श्रद्धा की भीड़ या मौत का मेला?
"क्यों बार-बार दोहराई जाती हैं भगदड़ की त्रासदियाँ : नीति, नियति या नीयत?"
हर बार एक जैसी हेडलाइन, हर बार एक जैसे आँकड़े—'धार्मिक स्थल पर भगदड़, दर्जनों घायल, कई की मौत' और हर बार वही सवाल: आखिर क्यों नहीं सीखता हमारा तंत्र? क्या श्रद्धालुओं की जान इतनी सस्ती है कि हर धार्मिक आयोजन शोकसभा में बदल जाए? क्या हम भीड़ को केवल 'आस्था' समझ कर उसकी गंभीरता को नजरअंदाज कर देते हैं?
27 जुलाई 2025 को हरिद्वार के मनसा देवी मंदिर में हुई भगदड़, जिसमें 6 श्रद्धालु मारे गए और 30 से अधिक घायल हुए, इसी क्रूर परंपरा की एक और कड़ी है। दरअसल रविवार सुबह लगभग 9 बजे, मनसा देवी मंदिर की चढ़ाई वाली पैदल सीढ़ियों पर आगंतुकों की भारी भीड़ मची, जिससे भगदड़ हुई। नतीजा ये रहा कि रिपोर्ट्स के अनुसार 6 लोगों की मौत हुई, जबकि 29-35 लोग घायल हुए। कुछ स्रोतों में 8 मृतकों के भी उल्लेख हैं, लेकिन अधिकारियों की आधिकारिक पुष्टि ज्यादातर 6 मृतकों पर आधारित है। "क्यों बार-बार दोहराई जाती हैं भगदड़ की त्रासदियाँ : नीति, नियति या नीयत?"
इसका कारण - चश्मदीद और स्थानीय लोगों ने बताया कि किसी ने सीढ़ियों के पास बिजली का तार टूटने या करंट लगने की अफवाह फैलाई, जिससे लोगों में डर उठा और भगदड़ हुई। हालांकि, उत्तराखण्ड बिजली निगम ने स्पष्ट किया कि उस समय बिजली आपूर्ति सामान्य थी और किसी करंट की घटना नहीं हुई।
प्रशासनिक कार्रवाई के तहत मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने दुख व्यक्त किया और प्रभावित परिवारों को रू2‑2 लाख व घायल लोगों को रू50 000 सहायता देने की घोषणा की। प्रदेश सरकार ने भी मजिस्ट्रियल जांच का आदेश दिया और अफवाह फैलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई की चेतावनी दी गई।
इससे ठीक पहले, उत्तर प्रदेश के हाथरस में जुलाई 2024 में एक धार्मिक 'सत्संग' के दौरान 121 लोग दम घुटने और भगदड़ में मारे गए, जिसमें अधिकतर महिलाएं और बच्चे शामिल थे। इसी वर्ष प्रयागराज में कुम्भ मेले में 30 से अधिक श्रद्धालुओं की मौत की खबर आई, तो आंध्र प्रदेश, गोवा और बेंगलुरु में भी मंदिरों और धार्मिक आयोजनों के दौरान भगदड़ हुई।
इसी क्रम में, 2023 में मध्यप्रदेश के सीहोर जिले में रुद्राक्ष वितरण कार्यक्रम के दौरान भी भयानक भगदड़ हुई। कार्यक्रम स्थानीय धार्मिक संस्थान द्वारा आयोजित था, लेकिन व्यवस्था पूरी तरह फेल रही। अगर पिछले 10 वर्षों का डाटा देखें, तो यह केवल इक्का-दुक्का घटनाएं नहीं हैं, बल्कि हर साल 3-4 बड़ी भगदड़ होती हैं।
- 2013 में मध्यप्रदेश के रत्नगढ़ माता मंदिर में हुई भगदड़ में 115 श्रद्धालु मरे थे।
- 2013 में ही कुंभ मेले (इलाहाबाद) में रेलवे स्टेशन पर भगदड़ से 36 लोग मारे गए।
- 2022 में वैष्णो देवी मंदिर (ख&ङ) में नए साल के अवसर पर 12 लोगों की जान चली गई।
- 2008 में जोधपुर और नैना देवी मंदिरों में क्रमश: 224 और 146 श्रद्धालु मरे थे।
इन घटनाओं में एक पैटर्न है—और वह है 'संवेदनहीन व्यवस्था'
अधिकांश मामलों में भीड़ पहले से अनुमानित थी। आयोजन स्थल छोटे थे, निकासी मार्ग सीमित थे, और प्रबंधन के नाम पर केवल मंदिर समिति या स्थानीय पुलिस बल मौजूद थी। अफवाहें, जैसे बिजली गिरना, करंट लगना, या टेंट गिरना—बार-बार इनका कारण बनती हैं, और जब प्रशासन की कोई स्पष्ट सूचना या मार्गदर्शन नहीं होता, तो डर भीड़ में मौत बन जाता है।
प्रश्न यह नहीं कि "भगदड़ क्यों होती है?" — इसका उत्तर अब सबको पता है।
प्रश्न यह है कि क्यों हर बार होने दी जाती है?
