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आदिवासी प्रकृति पूजक है, कुँवार पूर्णिमा, करम परब त्यौहार विशेष एक झलक

आदिवासी प्रकृति पूजक है, कुँवार पूर्णिमा, करम परब त्यौहार विशेष एक झलक

मध्यप्रदेश में उराँव आदिवासी की पहचान और उनकी संस्कृति

सरना स्थल पर अटूट विश्वास रखते हैं जहाँ पर वो प्रकृति की पूजा करते हैं

उराँव आदिवासी समुदाय के बीच में सबसे बड़ी समस्या धर्म परिवर्तन का रही है

लेखक-विचारक
निर्मला प्रधान
मीडिया प्रभारी
उराँव सरना आदिवासी सामाजिक,
सांस्कृतिक संगठन भोपाल मध्यप्रदेश


उराँव आदिवासी भारत में  छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम और नेपाल में बहुतायत में निवास करते हैं।


खासकर छत्तीसगढ़, झारखण्ड और उड़ीसा में आदिवासी बाहूल्य क्षेत्र होने की वजह से उराँव लोगों की खास पहचान बन गई है। उराँव आदिवासी के जैसे ही गोंड़, भील-भिलाला, संथाल, हो, खड़िया और मुंडा इत्यादि आदिवासी समुदाय भी हैं जिनकी संस्कृति और पूजा पद्धति एक समान है। 

जो हमें जीवन देते हैं, उन्हीं को पूजा करते हैं 

वर्तमान मध्यप्रदेश में भोपाल, सीहोर, विदिशा, बैतूल, सारणी, होशंगाबाद, जबलपुर, इंदौर, ग्वालियर, शिवपुरी, करैरा, दतिया, सिंगरौली, रीवा, सतना, अनूपपुर इत्यादि सभी जिलों में उराँव आदिवासी समुदाय निवास करते हैं। उराँव आदिवासी अपने ईष्ट देव धर्मेश को मानते हैं अर्थात महादेव-पार्वती को ही अद्दी देव मानते हैं। पूर्वजों का मानना है कि हमारी उत्पत्ति का कारण चंदो बीड़ी, बीनको (चाँद, सूरज तारा,) अर्थात धर्मेश (महादेव), धरती, पेड़-पौधे, जीव-जंतु, नदी नाले, आकाश, पाताल की स्वरूप पार्वती आयो(माँ) जिसे सरना आयो, चाला आयो से पुकारते हैं, यही हमारी सृजनहार हैं, ऐसा मानना है। इसलिए उराँव आदिवासी जितने भी प्रकृति में पेड़ पौधे हैं जिससे फल और कंदमूल, साग, भाजी, जड़ी-बूटी मिलते हैं, नदी नाले जिससे जीवन के लिए पानी मिलता है, जंगल, सरना (पेड़ का झुण्ड) जिससे लकड़ी, शुद्ध हवा, कृषि कार्य के लिए लकड़ी का औजार बनाने की लकड़ी, पेड़ पौधों से अच्छा मानसून इत्यादि मिलते हैं, इन्ही को भगवान या देव मानकर पूजते हैं। इसीलिए जितने भी आदिवासी हैं वे अपने आपको प्रकृति पूजक कहते हैं क्योंकि हम सब प्रकृति में जितने भी चीज पाए जाते हैं जो हमें जीवन देते हैं, उन्हीं को पूजा करते हैं।

