शोषित-पीड़ितों को समानता व सम्मान के लिये काशीराम जी का संघर्ष
शोषितों को राजनीति में सक्रिय होने का श्रेय बिना किसी संदेह कांशीराम को जाता है
काशीराम जी के जन्म दिन पर विशेष
मान्यवर कांशीराम जी भले ही बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जी की तरह चिंतक और बुद्धिजीवी ना हों लेकिन इस बारे में कई तर्क दिए जा सकते हैं कि कैसे अंबेडकर के बाद कांशीराम ही थे जिन्होंने भारतीय राजनीति और समाज में एक बड़ा परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया । बेशक बाबा सहाब अंबेडकर जी ने समानता व सबको सम्मान से जीने के लिये संविधान प्रस्तुत किया लेकिन ये कांशीराम ही थे जिन्होंने इसे राजनीति के धरातल पर उतारा है। कांशीराम जी का जन्म 15 मार्च 1934 पंजाब (भारत) एक दलित परिवार में हुआ था । उन्होंने बीएससी की पढ़ाई करने के बाद क्लास वन अधिकारी की सरकारी नौकरी किया आजादी के बाद से ही आरक्षण होने के कारण सरकारी सेवा में दलित कर्मचारियों की संस्था होती थी । कांशीराम ने दलितों से जुड़े सवाल और अंबेडकर जयंती के दिन अवकाश घोषित करने की मांग उठाया था ।वर्ष 1981 में डीएस 4 की स्थापना किया था
वर्ष 1981 में उन्होंने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति या डीएस 4 की स्थापना किया था 1982 में उन्होंने 'द चमचा एज' लिखा जिसमें उन्होंने उन दलित नेताओं की आलोचना किया था मुख्यधारा की पार्टी के लिए काम करते है । वर्ष 1983 में डीएस 4 ने एक साइकिल रैली का आयोजन कर अपनी ताकत दिखाई थी और इस रैली में लगभग तीन लाख लोगों ने हिस्सा लिया था। वर्ष 1984 में उन्होंने बीएसपी की स्थापना किया तब तक कांशीराम जी पूरी तरह से एक पूर्णकालिक राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता बन गए थे उन्होंने तब कहा था कि अंबेडकर जी किताबें इकट्ठा करते थे लेकिन मैं लोगों को इकट्ठा करता हूं उन्होंने तब मौजूदा पार्टियों में दलितों की जगह की पड़ताल की और बाद में अपनी अलग पार्टी खड़ा करने की जरूरत महसूस किया वो एक चिंतक भी थे और जमीनी कार्यकर्ता भी, कांशीराम जी का मानना था कि अपने हक के लिए लड़ना होगा, उसके लिए गिड़गिड़ाने से बात नहीं बनेगी। इसीलिए कि कांशीराम की विरासत आज भी जिदा है और बेहतर कर रही है।मुझे राष्ट्रपति नहीं प्रधानमंत्री बनना है
डॉ बीआर अंबेडकर के बाद दलितों के संभवत: सबसे बड़े नेता कांशीराम का जन्मदिन है । कांशीराम के जीवन की एक घटना और उद्देश्य दोनों से गहरा संबंध है । कहते हैं कि एक बार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कांशीराम को राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन कांशीराम ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया. उन्होंने कहा कि वे राष्ट्रपति नहीं बल्कि प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं । जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी का नारा देने वाले कांशीराम सत्ता को दलित की चौखट तक लाना चाहते थे । वे राष्ट्रपति बनकर चुपचाप अलग बैठने के लिए तैयार नहीं हुए। यह किस्सा पहले भी बताया जाता रहा है लेकिन इस पर खास चर्चा नहीं हुई कि आखिर अटल बिहारी