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देशज समुदाय ने ऐतिहासिक धरोहर, रीति-रिवाज, संस्कृति व कोयापुनेम को भुला दिया तो उनके बुनियाद की जड़ें खुद हिल जायेंगी

देशज समुदाय ने ऐतिहासिक धरोहर, रीति-रिवाज, संस्कृति व कोयापुनेम को भुला दिया तो उनके बुनियाद की जड़ें खुद हिल जायेंगी 

देशज समुदाय के लिए मानक शब्द 'इंडीजीनस' जिसका हिंदी रूपांतरण ''देशज'' है

अंतर्राष्ट्रीय देशज दिवस की अवधारणा व देशज समुदाय


आलेख-
सम्मल सिंह मरकाम
वनग्राम-जंगलीखेड़ा,
गढ़ी, बैहर, जिला बालाघाट,
मध्य प्रदश

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा देशज, स्वदेशी जनों के लिए घोषित 09 अगस्त इंटरनेशनल डे आफ वर्ल्ड इंडीजीनस पीपुल्स, आज संपूर्ण विश्व हर्षोल्लास के साथ कोविड गाइडलाइन के पालन के साथ मना रहा है।  आज ही के दिन 9 अगस्त को संयुक्त राष्ट्र संघ के यू एन वर्किंग ग्रुप आफ इंडीजीनस पापुलेशन , की प्रथम बैठक 1982 मे जेनेवा मे हुई थी एवं 23 दिसम्बर 1994 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने अपने संकल्प प्रस्ताव क्रमांक 49/214 के माध्यम से घोषणा की कि-09 अगस्त प्रत्येक वर्ष इंटरनेशनल डे आफ द वर्ल्ड इंडीजीनस पीपुल्स, के रूप में सूपूर्ण विश्व मे मनाया जायेगा।

भारत की 114 मुख्य भाषाओं मे से 22 भाषाओं को ही संविधान की आठवी अनुसूची में जगह मिल पायी है

कोविड के वैश्विक संकटकाल से संपूर्ण विश्व गुजर रहा है और तमाम ऊंच-नीच को पार कर अब विश्व पुन: एक लय पकड़ने की राह मे है। इसी क्रम में प्रतिवषार्नुसार संयुक्त राष्ट्र संघ वर्ष 2021 हेतु - Leaving no one, behind, indigenous peoples, and the call for a new social contract ( किसी को पीछे नही छोड़ना, देशज लोग  और एक नए सामाजिक अनुबंध के लिए आह्वान )- थीम घोषित की है । दुनिया भर के 90 देशो में 476 मिलियन से अधिक देशज लोग रहते हैं। जो वैश्विक आबादी का 6.2% हैं । देशज लोग अनूठी संस्कृतियों, परंपराओं, भाषाओं,और ज्ञान प्रणालियों की एक विशाल विविधता के धारक हैं, उनका अपनी भूमि के साथ एक विशेष संबंध है और देशज समुदाय अपने स्वयं के विश्वदृष्टि और प्राथमिकताओं के आधार पर विकास की विविध अवधारणायें रखते हैं । विशेष उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के लाइव स्ट्रीम में केवल प्रत्येक स्पीकर द्वारा बोली जाने वाली मातृभाषा शामिल होगी । इस प्रकार यू एन ओ देशज भाषाओं को सशक्तिकरण हेतु प्रयास कर रहे हैं जो देशज लोगो को स्वयं से या देश से बाहर के देशज समुदाय से जुड़ने का माध्यम बन सकती है। भारत की 114 मुख्य भाषाओं मे से 22 भाषाओं को ही संविधान की आठवी अनुसूची में जगह मिल पायी है। अभी तक मात्र दो प्राचीन कोयतुर भाषाओं संताली और बोडो को ही अनुसूची में जगह मिल पायी है । (लेखांश-डॉ सूर्या बाली, युवा काफिला अगस्त 2020)।

