदोलन में मात्र हमारी माँ और बहने ही पूर्ण रूप से शामिल होती है। पारंपरिक वेशभूषा, आराध्या गीत और संगीत में मुख्य रूप से महिलाएँ ही बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती हैं। पुरुष वर्ग ऐसे समय में भी एक निश्चित दूरी बनाए रखते हैं। 

धार्मिक पहचान के लिए जमीनी सामाजिक आंदोलन देखने को नहीं मिले 


संयुक्त राष्ट्र संघ, जेनीवा  में वर्ष 2009 में ही जब प्रथम बार ''एक्स्पर्ट मेकनिजम आॅन राइट्स ओफ इंडिजेनस पीपल्ज'' की सभा हुई थी तब मैंने वहाँ आदिवासियों के लिए अलग धार्मिक पहचान के लिए माँग रखी थी। संयुक्त राष्ट्र के आदिवासी मामलों को देखने वाले अधिकारी से अलग से समय ले कर चर्चा की थी। वहाँ से कुछ तथ्य निकल कर सामने आए थे उनकी चर्चा यहाँ करना चाहूँगा। संयुक्त राष्ट्र के आदिवासी मामलों के देखने वाले अधिकारी ने स्पष्ट किया था कि वो इस मामले में संज्ञान ले सकते हैं किंतु भारत के आदिवासियों के बीच से धार्मिक पहचान के लिए जमीनी सामाजिक आंदोलन देखने को नहीं मिले हैं। 

आदिवासी धर्म के संरक्षण और संवर्धन के लिए प्रावधान निहित किए है 


13 सितम्बर 2007 को विश्व भर के आदिवासियों के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण दिन था। इसी दिन आदिवासियों के लिए संयुक्त राष्ट्र का घोषणा पत्र को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंगीकृत किया था। अनेक राष्ट्र तुरंत इसके विरोध में खड़े हो गए थे। किंतु धीरे धीरे विकसित राष्ट्र जैसे कि अमेरिका, कनाडा, न्यूजीलैंड, आॅस्ट्रेल्या, फिनलैंड इत्यादि ने समर्थन दिया। वहीं यूकरैन, प्रशांत महासागर के उपद्वीप देश, अनेक एशियाई देशों के उदासीन रवैया अपनाया। संयुक्त राष्ट्र के घोषणा पत्र के अनुच्छेद 12.1 में विश्व के सभी आदिवासी एवं देशज समुदायों को अपने आदिवासी धर्म के संरक्षण और संवर्धन के लिए प्रावधान निहित किए हैं और इसी घोषणा पत्र के अनुच्छेद 12.2 में विभिन्न सरकार को निर्देश है की वो इन समुदायों के प्राचीन धर्म को बनाए रखने में हर प्रकार से सहयोग प्रदान करें। 

विशिष्ट धार्मिक पहचान चाहिए तो एकजुट होना होगा


कनाडा में वहाँ के ''आदिवासियों को प्रथम नागरिक'' या ''फर्स्ट नेशन'' का दर्जा प्राप्त है। शुरूआत में कनाडा ने संयुक्त राष्ट्र के घोषणा पत्र का विरोध किया था। उनका मानना था कि संयुक्त राष्ट्र के  घोषणा पत्र कनाडा के संविधान के अनुकूल नहीं था और विशेष रूप से कनाडा के संविधान के अनुच्छेद 35 के ठीक विपरीत था। ''असेम्ब्ली ओफ फर्स्ट नेशन'', ने जब संगठित होकर इसके लिए दबाव बनाया तब उनको उत्तर देते हुए तब की कनाडा की सरकार ने कहा कि कुछ आदिवासियों के हित के रक्षा के लिए हम अन्य सामान्य नागरिकों के साथ असंतुलित व्यवहार नहीं कर सकते हैं। असेम्ब्ली ओफ फर्स्ट नेशन का संगठित प्रयास होता रहा और अंतत:  12 नवंबर 2010 को कनाडा सरकार ने संयुक्त राष्ट्र के घोषणा पत्र को अंगीकृत कर लिया। वहीं आॅस्ट्रेल्या में भी इसी प्रकार का घटनाक्रम चला और 3 अप्रैल 2009 को ''रुड्ड सरकार'' ने आदिवासियों के संयुक्त राष्ट्र के घोषणा पत्र को अंगीकृत कर लिया जिसके लिए उनके संविधान में विशेष बदलाव भी करना पड़ा। न्यूजीलैंड सरकार ने ''माओरी'' आदिवासियों के दबाव में 19 अप्रैल 2010 को संयुक्त राष्ट्र के  घोषणा पत्र को अंगीकृत कर लिया था। उत्तरी अमेरिका ने भी 16 दिसम्बर 2010 को राष्ट्रपति बराक ओबामा के नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र के  घोषणा पत्र को अंगीकृत कर लिया। विकसित देशों से जो सफल उदाहरण हमें देखने को मिले हैं उनका यहाँ एक विशेष संदर्भ है। उन देशों में मानवाधिकार के प्रति लोग जागरूक हैं। उन सबमें सामूहिकता है। शिक्षित जन समाजिक बदलाव को सकारात्मक ढंग से देखते हैं और छद्म उद्देश्यों के लिए समाज को ताक पर नहीं रखते हैं। आपको यदि अपने समाज के अस्तित्व के लिए विशिष्ट धार्मिक पहचान चाहिए तो एकजुट होना होगा।

डॉ अभय सागर मिंज का संक्षिप्त परिचय


डॉ अभय सागर मिंज वर्तमान में डीएसपीएम विश्वविद्यालय (पूर्व में रांची कॉलेज रांची) के मानवशास्त्र विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं। 12 साल का उनका शिक्षण अनुभव रहा है। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा सेंट जेवियर्स स्कूल डोरंडा रांची से की और दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज से मानव विज्ञान में एम.एससी की है। उन्होंने रांची विश्वविद्यालय रांची से ''आदिवासी पलायन''  पर अपनी डॉक्टरेट की है। वह वर्ष 2006 से विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर आदिवासियों के मुद्दों को सक्रिय रूप से उठाने रहे हैं। 
          उनके प्रमुख कार्य क्षेत्र आदिवासी अधिकार, संस्कृति और स्वदेशी भाषा शामिल है। वे वर्तमान में डीएसपीएम विश्वविद्यालय में स्थित लुप्तप्राय स्वदेशी भाषाओं और संस्कृतियों के अंतर्राष्ट्रीय प्रलेखन केंद्र के निदेशक भी  हैं। वह आईसीसीएएस कंसोर्टियम, जिनेवा, स्विट्सर्लंड, के नामित मानद सदस्य भी हैं। इसके के साथ-साथ वायएफईईडी नेपाल में अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ सलाहकार के रूप में भी सहयोग करते हैं। 
           फिलीपींस स्तिथ अंतर राष्ट्रीय युवा संगठन एवायआईपीएन, में सलाहकार वे मानद सलाहकार समिति में भी हैं। वह डब्ल्यूयूजेए, लक्जमबर्ग स्थित में भारत का प्रतिनिधित्व यंग एलुमनी के रूप में करते हैं। वह झारखंड राज्य के लिए अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद में मुख्य सलाहकार हैं। वे झारखंड के जनजातीय अधिकारी संघ, ''झारखंड जागृति मंच'',  के महासचिव भी हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर आदिवासी छात्रों को परीक्षा में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए वित्तीय सहायता के लिए समर्पित है।

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.