वाजपेयी कांशीराम को राष्ट्रपति क्यों बनाना चाहते थे । कहते हैं कि राजनीति में प्रतिद्वंद्वी को प्रसन्न करना उसे कमजोर करने का एक प्रयास होता है । जाहिर है वाजपेयी इसमें कुशल होंगे ही लेकिन जानकारों के मुताबिक वे कांशीराम को पूरी तरह समझने में थोड़ा चूक गए । वरना वे निश्चित ही उन्हें ऐसा प्रस्ताव नहीं देते, वाजपेयी के प्रस्ताव पर कांशीराम की इसी अस्वीकृति में उनके जीवन का लक्ष्य भी देखा जा सकता है । यह लक्ष्य था सदियों से गुलाम दलित समाज को सत्ता के सबसे ऊंचे ओहदे पर बिठाना । उसे फर्स्ट अमंग दि इक्वल्स बनाना । जिन्हें कांशीराम चमचाकहते थे उनके मुताबिक ये चमचे वे दलित नेता थे जो दलितों के स्वतंत्रता संघर्ष में दलित संगठनों का साथ देने के बजाय पहले बड़े राजनीतिक दलों में मौके तलाशते रहे ।द चमचा एज में लिखा चमचाओं की विशेषाएं
कांशीराम ने लिखा है औजार, दलाल, पिट्ठू अथवा चमचा बनाया जाता है सच्चे, खरे योद्धा का विरोध करने के लिए । जब खरे और सच्चे योद्धा होते हैं चमचों की मांग तभी होती है । जब कोई लड़ाई, कोई संघर्ष और किसी योद्धा की तरफ से कोई खतरा नहीं होता तो चमचों की जरूरत नहीं होती, उनकी मांग नहीं होती । प्रारंभ में उनकी उपेक्षा की गई किंतु बाद में जब दलित वर्गों का सच्चा नेतृत्व सशक्त और प्रबल हो गया तो उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकी ।अब कभी घर वापस नहीं आऊंगा
1958 में ग्रेजुएशन करने के बाद कांशीराम ने पुणे स्थित डीआरडीओ में बतौर सहायक वैज्ञानिक काम किया था। इसी दौरान अंबेडकर जयंती पर सार्वजनिक छुट्टी को लेकर किए गए संघर्ष से उनका मन ऐसा पलटा कि कुछ साल बाद उन्होंने नौकरी छोड़कर खुद को सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष में झोंक दिया । अपने सहकर्मी डीके खरपडे के साथ मिलकर उन्होंने नौकरियों में लगे अनुसूचित जातियों -जनजातियों, पिछड़े वर्ग और धर्मांतरित अल्पसंख्यकों के साथ बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एंप्लायीज फेडरेशन (बामसेफ) की स्थापना किया । यह संगठन आज भी सक्रिय है और देशभर में दलित जागरूकता के कार्यक्रम आयोजित करता है । वर्ष 1981 में कांशीराम ने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति की शुरूआत की जिसे डीएस4 के नाम से जाना जाता है । कांशीराम ने लाखों लोगों को अपने साथ जोड़ा । इसके लिए सैकड़ों किलोमीटर साइकल दौड़ाई और मीलों पैदल चले।ऐसे भी मौके आए जब उन्होंने फटी कमीज पहनकर भी दलितों की अगुवाई किया उन्हें नीली या सफेद कमीज के अलावा शायद ही किसी और रंग के कपड़े में देखा गया हो । 90 के दशक के मध्य तक कांशीराम की हालत बिगड़ने लगी थी, उन्हें शुगर के साथ ब्लड प्रेशर की भी समस्या थी । वष 1994 में उन्हें दिल का दौरा पड़ा । वर्ष 2003 में उन्हें ब्रेन स्ट्रोक हो गया । लगातार खराब होती सेहत ने वर्ष 2004 तक आते-आते उन्हें सार्वजनिक जीवन से दूर कर दिया । आखिरकार नौ अक्टूबर, 2006 को दिल का दौरा पड़ने से दलितों की राजनीतिक चेतना का मानवीय स्वरूप कहे जाने वाले इस दिग्गज की मृत्यु हो गई ।