चूँकि पूर्वज लोग शिव लिंग को उत्पत्ति का कारण मानकर पूजते थे 

चूँकि पूर्वज लोग शिव लिंग को उत्पत्ति का कारण मानकर पूजते थे, जिसमें महादेव और पार्वती जी की लिंग प्रतिकात्मक रूप में पत्थर को उकेरा गया था। उसी को शिवलिंग कहा गया। जब मानव सभ्यता का विकास हुआ तब धीरे-धीरे दूसरे पंत और विचारधारा का विकास हुआ। जब हिन्दू विचारधारा का विकास हुआ जिसे लोग धर्म मानने लगे, उन्होंने भी शिवलिंग को ही आधार मानकर पूजा पाठ करने लगे परन्तु इस विचारधारा और पंत के लोग शिवलिंग को एक आकार देकर पूजने लगे। उस समय आदिवासी लोग महादेव पार्वती को मूर्ति स्वरुप नहीं बनाये थे, लिंग को ही पूजते थे परन्तु मानव सभ्यता का विकास हुआ तो जितने भी उराँव आदिवासी लोग थे शिव-पार्वती के मूर्ति को भी मानने लगे क्योंकि हमारे पूर्वज अपने जैसे दिखने वाले उराँव आदिवासी जैसे महादेव और पार्वती की मूर्ति नहीं गढ़ी।  इसलिए हिन्दू पंत और धर्म को मानने वाले लोगों ने अपने जैसे महादेव-पार्वती की मूर्ति गढ़ी, उसे ही अपना भगवान मानने लगे।

हमारी पूजा पद्धति अलग है

हमारे पूर्वज पुरुष कमर में कच्छा-करया (गमछा) लपेटते थे और महिलाएं बिना ब्लाउज की मोटिया लुगा (साड़ी) को कंधे तक लपेटती थीं, उसी प्रकार शिव - पार्वती के स्वरुप को भी भगवान के रूप में गढ़ना था जो अशिक्षा और अज्ञानता की वजह से नहीं गढ़ पाए, इसलिए आज तक हम दूसरे धर्म या पंत के बनाये हुये प्रितकृति को ही मानते आ रहे हैं। इसलिए आजकल कई बुद्धिजीवी यह कहने लगे हैं कि हम आदिवासी प्रकृति पूजक हैं, महादेव-पार्वती को मानते हैं पर हमारी पूजा पद्धति अलग है, हिन्दुओं जैसे नहीं है।

उराँव आदिवासी रूढ़िवादी परम्परा 

डंडा कट्टना से ही पूजा विधि सम्पन्न करते हैं जो खास विधि-विधान होता है जिसमें कोई पंडित की आवश्यकता नहीं होती, यही एक खास वजह है जो हमें आदिवासियत की पहचान को हिन्दू धर्म से अलग करता है। हमारे पूर्वज कांसा लोटा को पवित्र मानते हैं और हर पूजा पाठ में कांसा लोटा में शुद्ध जल, उसमें थोड़ा सा अरवा चावल, सात आम की पत्ती, हल्दी और सिंदूर, तांबा का पैसा तथा धूप-धुवन से ही बैगा और पहान द्वारा पूजा सम्पन्न कराया जाता है। बैगा और पहान उराँव आदिवासियों और अन्य आदिवासियों के पुजारी होते हैं, आदिवासियों की पूजा पद्धति में पंडित की कोई आवश्यकता नहीं है। घर का मुखिया ही हर सुख-दु:ख और पर्व-त्यौहार में रूढ़िवादी परम्परा से पूजा पाठ सम्पन्न कराते हैं, जिसमें सबसे पहले अपने पूर्वजों का नाम पीढ़ी दर पीढ़ी लिया जाता है, ग्राम देवता, नगर देवता, सीमान देवता आकाश-पाताल, धरती-(पृथ्वी), नदी-नाले, जीव-जंतु, पेड़-पौधे, हवा, पानी आदि तमाम प्रकार के चीजों को देवता और भगवान मानकर पूजा करते हैं, आह्वान करते हैं। इस प्रकार पूरे पूजा पाठ में पंडित का कोई जगह नहीं होती है, इसे ही रूढ़िवादी परंपरा या पूजा पद्धति कहा जाता है।