वो जाने अनजाने दूसरो के अधिकारों का हनन करते थे

वर्तमान परिदृश्य में यह जानना भी हम सभी के लिए जरूरी है कि विश्व के प्रारंभिक दौर में मानव को अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं था तथा इस समय जो बलशाली होते थे, वो जाने अनजाने दूसरो के अधिकारों का हनन करते थे, धीरे-धीरे शिक्षा और सभ्यता के विकास के साथ साथ मानव का मस्तिष्क भी परिष्कृत होता गया और अंतर्बोध के साथ उसमें अधिकारों को जानने की लालसा भी जाग उठी थी। तब मानव नें अपने बुद्धि और विवेक से खुद प्रकृति के सभी भौतिक अभौतिक, सजीव, निर्जीव में समाहित प्राकृतिक संतुलन के सिद्धांत को स्वीकार किया। अब वह प्रकृति के दूसरों की खुशी में खुश होता है, और दूसरों के दुख में अपनी शोक संवेदना भी व्यक्त करना मूल परंपरा बनती जा रही है। आज के विकास का श्रेय संयुक्त राष्ट्र संघ ने देशज समुदाय के पारंपरिक ज्ञान व प्रकृति की गूढ़ रहस्य को जानने समझने की ऐतिहासिक कला रूपी धरोहर को देता है।

अनुसूचित जनजाति, वहीं कोइया भाषा (पाना पारसी-गोंडी) में ''कोयतुर'' संबोधित किये जाते हैं

संयुक्त राष्ट्र संघ इस बात को अंगीकार करती है कि देशज ज्ञान तंत्र, विश्व के संपूर्ण विकास की जननी है और इस वाक्यांश को गहराई से आत्मसात व चिंतनकर हम देशज समुदाय, देशज ज्ञानतंत्र के महत्व को  समझ सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा देशज समुदाय के लिए मानक शब्द 'इंडीजीनस' जिसका हिंदी रूपांतरण ''देशज'' है। भारतीय संविधान के परिप्रेक्ष्य में अनुसूचित जनजाति, वहीं कोइया भाषा (पाना पारसी-गोंडी) में ''कोयतुर'' संबोधित किये जाते हैं। देशज समुदाय सिर्फ प्राकृतिक हित में ही नही बल्कि मौजूदा विज्ञान युग में विकास के तमाम पयार्यों के जनक भी हैं। वस्तुत: देश के विकास व सुरक्षा के साथ-साथ प्राकृतिक संतुलन संरक्षण व संवर्धन के लिए भी देशज ज्ञानतंत्र की आवश्यकता है । संपूर्ण कोयतुर समुदाय या देशज समुदाय के लिए गर्व का विषय है कि देशज समुदाय की  ''रूढ़ी अंतर्राष्ट्रीय विधि का मूल और सबसे प्राचीन स्रोत है।'' (डॉ अग्रवाल-अंतर्राष्ट्रीय विधि एवं मानव अधिकार, संस्करण 2017)।

परंतु इन स्वतंत्रता के मूल्यों का हनन अनवरत होता आ रहा है

यह सर्वमान्य सच है कि किसी भी राष्ट्र की वैज्ञानिक व तकनीकि शोध, रूढ़ी , प्रथा, और देशज ज्ञान के बिना असंभव है। ज्ञानतंत्र के मूल मालिक कहे जाने वाले देशज समुदाय के सामने भी आज चुनौतियां कम नही हैं। एक तरफ आधुनिक सभ्यता व औद्योगिक विकास के विविध आयाम है, वही दूसरी तरफ देशज समुदाय की पुरखा रूढ़ी, सांस्कृतिक धरोहर, परंपरा, रीति रिवाजों पर परसंस्कृतिग्रहण का लेप लगता जा रहा है । देशज समुदाय आज के आधुनिक विकास की दौड़ में हिस्सेदारी तो चाहता है लेकिन वह चिंतन मनन भी करता है कि उसके ऐतिहासिक धरोहर रीति रिवाज, संस्कृति, व कोयापुनेम को भुला दिया तो उनके बुनियाद की जड़ें खुद हिल जायेंगी ।  एक परिदृश्य यह भी है कि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय नीतियां देशज समुदाय को कानूनी स्तर पर पूर्ण स्वतंत्रता देती है कि वह अपने परंपरागत पहचान को बनाए रखने हेतु नीतिगत स्तर पर कार्य करे परंतु इन स्वतंत्रता के मूल्यों का हनन अनवरत होता आ रहा है ।

