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इतिहास में इतनी बर्बर और अमानवीय सजा कभी किसी को नहीं मिली, फिर भी देशभक्त पिता-पुत्र ने हंसते-हंसते दिया था बलिदान

इतिहास में इतनी बर्बर और अमानवीय सजा कभी किसी को नहीं मिली, फिर भी देशभक्त पिता-पुत्र ने हंसते-हंसते दिया था बलिदान 

गोंडवाना की शान राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह की बलिदान गाथा

इनकी ओजपूर्ण कविताओं से आम जनमानस में गजब की देश भक्ति की भावना होती थी संचारित 

इसलिए तो गोंडवाना को कोइतूर भारत का दिल भी कहा जाता था


18 सितंबर बलिदान दिवस पर विशेष लेख
डॉ सूर्या बाली सूरज धुर्वे

भारत के मध्य में स्थित गोंडवाना के गढ़ और किले अपनी ऐतिहासिक गौरव और संपन्नता के लिए पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। इसलिए तो गोंडवाना को कोइतूर भारत का दिल भी कहा जाता था। गोंडवाना साम्राज्य की सैकड़ों गढ़ और किलों में बंटा हुआ था इन्ही गढ़ों में से एक था गढ़ा मंडला जिसकी कीर्ति, शासन प्रशासन, धन दौलत, वीरता, वैभव और सुंदरता के किस्से मुगलों, मराठाओ और अंग्रेजों सहित सभी को आकर्षित करती थी। इस गढ़ में कोइतूरों के मड़ावी गोत्र का डंका बजता था और उन दिनों सबसे महान गढ़ के रूप में जाना जाता था। इस गढ़ की नीव कोइतूर राजा संग्राम शाह ने रखी थी, जो रानी दुर्गावती के ससुर थे। जब रानी दुर्गावती मुगलों से पराजित हुई तब यह गढ़ मुगलों के हाथ आया। जिस पर अकबर का शासन चलता था और यहाँ के गोंड राजा मुगलों के मातहत राज्य संचालन का कार्य करते थे और एक मोटी रकम लगान के रूप में चुकता करते थे।

और इतिहास के पन्नों में उनका नाम क्यूँ अमर हो गया? 

गढ़ मंडला के गोंड राजाओं की कई पीढ़ियाँ इस तरह मुगलों के अधीन मंडला की गद्दी पर आसीन रही और किसी तरह अपनी रियासत का बचाव करने में सफल हुई। इसके बाद पेशवा और मराठाओं ने भी इन रियासतों पर जुल्म किया और इनकी अकूत धन संपत्ति लूट खसोट कर ले गए। फिर दौर आया अंग्रेजों का और इस रियासत के अंतिम राजा महाराजा अंग्रेजों की सरपरस्ती में पेंशनर बन गए और इन्ही पेंशनर राजाओ में से से एक थे राजा शंकर शाह और उनके बेटे रघुनाथ शाह। आइये पहले जान लेते थे हैं कि इन पिता पुत्र की क्या खासियत थी। जो इन्हे अन्य राजाओं से अलग लाकर खड़ा कर दिया और इतिहास के पन्नों में उनका नाम क्यूँ अमर हो गया?

इसलिए इस क्रांति को भारतीय स्‍वतंत्रता के इतिहास का पहला संग्राम कहा जाता है

भारत की जनता पर अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचार और दमन, डलहौजी की हड़प नीति, कारतूसों में सुअर और गाय की वसा से निर्मित कारतूस और अन्य बहुत से कारणों के कारण 9 मई वर्ष 1857 को मेरठ सैनिक छावनी के भारतीय सिपाहियों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी थी। जल्‍दी ही बगावत की चिंगारी अन्य शहरों और राज्यों में फैल गयी । जो ब्रिटिश शासन के लिए एक गंभीर चुनौती बन गयी। मेरठ, लखनऊ, झाँसी, ग्वालियर, सागर होते हुए यह क्रांति की ज्वाला जबलपुर पहुंची थी। जबलपुर में इस क्रांति को हवा दी वहाँ के राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह ने, हालांकि ब्रिटिश शासन इस क्रांत की चिंगारी को एक वर्ष के अंदर ही दबाने में सफल रहा। फिर भी यह एक ऐसी लोकप्रिय क्रांति थी, जिसमें भारतीय शासक, जनसमूह और नागरिक सेना शामिल थी। इसलिए इस क्रांति को भारतीय स्‍वतंत्रता के इतिहास का पहला संग्राम कहा जाता है और इसी क्रांति से जन्म होता है एक महान स्वतन्त्रता सेनानी शंकर शाह और उनके बेटे रघुनाथ शाह का।