करम परब और सरहुल परब को ही बड़े धूमधाम से मनाते हैं

चूँकि उराँव आदिवासी लोगों का मुख्य व्यवसाय ही कृषि है, इसलिए फसल के बोने और पकने तक जितने भी ऋतु और महीने में अवसर आते हैं उसी प्रकार अपना तीज-त्यौहार भी मनाते हैं। मुख्य त्यौहार करम परब और सरहुल परब को ही बड़े धूमधाम से मनाते हैं। नए-नए कपड़े और अपने पारम्परिक पकवान बनाकर खुशियाँ मनाते हैं। जिसमें चीला रोटी, अनारसा रोटी, उड़द बड़े, गोरगोरा रोटी (धुसका) चटनी इत्यादि मुख्य होते हैं जो मुख्यतया चावल और उड़द दाल से बनते हैं।

धर्म परिवर्तन शुरू से लेकर आज तक पतन का कारण बना 

उराँव आदिवासी का जन्म संस्कार, विवाह संस्कार, मृत्यु संस्कार खास होता है जो रूढ़िवादी परम्परा के अनुसार ही सम्पन्न कराया जाता है जो हिन्दुओं से भिन्न होता है। यहाँ पर भी बैगा और पहान ही तीनों संस्कार सम्पन्न कराते हैं, न कि पुजारी पंडित। ज्ञात हो कि उराँव आदिवासी समुदाय के बीच में सबसे बड़ी समस्या धर्म परिवर्तन का रहा है जो शुरू से लेकर आज तक पतन का कारण बना। शिक्षा की कमी, गरीबी, स्वास्थ्य केंद्र का आभाव इत्यादि के कारण जितने भी ईसाई मिशनरियों द्वारा स्कूल, कॉलेज स्वास्थ्य केंद्र दूर दराज आदिवासी क्षेत्रों में खोले गए, वहाँ पर उराँव आदिवासी लोग पढ़ने लगे और वहाँ जो धर्म शिक्षा दिया जाता है उससे प्रभावित होकर धर्म अपनाने लगे। इसके मुख्य कारण उराँव आदिवासियों का धार्मिक ग्रन्थ न लिखा जाना है क्योंकि रूढ़िवादी परम्परा के अनुसार पीढ़ी दर पीढ़ी पूजा मन्त्र या रीति रिवाज एक दूसरी पीढ़ी से सुनकर किया जाता है जिससे एकरूपता नहीं है। इसलिए कई शिक्षित उराँव लोगों ने ईसाई धर्म के साथ साथ हिन्दू धर्म, मुश्लिम धर्म, बौद्ध धर्म इत्यादि को अपनाते चले गए, क्योंकि उनकी पूजा पद्धति लिखित नहीं होने की वजह से पढ़े-लिखे लोगों को पिछड़ापन का अहसास होता गया और वे लिखित धर्म ग्रन्थ और तमाम तरह की चालीसा और मन्त्र को पढ़कर तथा सुनकर प्रभवित होने लगे। आज विडम्बना यह है कि रूढ़िवादी परंपरा को छोड़कर ज्यादातर उराँव लोग हिंदुत्व अपना लिए या ज्यादातर लोग ईसाई धर्म अपना लिए। इस प्रकार उराँव लोगों की जनसंख्या कम होते चली गई। इसलिए कभी कभी शिक्षित उराँव लोगों के बीच धर्म को लेकर कई बार विवाद तक हो जाया करती है।