तो यह यूएनओ की इंडीजीनस राइट्स की परिकल्पना पर भी पलीता लगता प्रतीत होता है

भारत के भिन्न भौगोलिक वितरण अनुसार देशज समुदाय की विविध सांस्कृतिक एवं कलाओं के साथ अपने देशज ज्ञान, अपनी विशिष्ट पहचान और अस्तित्व को बनाए हुए हैं । जिसे हम दरकिनार नही कर सकते हैं। फिर भी चिंतनीय विषय है लोकतांत्रिक राष्ट्र मे उपनिवेशवादी व परायेपन की जाल में फंसकर संकटमयी जीवन जीने को मजबूर हैं। जो उनकी संस्कृति, पहचान, व आस्तित्व के लिए खतरा है, अस्ितत्व संकटमयी यदि है तो यह यूएनओ की इंडीजीनस राइट्स की परिकल्पना पर भी पलीता लगता प्रतीत होता है।

इसका कई राष्ट्रों के पूंजीपति सरकारों को खतरा महसूस होने लगा

मौजूदा कानून और नीतियां देशज समुदाय के विशेषाधिकारों को प्रभावी ढंग से व्यवस्थित व संरक्षित नही कर पाना व अधिकांश देशो में राष्ट्रीय कानून व उनकी विशिष्ट परिस्थितियों, विशेषताओं और जरूरतों को संबोधित व विस्तृत जानकारी का उल्लेख न कर पाना, जिससे देशज समुदाय का अपने अधिकारों से वंचित होना, ही एक महत्वपूर्ण कारक रहा है कि अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन 1989 के कान्वेंशन न 169 में आत्म पहचान, स्वभाग्य निर्णय, स्वप्रबंधन, सामाजिक जिम्मेदारी, देशजों के मौलिकाधिकार का प्रावधान किया गया। इसके साथ ही विशेष उपाय, उपागम, परामर्श , उन्नति, परम्परागत रीति रिवाज , रूढ़ीवाद, प्रथागत कानून भूमि की अवधारणा, जमीन के अधिकार, प्राकृतिक संसाधन के अधिकार, खनिजों पर अधिकार, विस्थापन की शर्तें, पारंपरिक अर्थव्यवस्थायें , व्यावसायिक प्रशिक्षण, रोजगार, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा, सीमा पार अन्य देशज समुदायों से संपर्क इत्यादि जैसे विषय पर विशेषाधिकार दिये गये हैं। इस प्रकार आईएलओ 169 देशज समुदाय के अधिकारों को संरक्षित रखता है । दुनिया के देशज समुदाय के लिए तमाम नियम बनाए गये थे, इसका कई राष्ट्रों के पूंजीपति सरकारों को खतरा महसूस होने लगा व UNDRIP की घोषणा का उनके द्वारा विरोध भी किया गया । (लेखांश- राजा राजतिलक धुर्वे-युवा काफिला ,अगस्त 2020)।

भारत के संबंध मे टीप दी गयी कि यहां देशज समुदाय के मानवाधिकार से जुड़ी समस्याओं में इजाफा हुआ है