आखिर कौन थे शंकर शाह और रघुनाथ शाह?

राजा शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह गोंडवाना के गढ़ा मंडला के मड़ावी वंश के राजा और राजकुमार थे । जिंहोने मध्य भारत के जबलपुर में 1857 की क्रांति का आगाज किया था। राजा शंकर शाह गोंडवाना के सर्वश्रेष्ठ प्रतापी कोइतूर राजा संग्राम शाह के वंशज थे। मड़ावी वंश का भारत में सबसे लंबे समय तक(1400 वर्षों) शासन करके का इतिहास रहा है।  इस वंश के सबसे प्रतापी राजा संग्राम शाह थे। राजा संग्राम शाह के बडेÞ पुत्र दलपतिशाह की पत्नी का नाम रानी दुर्गावती था। जिंहोने अकबर से लोहा लिया था। जिनकी वीरता के किस्से कहानिया हम सुनते आयें है।  रानी दुर्गावती और उनके पुत्र वीरनारायण के वीरगति प्राप्त होने के पश्चात गढ़मंडला का साम्राज्य अकबर के अधीन हो गया। मुगल बादशाह का उद्देश्य मुगल साम्राज्य का विस्तार था। इसलिए उसने अपनी अधीनता में शासन के लिए दलपतिसाह के छोटे भाई चंन्द्रशाह को गढ़मंडला का राजा बनाया। इसी चन्द्र शाह को 11 पीढ़ी के रूप में शहीद राजा शंकर शाह ने जन्म लिया था। जो इस वंश के अंतिम प्रसिद्ध राजा निजाम शाह के पौत्र एवं राजा सुमेद शाह  के पुत्र थे।

आज मध्य प्रदेश के दमोह जिले के सीलापरी गाँव में गुमनामी के अंधेरे में जीने को मजबूर हैं

राजा शंकर शाह का जन्म गढ़ मंडला रियासत के एक गोंड राज परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम राजा सुमेद शाह था। जो 1780 से 1818 ईस्वी तक गढ़ मंडला की राजगद्दी पर आसीन थे। इनके दादा का नाम राजा निजाम शाह था। वर्ष 1818 में पिता की मृत्यु के बाद राजा शंकर शाह (1818-1857)  नाम मात्र के राजा रह गए और अंग्रेजों के मातहत पेंशनर के रूप में रियासत में रहने लगे। राजा शंकर शाह का विवाह रानी फूलकुंवर से हुआ था और इनकी केवल एक संतान थी, जिसका नाम रघुनाथ शाह था। रघुनाथ का विवाह रानी मान कुँवर से हुआ था, जिनके एकमात्र पुत्र का नाम लक्ष्मण शाह था। वर्ष 1919 में राय बहादुर हीरा लाल ने जब दमोह स्थित सीलापरी गाँव का दौरा किया था तब  लक्ष्मण शाह के दो पुत्र कंकनशाह और खलक शाह बेहद तंगहाली और गरीबी में जी रहे थे। कभी गोंडवाना में अपने पराक्रम, धनसंपदा और वैभव का डंका बजाने वाले, 52 गढ़ों के मालिक संग्राम शाह के बंशज आज मध्य प्रदेश के दमोह जिले के सीलापरी गाँव में गुमनामी के अंधेरे में जीने को मजबूर हैं।

राजा संग्राम शाह का बचपन मंडला किले में, जवानी सागर के किले में और बुढ़ापा जबलपुर के किले में बीता