मध्यप्रदेश में सरना स्थल का अच्छा विकास नहीं हो पाया है

उराँव आदिवासियों का पूजा स्थल सरना है जिसमें अटूट आस्था रखते हैं। सरना मुख्यतया सराई पेड़ का झुण्ड या समूह होता है जिसे पूरा प्रकृति मानकर पूजा किया जाता है। मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ विभाजन के बाद जनसंख्या में कमी आई है क्योंकि ज्यादातर लोग राज्य सरकार की नौकरी में होने के कारण छत्तीसगढ़ चले गए। यहाँ बसे लोग अपनी पारम्परिक रीति रिवाज और संस्कृति को बहुत ही पारम्परिक रूप से निर्वहन करते हैं, हर त्यौहार और पूजा पाठ बड़े ही धूम धाम से मनाते हैं। अपनी पूजा स्थान सरना स्थल पर अटूट विश्वास रखते हैं जहाँ पर वो प्रकृति की पूजा करते हैं। मध्यप्रदेश में सरना स्थल का अच्छा विकास नहीं हो पाया है क्योंकि उराँव आदिवासी प्रकृति को प्राकृतिक रूप से ही पूजते आ रहे हैं इसलिए वहाँ पर अभी भी कोई चबूतरा या मंदिर का आकार नहीं दिया गया था परन्तु अब लोग शिक्षित होते गए और पूजा स्थल को एक चबूतरे का आकार देकर पूजा करने के लिए भवन या मंदिर का आकार देने की सोच रखते हैं ताकि आज के पढ़े लिखे युवा पीढ़ी को वहाँ जाकर पिछड़ापन का अहसास न हो। जिस प्रकार पूजा वाले जगह को मंदिर का स्वरुप, चर्च का स्वरुप, गुरुद्वारा का स्वरुप, जिनालय का स्वरुप दिया गया, उसी प्रकार सरना पूजा स्थल को भी मंदिर का स्वरुप दिया जा सकता है। 

भावपूर्वक और मनमोहक तरीके से करम त्यौहार मनाया जाता है

हर साल कुंवार पूर्णिमा के दिन सबसे बड़ा त्यौहार करम परब मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा सहित सभी आदिवासी बाहूल्य राज्यों में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। जिसमें कुंवारी कन्यायें और युवा, अच्छे वर-वधु की मनोकामना करके, करम पेड़ की तीन छोटी डाली को बैगा तथा सागजनों के साथ विधि-विधान से लाकर अखरा अर्थात पूजा स्थान में शुद्ध करके रूढ़िप्रथा के अनुसार विधिवत पूजा करके महादेव-पार्वती का आह्वान किया जाकर स्थापित किया जाता है। जो युवक-युवतियां करम व्रत रखते हैं, वे निर्जला रहकर करम देव की सेवा करते हैं तथा शाम को बैगा द्वारा कहानी-कथा सुनकर ही फलाहार लेते हैं। रात भर आदिवासी पारम्परिक संस्कृति के अनुसार मांदर, घंट, नगेड़ा, घुँघरू, मयूर झालर, ठोसा, घोंगसो, पैंरी, बिछिया, मोटिया लुगा, लाल पाड़ के साथ नाच-गान और पूजा पाठ होता है। करम देव को अखरा तक लाने से लेकर विसर्जन करने तक अलग-अलग पहर का अलग-अलग गाना, राग, भजन गाया जाता है जो प्रकृति को समर्पित किया जाता है। करम देवता को धूप-धुवन के साथ जावा फूल अर्थात जवारे चढ़ाया जाता है।  जावा फूल को एक दूसरे से प्रेम और आपसी भाई चारे से रहने, खुशी बाँटने तथा खुशहाली के प्रतिकात्मक रूप में विसर्जन से पहले पूजा करके, पूरे कुटुंब में अभिवादन करके बांटा जाता है। इसके साथ एक खास प्रसाद चढ़ाया जाता है जिसे कुंवारी कन्याओं और युवा लोगों के अच्छे संतान प्राप्ति के रूप में खीरा को संतान के रूप में साक्षात संतान मानकर, पीला कपड़े में लपेटकर करम देव को चढ़ाया जाता है। सुबह विधि-विधान से पूजा करके प्रसाद के रूप में परिवार और कुटुंब में चिवड़ा-खीरा, प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। करम देव को सुबह नदी या सरिता में प्रवाह किया जाता है, विसर्जन किया जाता है। इस प्रकार बहुत ही भावपूर्वक और मनमोहक तरीके से करम त्यौहार मनाया जाता है।


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1 Comments
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  1. बहुत ही अच्छी जानकारी मिली।अच्छा लिखी हैै आप शुरवात तो हुआ।

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