दूसरा विवाह करने पर महिलाओं पर ही समाजिक नियमों की पाबंदियां क्यों ?
विवेक डेहरिया,
संपादक दैनिक गोंडवाना समय,
विशेष संपादकीय,
भारत में महिलाओं को देवी स्वरूप में पूजा जाता है। महिलाआें का सर्वोच्च स्थान बताया जाता है। महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों के प्रावधानोंं के बावजूद भी महिलाएं कहीं न कहीं सामाजिक नियमों की बेड़ियों में जकड़ी हुई नजर आती है। हालांकि वर्तमान दौर में महिलायें पुरूष वर्ग से कहीं भी पीछे नहीं है समस्त क्षेत्रों में महिलाएं अपना प्रतिनिधित्व बनाये हुये है। भारत में आज भी महिला पुरूष की जन्म में संख्या का अंतर बना हुआ है। महिलाएं जिस तरह से अपना माता-पिता का घर छोड़कर विवाह के पश्चात ससुराल पक्ष में जाकर वहां के नियमों को अंगीकार अपना फर्ज निभाकर परिवार को लेकर चलती है वह अपने आप में बेहद कठिन कार्य होता है। इसके बाद यदि किसी कारण वश पति पत्नि का साथ छोड़ देता है तो उसके बाद विवाहित महिला का जीवन जीना कितना मुश्किल हो जाता है।
तो उसके बाद पुरूष वर्ग के लिये विवाह करना तो बहुत आसान होता है
गृहणी के साथ साथ यदि वे बाहरी कर्तव्य निभाती है तो उसे भी परिवार के साथ साथ अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाती है। सामाजिक बंधनों में सबसे ज्यादा दिक्कत तब होती है जब यदि कोई महिला को विवाह के पश्चात उसका पति यदि छोड़ देता है तो उसके बाद पुरूष वर्ग के लिये विवाह करना तो बहुत आसान होता है लेकिन वहीं महिलाआें के लिये यह बेहद कठिन कार्य होता है आखिर ऐसा क्यों ? यह समाजिक बुद्धिजीवियों के लिये ज्वलंत प्रश्न है जिसका जवाब बहुत सरल तो है लेकिन कोई इस प्रश्न को सरलता के साथ हल नहीं करना चाहता है। वरन पुरूष वर्ग के साथ साथ अन्य कुछ पारिवारिक महिलायें भी मिलकर इसे पेचीदा कठिन या न हल होने वाला प्रश्न बना देते है।
पुरूष वर्ग के साथ साथ महिलायें भी उतनी चिंतित नहीं होती है आखिर क्यों ?
सामाजिक रीति रिवाज हो या स्वयं की पसंद किया गया विवाह हो यदि विवाह होने के पश्चात कुछ समय बाद ही पति जीवित न रहे तो विवाहित पत्नि को दूसरा विवाह करने में बहुत समय लग जाता है लेकिन वहीं यदि पत्नि जीवित न रहे तो विवाहित पति के लिये दूसरा विवाह करने में ज्यादा समय नहीं लगता है, उसके परिवार के पुरूष वर्ग के साथ साथ महिला सदस्य ही चिंतित रहती है कि किसी भी तरह जल्द से जल्द विवाह हो जाये। इस दौरान पति का दूसरा का विवाह तो हो ही जाता है उसमें न कोई समाजिक बंधन नियम आड़े आते है न ही कोई ज्यादा दिक्कत परेशानी आती है। वहीं यदि हम बात करें महिला की तो उन्हें दूसरा विवाह करने के लिये पुरूष वर्ग के साथ साथ महिलायें भी उतनी चिंतित नहीं होती है आखिर क्यों ? इस तरह कई ऐसे प्रमाण आपको मिल जायेंगे जहां पर नवविवाहिता के पति जीवित नहीं रहने पर जीवन भर बिना दूसरा विवाह के ही जीवन व्यतीत करना पड़ा है।
विवाहित महिला अपना जीवन दु:ख के साये में जीवन व्यतीत करती है ऐसा क्यों होता है ?
समाजिक नियमों की जंजीरों में आखिर महिलायें ही क्यों जकड़ी जाती है, आखिर इसके लिये पुरूष वर्ग कहां तक जिम्मेदार है। इस पर चिंतन मंथन करने की आवश्यकता है। विवाहित महिला का साथ छोड़ने वाला पुरष वर्ग क्या इसके लिये जिम्मेदार नहीं है। विवाहित महिला को छोड़कर अपना जीवन सुखी जीवन वाले पुरूष वर्ग तो अपना सुखमय जीवन व्यतीत करता है लेकिन वहीं वहीं विवाहित महिला अपना जीवन दु:ख के साये में जीवन व्यतीत करती है ऐसा क्यों होता है। जब भारत देश में महिलाओं का संवैधानिक अधिकारों के साथ साथ जब देवी स्वरूप मानकर पूजा जाता है तो उन्हें इस तरह समाजिक नियमों में बांधना कहां तक उचित है।
विवेक डेहरिया,
संपादक दैनिक गोंडवाना समय,
विशेष संपादकीय,