ये उनका दुर्भाग्य ही था कि वे कभी भी एक जगह स्थिर रूप से रह नहीं पाये। उन्हे कभी भोंसला राजाओ ने, कभी पेशवाओं ने तो कभी अंग्रेजों ने दर बदर किया।  शंकर शाह का जन्म मंडला के किले में हुआ था जो तीन तरफ से नर्मदा नदी से सुरक्षित था और उत्तर की तरफ से मानव निर्मित खाई थी जिससे केवल वही आ सकता था जिसे राजमहल के अधिकारी अनुमति देते थे। उनका बचपन बेहद अमीरी और ठाटबाट में बीता था। तैराकी, तलवारबाजी और धुड़सवारी की कलाओं में वो बहुत पारंगत थे। ये वह समय था जब पेशवा गोंडवाना पर अपना अधिकार जमा रहे थे और धीरे धीरे गोंडवाना के महल और किले अपने कब्जे में कर रहे थे। पेशवा और मराठाओं ने गोंडवाना में गढ़ा मंडला की सत्ता को अपने कब्जे में लेकर वहाँ के राजाओं को अपने आधीन राज्य चलाने की अनुमति दी थी। सागर स्थित पेशवा के प्रितनिधि विसाजी चाँदोरकर कि मदद से शंकर शाह के पिता राजा सुमेद शाह गढ़ा मंडला के राजा बने और शंकर शाह एक बार फिर से अपने पिता के साथ राजकीय कार्यों में बढ़ चढ़कर भाग लेने लगे और शशन प्रशासन के गुण सीखने लगे और इसी बीच उनका विवाह फूलकुंवर से हो गया।

ब्रिटिश सरकार उनके गुजरे भत्ते के लिए उन्हे देती थी पेंशन 

बात सन 1789 ईस्वी की है जब गढ़ मंडला के अंतिम राजा नरहरि शाह ने सुमेद सिंह (शंकर शाह के पिता) से सत्ता हथियाकर खुद दुबारा राजा बन बैठे और उसी समय अंग्रेजों ने गढ़ मंडला पर धावा बोला। चूंकि नरहरि शाह के कोई संतान नहीं थी, इसलिए उन्होने एक अनाथ बालक को गोद लिया और उसे नर्मदाबख्स नाम दिया। इसलिए उन्होने सुमेद शाह के पुत्र शंकर शाह को गोद लिया और उनकी 20 वर्ष की उम्र में आनन फानन में राजतिलक करवा कर गढ़ मंडला का राजा बनवा दिया। सन 1818 में गढ़ मंडला में अंग्रेजों का आगमन हुआ । राजा शंकर शाह अब पहले राजाओं की तरह स्वतंत्र रूप से राजा नहीं रहे बल्कि गढ़ मंडला का राज्य उनके हाथ से निकल कर अँग्रेजी हुकूमत के पास चला गया था और वे मात्र पेंशनर के रूप में रह रहे थे। गढ़ मंडला (जबलपुर) के करीब मात्र पुरवा की जागीरदारी ही उनके पास बची थी और वे वहीं रहते थे। ब्रिटिश सरकार उनके गुजरे भत्ते के लिए उन्हे पेंशन देती थी।

राजा शंकर शाह शौर्य, निर्भीकता, साहस और संकल्प के साक्षात प्रतिमूर्ति थे 

गढ़ मंडला के अंतिम पीढ़ी के इन पिता पुत्र की जोड़ी ने अपनी जान गँवाते हुए भी एक अमिट छाप छोड़ी और गोंडवाना को इतिहास के पन्नों में अमर कर दिया। भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के विद्रोह का नेतृत्व जबलपुर के राजा शंकरशाह के द्वारा किया गया था। राजा शंकर शाह शौर्य, निर्भीकता, साहस और संकल्प के साक्षात प्रतिमूर्ति थे जिंहोने  अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरूद्ध बगावत और विद्रोह के स्वर बुलंद किए। ऐसे निर्भीक देश प्रेमी बहुत कम मिलते हैं।  पिता पुत्र दोनों ही बहुत अच्छे कवि थे। इनकी ओजपूर्ण कविताओं से आम जनमानस में गजब की देश भक्ति की भावना संचारित होती थी। रात में अपने महल के आँगन में 52 वीं बटालियन के सैनिकों को अपनी कवितायें सुनाकर ही विद्रोह के लिए तैयार किए थे।

