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गैर-आदिवासी लड़कियां संपत्ति की हकदार, तो आदिवासी बेटियां क्यों नहीं ?

 गैर-आदिवासी लड़कियां संपत्ति की हकदार, तो आदिवासी बेटियां क्यों नहीं ?

आदिवासी बेटी पिता की प्रॉपर्टी की समान हकदार पर सुप्रीम कोर्ट ने पूछा सवाल  


नई दिल्ली। गोंडवाना समय। 

आदिवासी महिलाओं के उत्तराधिकार से जुड़े प्रकरण पर शुक्रवार को माननीय सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जब गैर-आदिवासी की बेटी पिता की प्रॉपर्टी में समान हिस्से की हकदार है तो आदिवासी बेटी को इस तरह के अधिकार से वंचित करने का कोई कारण नहीं है।
            


सुनवाई के दौरान कोर्ट ने केंद्र को इस मुद्दे की जांच करने और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के प्रोविजन में संशोधन करने पर विचार करने का निर्देश दे दिया है। शीर्ष अदालत का यह निर्देश उस याचिका को खारिज करने के फैसले में आया है कि क्या अनुसूचित जनजाति से संबंधित एक बेटी, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के प्रोविजन के तहत सर्वाइवरशिप के आधार पर एक्यूर्ड लैंड के संबंध में मुआवजे में हिस्सेदारी की हकदार है।

आवश्यक हो तो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के प्रोविजन में संशोधन करे

जस्टिस एमआर शाह की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा-केंद्र सरकार के लिए इस मामले को देखने का सही समय है और यदि आवश्यक हो तो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के प्रोविजन में संशोधन करे। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत अनुसूचित जनजाति की महिला को जीवित रहने के अधिकार से वंचित करने का कोई औचित्य नहीं है।
        माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत के संविधान, जिसके तहत समानता के अधिकार की गारंटी है लेकिन आजादी के 70 साल बाद भी आदिवासियों की बेटी को समान अधिकार से वंचित किया जा रहा है। केंद्र सरकार के लिए इस मामले को देखने का सही समय है और यदि आवश्यक हो, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के प्रोविजन में संशोधन करना चाहिए।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर लागू नहीं होता है

हम आपको बता दे कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 2(2) के मुताबिक, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर लागू नहीं होता है। ऐसे में अनुसूचित जनजाति की बेटियां पिता की संपत्ति की हकदार बनने से वंचित रह जाती हैं। कोर्ट ने पाया कि संविधान के अस्तित्व में आने के 70 साल बाद भी आदिवासी महिलाओं को पिता की संपत्ति पर समान अधिकार से वंचित रखा जा रहा है।

क्या कहता है हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम तब लागू होता है, जब किसी हिंदू की बिना वसीयत छोड़े ही मृत्यू हो जाती है। इसके बाद उत्तराधिकार कानून के नियमों पर ही निर्भर करता है। उत्तराधिकार शब्द का इस्तेमाल विशेष रूप से उत्तराधिकार के संदर्भ में किया जाता है।
             एक शख्स की मृत्यू पर उसकी संपत्ति, टाइटल, लोन और दायित्व के वारिस हो सकते हैं लेकिन अलग-अलग सोसाइटीज विरासत को लेकर अलग-अलग व्यवहार करते हैं। वास्तविक और अचल संपत्ति को अक्सर विरासत के रूप में माना जाता है।

जानिए क्यों आदिवासी बेटियों को नहीं मिलता प्रॉपर्टी में अधिकार

आदिवासी जनजातीय सामाजिक व्यवस्था थोड़ी अलग होती है, सामान्यत: आदिवासी समाज महिला प्रधान होता है, अपने अलग समाज के लिए जनजातीय लोग अपने अलग कानून नियम को मानते है जिसे आदिवासी कस्टमरी कानून कहा जाता है।
        आदिवासी कस्टमरी कानून के तहत अगर आदिवासी दंपती को पुत्र नहीं है तो उनकी संपत्ति के उत्तराधिकारी उस परिवार के निकटतम पुरुष संबंधी होंगे। आदिवासियों के 24 समूहों में इस कानून के तहत आदिवासी बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार से वंचित रखा गया है। बता दें आदिवासियों पर आईपीसी व सीआरपीसी लागू नहीं होती, आईपीसी सेक्शन 5 में साफ लिखा है कि इस अधिनियम की कोई बात स्थानीय विधि और विशेष विधि को प्रभावित नहीं करेगी।
            यहां स्थानीय विधि से मतलब आदिवासियों के कस्टमरी लॉ से है जिसे कोर्ट भी मान्यता देती है। मतलब भारत में दो तरह के लॉ चलते हैं। पहला जनरल और दूसरा कस्टमरी, इसी कास्टमरी लॉ के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया और केंद्र को निर्देश दिया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के अंतर्गत आदिवासी बेटियों को भी लाया जाय। अब तक एक आदिवासी स्त्री को पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता, जो कि कस्टमरी लॉ है।
                 परिवार चाहे तो उपहार के तौर पर या दया करके उसे जमीन पर हिस्सा दे सकते हैं,परंतु लड़की किसी भी तरह से कोर्ट में जाकर संपत्ति में हिस्सा की मांग नहीं कर सकती। अगर किसी तरह से लड़की संपत्ति में हिस्से की मांग करती है तो कस्टमरी ला (रुढि, प्रथा) का हवाला देने पर कोर्ट परिवार के हित में ही फैसला सुनाएगी।
             ऐसे में पिता की संपती पुत्री को न मिलकर परिवार के बेटे अगर बेटे ना हुए तो कोई भी निकट पुरुष संबंधी ले जाएगा। इसका एक कारण यह भी है कि आदिवासी समाज में जमीन का बड़ा ही महत्व होता है और लड़की यदि गैर-आदिवासी से शादी करती है तो जमीन भी उन शर्तों में गैर-आदिवासी के पास चली जाएगी इसलिए आदिवासी समाज में लड़की को पैतृक संपत्ति में हिस्सा देना वर्जित है यहां पर भी कस्टमरी लॉ सामान्य कानून से पृथक है जो बेटी को पिता की संपत्ति से बेदखल करता है। 

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