- क्या सरकार और प्रशासन को पता नहीं कि एक विशेष तिथि या पर्व पर लाखों की संख्या में लोग एकत्र होंगे?
- क्या मंदिर प्रशासन, जिला अधिकारी, राज्य सरकार और पुलिस एक दूसरे को जिम्मेदार ठहराकर मुक्त हो सकते हैं?
- क्या श्रद्धालु खुद कभी यह सोचते हैं कि उनके अंधविश्वास या अव्यवस्थित भागीदारी से जान जा सकती है?
इसमें संदेह नहीं कि आस्था भारतीय जनमानस का सबसे बड़ा स्तंभ है, लेकिन क्या वह इतनी अंधी हो कि जीवन की कीमत पर भी पीछे न हटे? आज के समय में जब हर छोटे आयोजन में टेक्नोलॉजी का उपयोग हो रहा है, वहाँ मंदिरों में भीड़ प्रबंधन, उउळश्, आपातकालीन निकासी योजना, और स्मार्ट टिकटिंग सिस्टम क्यों नहीं हो सकता?
हर बड़ी भगदड़ एक त्रासदी नहीं, एक सबक है
दुर्भाग्य यह है कि हम न त्रासदी रोक पा रहे हैं, न सबक सीख पा रहे हैं। यह केवल श्रद्धालुओं की नहीं, बल्कि हमारे संविधानिक तंत्र, स्थानीय शासन, धार्मिक ट्रस्टों, और हम सबकी सामूहिक असफलता है। जब भी कोई माँ अपने बच्चे को भगदड़ में खोती है, कोई बुजुर्ग दम घुटने से मरता है, कोई श्रद्धालु किसी के पैरों के नीचे कुचला जाता है—तो हमें एक बार फिर यह पूछना चाहिए: क्या हम भीड़ की तैयारी कर रहे हैं, या लाशों की गिनती?
समाधान की दिशा में कुछ जरूरी कदम
-हर बड़े धार्मिक स्थल पर भीड़ नियंत्रण प्रशिक्षण और ठऊफऋ की तैनाती।
-आॅनलाइन दर्शन स्लॉट और टोकन व्यवस्था।
-अफवाह फैलाने पर सख्त कार्रवाई और अफवाह-रोधी सूचना चैनल की व्यवस्था।
-धार्मिक आयोजनों से पूर्व सुरक्षा मॉक ड्रिल अनिवार्य।
-सजा और जवाबदेही तय हो—मंदिर ट्रस्ट हो या जिला कलेक्टर।
-श्रद्धालुओं को भी चेतना और सतर्कता अपनाने की शिक्षा दी जाए।
आखिर कब तक?
क्या इन सबके लिए केवल श्रद्धालु जिम्मेदार हैं? क्या अंधभक्ति, भीड़ मानसिकता और "सब कुछ भगवान देख लेंगे" की सोच लोगों को मौत के मुंह में भेज रही है? या फिर असली दोष प्रशासन, आयोजकों, धार्मिक ट्रस्टों और सरकार का है जो हर बार चेताने के बाद भी निष्क्रिय रहते हैं?
हमारे पास टेक्नोलॉजी है, NDRF है, भीड़ नियंत्रण की वैश्विक नीतियाँ हैं—तो फिर क्यों नहीं लागू होतीं ये धार्मिक स्थलों पर? हर बड़ा धार्मिक स्थल एक आपदा संभावित क्षेत्र बन चुका है, और हर आयोजन संभावित मौत का न्योता। क्या इन सबके लिए केवल श्रद्धालु जिम्मेदार हैं? क्या अंधभक्ति, भीड़ मानसिकता और "सब कुछ भगवान देख लेंगे" की सोच लोगों को मौत के मुंह में भेज रही है? या फिर असली दोष प्रशासन, आयोजकों, धार्मिक ट्रस्टों और सरकार का है जो हर बार चेताने के बाद भी निष्क्रिय रहते हैं?
यह कहना आसान है कि "जो होना था हो गया, भगवान की मर्जी़ थी"। या "भगदड़ में जो मरे हैं उन्हें मोक्ष मिला है" लेकिन क्या भगवान की मर्ज़ी इतनी क्रूर होती है कि वो अपने भक्तों को एक-दूसरे के पैरों तले कुचलवा दे? नहीं... यह हमारी व्यवस्था, हमारी निष्क्रियता और हमारी सामूहिक असंवेदनशीलता है, जो बार-बार मौत को न्यौता देती है।
अब वक़्त आ गया है कि हम आस्था और व्यवस्था के बीच एक संतुलन बनाएं। वरना अगली बार जब आप किसी मेले, मंदिर, या सत्संग में जाएं—आपके परिवार का कोई सदस्य भी उस सूची में हो सकता है...
जिसे सिर्फ श्रद्धा नहीं, अव्यवस्था ने मारा होगा।