अंतर्राष्ट्रीय संगठन ह्यूमन राइट्स वाच की 175 देशो में मानाधिकार की स्थिति का जायजा लेने वाली एक संवेदनशील रिपोर्ट में भारत के संबंध मे टीप दी गयी कि यहां देशज समुदाय के मानवाधिकार से जुड़ी समस्याओं मे इजाफा हुआ है। देशज समुदाय की आज की ज्वलंत समस्याएं- प्राकृतिक संसाधनो पर नियंत्रण की समाप्ति , संविधान मे प्रावधान के बाद भी देशज शिक्षा का अभाव , विस्थापन मे पुनर्वास की समस्या, स्वास्थ्य व कुपोषण की समस्या, पहचान का संकट, रीति रिवाज धर्म भाषा संस्कृति का पतन होना , परसंस्कृतिग्रहण की समस्या, अवैध खनन की समस्या, देशज साहित्य व दर्शन को हासियें में करना, सशख्त देशज नेतृत्व का अभाव, आज देशज समुदाय की मुख्य समस्याओं मे सम्मिलित हैं। आज की तथाकथित सभ्य समाज या मुख्यधारा के समाज ने दो तरह के अत्याचार भारत के देशज समुदाय पर किए हैं। पहला अत्याचार कि देशजों की सामाजिक , सांस्कृतिक, और धर्म दार्शनिक विशेषताओं को अपने खाते मे दिखाकर देशज समुदाय को अपने ही आख्यानों से वंचित कर दिया । अर्थात अपने धर्म और दर्शन के अनुरूप मान्यताओं के साचें में ढालकर पूरी तरह बदल दिया । दूसरा अत्याचार यह कि विकास के नाम फर या सभ्य बनाने या मुख्यधारा में शामिल करने के नाम पर देशज समुदाय पर अन्य धर्म और संस्कृतियों को लादा जा रहा है । (लेखांश- संजय श्रमण जोठे, युवा काफिला अगस्त 2020)।

मुख्य मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर पर नियमित चर्चा परिचर्चा आवश्यक है

उपरोक्त समस्याओं व मुख्य मुद्दों पर राष्ट्रीय स्तर पर नियमित चर्चा परिचर्चा आवश्यक है जिससे हम निराकरण की दिशा में बढ़ सकें। देशज समुदाय को भारतीय संविधान में अनुसूचित जनजाति की संज्ञा दी गयी है । उपरोक्त के संरक्षण व विकास के परिप्रेक्ष्य में संविधान मूलरूप से विभिन्न अनुच्छेंदो में महत्वपूर्ण प्रावधान विहित किए गये हैं। यथा- अनुच्छेद -13(3)(क), 14, 15, 15(4), 16(4), 16(4)(क), 16(4)(ख), 19(1), 19(5),  23, 24, 46, 51(क), 51(क)(च), 51(क)(छ), 51(क)(ज), 164-विशेष कल्याण मंत्री का प्रावधान, 243(घ), 244, 244(1) पांचवी अनुसूची, 244(2) छटवीं अनुसूची, 275, 330, 332, 334, 338, 338(क), 342, 366(25), 371(क)-नागालैंड , 371(ख)-असम, 371(ग)-मणिपुर , 371(च)-सिक्किम, 371(छ)-मिजोरम, राज्य हेतु महत्वपूर्ण उपबंध व प्रावधान किये गये हैं । उपरोक्त प्रावधानों के तहत देशज, समुदाय की प्रथा एवं रूढ़ी, अधिकार,साहित्यिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक, साहित्यिक, अध्यात्मिक, भाषिक, आर्थिक, संवैधानिक, एवं देशजत्व मूल्यों, के संरक्षण व संवर्धन किये जा सके । साथ ही संवैधानिकोत्तर निकाय की व्यवस्था /अधिनियम /नियम /अध्यादेश/उपबंध /आवश्यक संशोधन के प्रावधान निहित की गयी । देशज ज्ञान को बढ़ावा व सम्मान देकर, हमने असाधरण उपलब्धि हासिल की है इसमें कोई दो राय नही कि आज भारत में देशज समुदाय पर अध्ययन व शोधकार्य की परंपरा जारी है। देशज ज्ञान को बढ़ावा व सम्मान देकर, हमने असाधरण उपलब्धि हासिल की है । अब देशज समुदाय अपने गोटुल व्यवस्था का पालन करने की दिशा मे बढ़ रहा है, जिससे संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों को पाया जा सके । देशज ज्ञान के माध्यम से विज्ञान के नवीन अविष्कार ही नही हो रहे हैं, बल्कि समृद्धशाली, देशज ज्ञान ने संयुक्त राष्ट्र संघ को भी चिंतन मनन के लिए बाध्य कर दिया है। जिसका परिणाम यह है कि आज संयुक्त राष्ट्र संघ, देशज समुदाय के देशज ज्ञानतंत्र को-संपूर्ण विकास का जनक मानता है व सगर्व सम्मानित करता है ।

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