लार्ड डलहौजी की इसी नीति के कारण 1857 की क्रांति की हुई शुरूआत 

लार्ड डलहौजी ने ब्रिटिश साम्राज्य को बढ़ाने की नियत से एक नीति बनाई जिसे डोक्ट्राइन ऑफ़ लेप्स  (Doctrine of Lapse नाम से जाना जाता है। यह एक तरह से भारतीय राजाओं के राज्य को हड़पने की
नीति थी जिसके तहत जिन राजाओं का अपना आनुवांशिक पुरुष उतराधिकारी नहीं होता था । उसका राज्य ब्रिटिश राज में शामिल कर लिया जाता था। इस नीति से डलहौजी ने अवध, कानपुर, नागपुर, झांसी, जबलपुर  जैसे कई राज्यों को अंग्रेजों के अधीन कर लिया था। गढ़ा मंडला में भी गोंड राजा नरहरि शाह की कोई औलाद नहीं थी, इसलिए यहाँ पर भी अंग्रेजों की निगाह गढ़ा मंडला साम्राज्य पर अटक गयी थी।  लार्ड डलहौजी की इसी नीति के कारण राजाओं में असंतोष भड़का और 1857 की क्रांति की शुरूवात हुई।  भारतीय और ब्रिटिश दोनों ही पक्ष लार्ड डौलहौजी को 1857 की क्रान्ति के लिए जिम्मेदार मानते थे। वहीं 6 मार्च 1856 को लार्ड डलहौजी भारत से इंग्लॅण्ड लौट गए और उनके भारत छोड़ने के तुरंत बाद हुई, 1857 की क्रान्ति की गई थी। वर्ष 1857 कि महान क्रांति से जुड़े आरोपों और निंदा से जूझते हुए वर्ष 1860 में डलहौजी की मृत्यु हो गयी। इधर जबलपुर में भी बंगाल इन्फैन्ट्री की 52 वीं  बटालियन के सैनिक विद्रोह करने का मन बना चुके थे। जिसकी भनक असंतुष्ट राजा शंकर शाह को लगी उन्होने उस बटालियन के कुछ सैनिकों के साथ मंत्रणा की और उनके बगावती तेवर को और हवा दी।

गोंडवाना के अंतिम वीर सपूतों को मरवाने में अपने ही के मुखविरों का हाथ था

वर्ष 1857 की क्रांति के समय 52 वीं बटालियन के कमांडर के रूप में लेफ़्टिनेंट  कर्नल जैमिक्सन जबलपुर में कार्यरत थे और मेजर इरस्किन सागर और नर्मदा डिविजन के प्रमुख थे। राजमहल में तैनात एक ब्राह्मण पंडित और एक अन्य सिपाही ने शंकर शाह और 52 वीं बटालियन के सैनिकों के बीच की वार्ता को अंग्रेज अधिकारियों तक पहुंचाया। एक और मुखबिर जिसका नाम खुशालचंद था जो जाति से बनिया था, उसने भी राजमहल की महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील जानकारियाँ अंग्रेज अधिकारियों तक पहुंचाई और अंग्रेजों को भड़काया। इस तरह गोंडवाना के अंतिम वीर सपूतों को मरवाने में अपने ही देश के ब्राह्मण और बनियों का हाथ था।

अंग्रेजों ने राजा शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह को 14 सितंबर, 1857 को कर लिया था कैद 

