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अपने अधिकारों के लिए हमें खुद ही लड़ना पड़ रहा है, इसलिए हमारे संघर्ष आपको देशद्रोह लगते हैं

अपने अधिकारों के लिए हमें खुद ही लड़ना पड़ रहा है, इसलिए हमारे संघर्ष आपको देशद्रोह लगते हैं

और इसी आक्रोश को मंत्री उषा ठाकुर जैसे विचार धारक देशद्रोह का नाम दे देते हैं

हम जनप्रतिनिधि चुनते हैं कि वो हमारी आवाज बनें, जब आप चुप्पी साध लेते हैं तो हम हुंकार भरते हैं


चुप्पी आपकी हुंकार हमारा, जय जोहार,
लेखिका-कल्पना धुर्वे
डिंडौरी, मध्य प्रदेश 

जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) जो कि भारत देश में आदिवासी, मूलनिवासी के अधिकार और संवैधानिक भागीदारी के लिए एक मजबूत पक्ष के रूप में कार्यरत है। उसी जयस संगठन को म. प्र. की संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री ऊषा ठाकुर एक देशद्रोही संगठन बोल कर अपमानित करती हैं और बाद में क्षमा याचना की उम्मीद करती हैं। वस्तुत: यह पहली बार नहीं है, जब जयस या अन्य आदिवासी संगठन के खिलाफ जहर उगला गया हो। इन जैसे विचार धारकों से तो हम मूलनिवासी न जाने कितने वर्षों से लड़ते आ रहे हैं।

जब-जब हमने अपने अधिकारों की मांग की इन लोगों के साजिश के शिकार हुए

देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम 1784 में बाबा तिलका मांझी की बर्बरता पूर्ण हत्या से लेकर वर्ष 2016 में खूंटी के सायको में अब्राहम मुंडा की पुलिस फायरिग में हत्या तक, वर्तमान में झाम सिहं धुर्वे की हत्या कर नक्सली का तमगा लगा दिया। जब-जब हमने अपने अधिकारों की मांग की इन लोगों के साजिश के शिकार हुए। इन लोगों की चुप्पी तब क्यों नहीं टूटती जब विकास के नाम पर आदिवासियों के जमीन का अधिग्रहण किया जाता है और जब हम मांग करें अपनी माटी, पुरखों की जमीन का तो पुनर्वास के नाम पर भूमि अधिग्रहण पुर्नस्थापना कानून बनाया तो जाता है पर लागू नहीं किया जाता।

हमारे जंगल, खनिज संपदा का दोहन करने के लिए पूंजीपति के हाथ लगाम थमा दी जाती है

इनकी चुप्पी तब क्यों नहीं टूटती जब हमारे जंगल, खनिज संपदा का दोहन करने के लिए पूंजीपति के हाथ लगाम थमा दी जाती है और उम्मीद की जाती है कि वे हमें सुरक्षित रखेंगे। इनकी चुप्पी तब क्यों नहीं टूटती जब हमारे स्वछंद जीवन शैली, हमारे भोलेपन, ईमानदारी से जीने के अधिकारों का दमन करके वनों के विकास के नाम पर वन अधिकार कानून 2006 लाकर व्यक्तिगत अधिकार के रूप में 10 के जगह पर 1 डिसमिल-2 एकड़ जमीन का पट्टा थमा दिया जाता है। 

जब छात्रवृत्ति में कटौती की जाती है 

इनकी चुप्पी तब क्यों नहीं टूटती जब अनुसूचित जाति वा जनजाति वर्ग के बच्चों को 10 वीं के बाद मिलने वाली छात्रवृत्ति में 3000 करोड़ एवं पीएचडी की छात्रवृत्ति में 400 करोड़ की कटौती की जाती है। इनकी चुप्पी तब क्यों नहीं टूटती जब हमें वनों से बेदखल कर वनों के विकास के नाम पर भारत सरकार कैंपा फंड में 55000 करोड़ का दावा करती है और वनों का विकास दिखाई नही देता। 

जब महिलाएं उत्पीड़न का शिकार होती है 

इनकी चुप्पी तब क्यों नहीं टूटती जब आदिवासी महिलाओं को पुलिस व संरक्षण करने वाले नेताओं के द्वारा यौन उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है और विरोध करने पर उसे नक्सली घोषित कर एनकाउंटर कर दिया जाता है। इनकी चुप्पी तब क्यों नहीं टूटती जब दलित के घोड़ी चढ़ने पर सवर्ण उन्हें बेरहमी से पीटते हैं। 

कोरोना काल में पैदल चलने को मजबूर हुये मजदूर 

इनके चुप्पी तब क्यों नहीं टूटती जब कोरॉना काल में बड़ी संख्या में आदिवासी मजदूर बिना राशन पानी 400-500 किलो मीटर चलने को मजबूर हो गए। इनकी चुप्पी तब क्यों नहीं टूटती जब नागरिकता संशोधन अधिनियम के तहत भारत के मूल निवासियों, आदिवासियों को अपना जन्म प्रमाण पत्र दिखाने को बाध्य होना पड़ेगा। इनकी चुप्पी तब क्यों नहीं टूटी जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के आने पर बेरोजगार, गरीब तबके को छुपाने का प्रयास बाउंड्री बना कर की गई। इनकी चुप्पी तब क्यों नहीं टूटी जब रोज किसानों के आत्महत्या के मामले आते हैं।

तब तो इनकी जान हलक तक आ जाती है

इनकी चुप्पी तब टूटती है जब कोई उरांव, भील, गोंड, कुम्हार, निषाद, कोल जाति का व्यक्ति कलेक्टर बनके ऊंचे पद पर बैठ जाता है, तब तो इनकी जान हलक तक आ जाती है। इनकी चुप्पी तब टूटती है जब हम अपने मालिकाना हक के लिए पट्टा दिलाने के अध्यादेशों को लाने की मांग करते हैं। इन सबके जवाब में हमें पांचवीं अनुसूची, छटवीं अनुसूची का हवाला तो देते है पर अनुपालन नही किया जाता परंतु मुंह बन्द करने का प्रयास किया जाता है। 

जब हमारी मांगे सरकारी फाइलों में दब जाती हैं

आरक्षण का प्रावधान, पेसा अधिनियम, वन अधिकार, सीएनटी, एसपीटी के नाम गिना दिए जाते हैं पर जमीनी हकीकत कुछ अलग होती है और जब हमारी मांगे सरकारी फाइलों में दब जाती हैं तब हमें आक्रोशित होकर मैदान-ए-जंग में उतरना पड़ता है, क्योंकि न्याय की उम्मीद भी हम उस सुप्रीम कोर्ट से कर रहे हैं, जहां एक भी अनुसूचित जाति एवं जनजाति का जज नहीं है और इसी आक्रोश को मंत्री उषा ठाकुर जैसे विचार धारक देशद्रोह का नाम दे देते हैं। वैसे भी अब 10.43 करोड़ आदिवासी जनता अब जाग चुकी है, अपने अधिकारों के लिए हमें खुद ही लड़ना पड़ रहा है, इसलिए हमारे संघर्ष आपको देशद्रोह लगते हैं। हम जनप्रतिनिधि चुनते हैं कि वो हमारी आवाज बनें, जब आप चुप्पी साध लेते हैं तो हम हुंकार भरते हैं।


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