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मध्य प्रदेश की राजधानी में जनजातियों के लिये 50 मीटर की परिधि में क्यों लगे अलग-अलग बोर्ड ?

मध्य प्रदेश की राजधानी में जनजातियों के लिये 50 मीटर की परिधि में क्यों लगे अलग-अलग बोर्ड ?

आखिर कब आएगी कोइतूर में एकरूपता

विशेष संपादकीय
किसी मीटिंग के सिलसिले में गुरूवार को जनजातीय कार्य मंत्रालय श्यामला हिल्स भोपाल के अंदर जाना संभव हुआ था और वहां का नजारा देखकर मैं दंग रह गया कई दशकों से मेरे अंदर पल रही शंका का समाधान हो गया जैसे लगा कि मैं किसी चिड़ियाघर में आ गया हूं। जनजातीय कार्य मंत्रालय भारत सरकार अपने राज्य सरकार के कार्यकलापों से किस कदर बंटी हुई है कि जनजातियों के लिए गए बनाए गए मंत्रालयों के विभागों के लिए एक सही नाम तक तय नहीं कर पा रही है।

उसे समझ में ही नहीं आएगा कि उसके लिए कौन सा विभाग है?

इस तरह देखने में आया एक ही कैंपस में एक ही प्रांगण में किसी एक मानवीय समूह के लिए चार अलग-अलग बोर्ड मिले जो कि मुश्किल से 50 मीटर की परिधि में ही टांगे गए हैं। यहां आकर कोई भी सीधा साधा कोइतूर बेहोश हो जाएगा क्योंकि उसे समझ में ही नहीं आएगा कि उसके लिए कौन सा विभाग है? इन बातों से लगता है कि शोध किया जाएगा आदिम जातियों के ऊपर, पैसा जाएगा आदिवासियों के विकास के लिए और न्याय व्यवस्था होगी अनुसूचित जातियों के लिए और हां सबसे मजे की बात यह है कि एनजीओ काम करेंगे ट्राइब्स के लिए है ना मजेदार बात?

एक ही नाम से लिखा पढ़ा और पुकारा जाए ?

समाज से सुरक्षित सीटों से जीत कर 40 से अधिक विधायक विधानसभा में मौजूद हैं और यहां तक कि जनजातीय कार्य मंत्री भी इसी समाज से हैं तो क्या हमारे इन जन प्रतिनिधियों का फर्ज नहीं बनता की विभाग का नाम और उसके संबंधित सभी अन्य उप विभागों को एक ही नाम से लिखा पढ़ा और पुकारा जाए ? क्या आदिवासी, जनजाति, आदिम जाति, ट्राइब्स इत्यादि एक ही हैं या अलग-अलग हैं? इसका निर्णय कौन करेगा ? अब आप लोग ही तय करें इसके लिए उचित कदम क्या होगा ? वहीं मेरे इस संपादकीय लेख को पढ़ने के बाद, आप अपनी राय भेजे कि क्या उचित होगा ?
लेखक डॉ सूरज धुर्वे

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