वर्ष 1857 के सितंबर के प्रारंभ में 52 वीं बटालियन के कैप्टेन मोक्सन को इन्ही दोनों ने जानकारी पहुंचाई थी कि 52 वीं रेजिमेंट के कुछ सिपाही राजा शंकर शाह के कहने से विद्रोही तेवर अपनाए हुए हैं और शरारत कर रहे हैं और ये भी बताया कि 52 वीं बटालियन के आठ से दस सिपाही राजमहल जाकर लगातार गोंड राजा शंकर शाह से मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ षणयंत्र रच रहे हैं और जबलपुर छावनी में रहने वाले यूरोपियन अधिकारियों और उनके परिवारों की हमला करके हत्या करने और स्टेशन को लूटने का प्लान बना रहे हैं। इन लोगों के साथ जबलपुर के आसपास के कुछ असंतुष्ट मालगुजार भी शामिल हैं। इस सूचना के आधार पर अंग्रेजों की एक टुकड़ी ने राजा शंकर शाह के आवास का निरीक्षण किया । जिसमें राजा शंकर शाह के पास से कुछ भड़काने वाले दस्तावेज मिले । अंग्रेजी शासन के खिलाफ साजिश रखने और सेना में विद्रोह भड़काने के आरोप में राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह को 14 सितंबर, 1857 को कैद कर लिया गया। राजा शंकर शाह के सहयोगियों ने उन्हे जेल से छुड़ाने के लिए 15 सितंबर 1857 की रात के लिए एक प्लान बनाया था लेकिन किसी ने डिप्टी कमिशनर को सूचना दे दी। आठ सैनिकों ने कैदियों को छुड़ाने के लिए हमला भी किया और अंग्रेजों के बंगले जला दिये लेकिन मद्रास इंफेंटरी की टुकड़ी ने उस हमले को विफल कर दिया।  इस हमले में कुछ अंग्रेज सैनिक मारे गए और एक अंग्रेज अफसर का बंगला जला दिया गया था।

जिसमें अंग्रेजी हुकुमत को नष्टकर अंग्रेजों को सत्ताहीन करने की अर्चना की गई थी

राजा शंकरशाह की गिरफ्तारी पश्चात अंग्रेजी सैनिकों ने राजमहल में जमकर लूटपाट किया गया और सारा समान और अस्त्र शस्त्र अपने कब्जे में ले लिया। राजमहल से अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के ढेरों दस्तावेज मिले, जिसमें राजा शंकर शाह की लिखी हुई एक कविता भी लाल रंग के मखमल के कपड़े में लपेटी हुई मिली थी जो कुछ इस प्रकार से थी।
मूंद मुख दंडिन को, चुंगलों को बचाई खाई, खूंद डार दुष्टन को, शत्रु संघारिका । 
मार अंग्रेज रंज, कर देई मात चण्डी, बचै नहीं बैरी, बाल बच्चे संहारिका ॥
शंकर की रक्षा कर, दास प्रतिपाल कर, दीन की पुकार सुन, जाय मात हालिका । 
खायले मलेच्छन को, झैल नहीं करो मात, भच्छन कर तच्छन, दौर माता कलिका॥
इस कविता के द्वारा राजा शंकर शाह ने अपने आराध्य देवी कली कंकालिन की स्तुति की थी। जिसमें अंग्रेजी हुकुमत को नष्टकर अंग्रेजों को सत्ताहीन करने की अर्चना की गई थी। एक ब्राह्मण ने इस कविता का
अंग्रेजी में अनुवाद करके अंग्रेजों को बहुत डरा दिया जो कुछ इस प्रकार था ।

“The king, Shankar Shah, meditating on the terrible image of the Goddess Chandi says, “ Shut the mouths of slanderers; trample the sinners! Shatru Samharike ! Killer of enemies !) Listen to the cry of Religion ; support your slave. Makalike ! Kill the British ; exterminate them ; Mata Chandi ! ” etc. etc” .

इसी कविता के अंग्रेजी अनुवाद को आधार मानकर सजा सुनाई गई थी 

इसी कविता के अँग्रेजी अनुवाद को आधार मानकर जबलपुर के डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में एक डिप्टी कमिश्नर और दो अन्य अंग्रेज अधिकारियों से बने जांच आयोग के सामने शंकर शाह और रघुनाथ शाह की पेशी हुई और उनपर मुकदमा चला। उनपर अपराध साबित हुआ और देशद्रोह की सजा के लिए मृत्युदंड की सजा सुनाई गयी।  सजा पर तुरंत कार्यवाही सुनिश्चित की गयी और शंकर शाह और रघुनाथ शाह को 18 सितंबर, 1857 की सुबह जबलपुर छावनी में अलग अलग तोपों के मुंह पे बांध कर उड़ा दिया गया। जिससे उनके शरीर के चिथड़े चिथड़े हो गए और पूरा वातावरण दहशत से भर गया। भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में विद्रोही सेनानियों को तरह तरह की यतनाएँ और सजाएँ दी गयी हैं लेकिन इतिहास में इतनी बर्बर और अमानवीय सजा कभी किसी को नहीं मिली जबकि वे राजा थे कोई सामान्य खूंखार अपराधी या हत्यारे नहीं थे।