कांशीराम ने केवल एक व्यक्ति के लिए कुछ नहीं किया । ये व्यक्ति वे खुद थे, घर त्यागने से पहले परिवार के लिए वे एक चिट्ठी छोड़ गए थे। इसमें उन्होंने लिखा था । अब कभी वापस नहीं लौटूंगा और वे सच में नहीं लौटे । न घर बसाया और न ही कोई संपत्ति बनाई, परिवार के सदस्यों की मृत्यु पर भी वे घर नहीं गए, परिवार के लोग कभी लेने आए तो उन्होंने जाने से इनकार कर दिया । संसार में ऐसे राजनीतिक व्यक्तित्व विरले ही हुए हैं जिन्होंने अपने संघर्ष से वंचितों को फर्श से अर्श तक पहुंचाया, लेकिन खुद के लिए आरंभ से अंत तक शून्य को प्रणाम करते रहे । कांशीराम ऐसी ही एक मिसाल हैं, वे संन्यासी नहीं थे लेकिन बहुत से लोग मानते हैं कि जीवन में कुछ त्यागने के प्रति जो समर्पण कांशीराम ने दिखाया, वैसा बड़े-बड़े संन्यासी भी नहीं कर पाते ।
उनके भाषणों और संवादों का लोगों पर जादूई असर होता था
दीवारों पर वाल पेंटिंग का नायाब तरीका भी कांशीराम जी का ही था। चुनाव में हार को लेकर कांशीराम बड़े ही गंभीर हो जाते थे उनका कहना था कि मैं चुनाव जीतने के लिए ही नहीं लड़ रहा हूं । कांशीराम ने फंड जुटाने के लिए लोगों से एक टाइम का खाना मांगा और कहा कि हम आपको आजादी देंगे। सामाजिक आजादी, उन्होंने सबसे पहले लोगों से अपील की कि जालिम की कुर्सी मंजूर नहीं । हम स्टूल पर बैठकर काम करेंगे क्यों कि जालिम की कुर्सी पर बैठने से सहारा तो मिलता है लेकिन इशारा भी मिलने लगता है। कांशीराम के जिस विचार ने लोगों पर सबसे बड़ा प्रभाव डाला । वह था कि वह कभी शादी नहीं करेंगे, कभी घर वापस नहीं जाएंगे, खुद के लिए पैसा-कौड़ी इकट्ठा नहीं करेंगे। खुद की कोई जमीन नहीं होगी। कांशीराम के इस विचार पर हजारों नौजवानों ने अपनी जिंदगी को सामाजिक परिवर्तन के लिए झोंक दिया। कांशीराम एक युगपुरुष थे। उनका मत था कि हम दलितों की बात नहीं करेंगे। दलित की वकालत कर हम डेमोक्रेटिक रूप से कमजोर हो जाएंगे। वो कहते थे कि हम भारत के मूल निवासी हैं। जो लोग दलित कहते है, इसके पीछे एक साजिश है। साजिशकतार्ओं की कोशिश है कि जो भी कमजोर तबकों की बेहतरी की बात करे, उसे दलित घोषित कर दो। क्यों कि दलित तो 22 फीसदी है । साजिशकतार्ओं को डर है कि कहीं बहुजन समाज एक जुट हो गया तो हम सत्ता से बाहर हो जाएंगे। कांशीराम ने कहा कि हमारा लक्ष्य तो 6 हजार पिछड़ी जातियों को जोड़ना है। अगर हम एक हजार जातियों को जोड़ने में भी कामयाब हो गए तो हम एक रूलर क्लास होंगे।कांशीराम ने कहा कि हमें बहुजन की बात करनी चाहिए। कांशीराम में बिखरे समाज को एक जुट करने की जो आग थी वो काबिले तारीफ थी । वो लोगों को एक ही मंच पर देखना चाहते थे यही वजह थी कि वह कभी भी कहीं भी लोगों से मिलने को तैयार रहते और मिलकर एक जुट होने की अपील करते । उनके भाषणों और संवादों को लोगों पर जादुई असर होता था। कांशीराम को दलितों का नेता जो लोग मानते हैं वो षड्यंत्रकारी हैं। कांशीराम हकीकत में कभी दलित नेता थे ही नहीं, वो बहुजन नेता थे। वो विरोधियों से सीधे नहीं टकराते थे और न ही अपने साथियों को किसी आंदोलन की आग में झोकते थे, यही वजह है कि कभी भी कांशीराम के उपर कोई आरोप नहीं लगा पाया। और न ही कोई ऐसा हादसा हुआ जिससे कांशीराम का आंदोलन सवालों के घेरे में आया हो। कांशीराम बहुजन समाज के मसीहा थे।