मृत्यु  के बाद का कोलाहल और विद्रोह 

जैसे ही पिता और पुत्र को तोप के मुंह से बांधकर उड़ाया गया, उसके तुरंत बाद ही 52 वीं बटालियन ने विद्रोह कर दिया। अंग्रेजों ने इस विद्रोह का विस्तार से जिक्र नहीं किया है लेकिन दामोदर विनायक सावरकर ने अपनी पुस्तक द इंडियन वार आफ इंडिपेंडेंस 1857 में बताया है कि सिपाही इतने उत्तेजित हो गए थे कि उन्होने एक अंगेज अधिकारी मैक ग्रेगर को गोलियो से भून डाला और कुछ सीधे युद्ध के लिए कूच कर दिया।

रानी फूलकुंवर ने अपने सीने में अपनी ही तलवार भोंक ली

राजा शंकर शाह की पत्नी और कुंवर रघुनाथ शाह की माँ रानी फूलकुंवर देवी के लिये तो जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा हो उन्होने अपने करीबी लोगों के साथ लाश के फैले हुए टुकड़ों को समेटा और दोनों का दाह संस्कार करके बदला लेने के लिए खुद निकल पड़ी। मदार्ना भेष में रानी फूल कुँवर ने अपने सैनिकों के साथ रहगढ़ किले को अपने अधिकार में किया और कई स्थानों पर अंग्रेजों को पीछे धकेला। अंग्रेजों ने उनके घोड़े का पीछा किया और घेर लिया। बड़ी ही वीरता के साथ वो लड़ी और कई अंग्रेज सिपाहियों को मौत के घाट सुला दिया। अंत में जब वो घोड़े से गिर गयी और अंग्रेजों ने घेर लिया तो अपने सीने में अपनी ही तलवार भोंक ली। रानी दुर्गावती के बाद गढ़ा मंडला की ये दूसरी महारानी थी जिसने ऐसी वीरता का परिचय दिया था। घायल अवस्था में उन्हे अग्रेजों की छावनी में लाया गया जहां उन्होने अपने प्राण त्याग दिये ।

ये परिवार जिस इज्जत और मान सम्मान का हकदार थे वह उन्हे कभी नहीं मिला 

इस तरह गढ़ा मंडला के अंतिम शासक और उनका परिवार देश को अंग्रेजों के शासन से मुक्त करने के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर दिया। लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि ऐसे महान मड़ावी वंश के अंतिम शासकों के साथ इतिहास ने कितना क्रूर अन्याय किया।  ये परिवार जिस इज्जत और मान सम्मान का हकदार थे वह उन्हे कभी नहीं मिला और उनके योगदान को इतिहास के पन्नों से मिटाकर विस्मृत कर दिया गया। आज जरूरत है ऐसे महान शहीदों को फिर से इतिहास के पन्नों पर जगह दिलवाने की और गोंडवाना के खोये हुए गौरव और स्वाभिमान को याद करने की। आइये आज राजा शंकर शाह उनके बेटे कुँवर रघुनाथ शाह और उनकी पत्नी वीरांगना रानी फूलकुँवर को नमन करे और उनके योगदान के लिए उन्हे याद करें और सेवा जोहार करते हुए उन्हे श्रद्धा सुमन अर्पित करें।

डॉ सूर्या बाली सूरज धुर्वे
प्रोफेसर, एम्स भोपाल
कोया पुनेमी चिंतनकार और जनजातीय मामलों के विशेषज्ञ 
मो. नं.- 8989988767


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