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समाज में महिलाओं को कमजोर, पुरूष आश्रित या वस्तु के रूप मे मानने की प्रवृत्ति होनी चाहिये समाप्त

समाज में महिलाओं को कमजोर, पुरूष आश्रित या वस्तु के रूप मे मानने की प्रवृत्ति होनी चाहिये समाप्त 

जहाँ से पुरूष की कृपा या वैधानिक बैशाखी की जरूरत ही न रहे 

महिला सशक्तिकरण, संवैधानिक अधिकार व कोयापुनेम में योगदान 

लेकिन बारीकी व पारखी नजरों से देखें तो हर व्यवस्था के आधार स्तंभ में कोयापुनेम मौजूद है

लेखिका
तिरूमाय- गायत्री मरकाम
पता- वनग्राम जंगलीखेड़ा बैहर
जिला बालाघाट म प्र 
कानूनी समानता के लिए पूरे विश्व मे महिला आंदोलन एक बड़ी चिंता रही है। पैतृक या वैवाहिक घर में उसके स्थान की आंतरिक स्थिति हो या शिक्षा, पेशा, रोजगार आदि प्राप्त करने की बाह्य स्थिति हो, इन सभी का संबंध महिला सशक्तिकरण के विभिन्न आयामों व कानूनों से है। यहाँ सशक्तीकरण का शाब्दिक अर्थ-शक्तिशाली या ताकतवर बनाना है अर्थात समाज के कमजोर वर्गों पर विशेष ध्यान देकर और उन्हें सहूलियतें पहुँचाकर शक्तिशाली वर्गों के बराबर लाना, जिससे वे स्वयं में इतने सशक्त हो सके तथा वे सभी समाज के अन्य वर्गों की तरह विकास की मुख्य धारा से जुड़कर कार्य कर सकें ।

आज हमारे देश मे जनजातियों, अल्पसंख्यकों, गरीबों, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों महिलाओं, अपंगो आदि को किसी न किसी रूप मे कमजोर वर्ग में गिना जाता है। इन सभी वर्गों के सशक्तिकरण की बातें सभी क्षेत्रों में जोर-शोर से होती है। सरकारी नीतियों मे भी उत्पीड़न, शोषण, अत्याचार, असमानता आदि को दूर करने तथा
समाज के संपूर्ण विकास की दिशा में सशक्तिकरण को उपयुक्त व प्रभावी प्रणाली के रूप मे देखा जा सकता है ।

क्या है महिला सशक्तिकरण ?

महिला सशक्तिकरण वह प्रक्रिया है तथा उस प्रक्रिया का नतीजा है, जिसके द्वारा महिलायें भौतिक, मानव बौद्धिक एवं वित्तीय संसाधनों पर नियंत्रण प्राप्त करती है तथा समाज की समस्त संस्थानों एवं ढाचों में पुरूष प्रधान समाज की विचारधारा एवं लिंग आधारित भेदभाव को चुनौती देती है तथा सामाजिक समता पर आधारित अंतर्व्यक्ति शक्ति संबंधों की स्थापना करती है। यह मात्र उनकी भौतिक दशा सुधारने की कवायद नहीं है बल्कि वास्तविक सशक्तिकरण से महिला की सामाजिक स्थिति भी शक्तिशाली होती है।

ये है महिला सशक्तिकरण के प्रकार-

1- व्यक्तिगत सशक्तिकरण-व्यक्तिगत सशक्तिकरण से आशय है कि महिलाओं को भी पुरूषों के समान एक व्यक्ति के रूप में पहचान एवं मान-सम्मान व पुरूषों के समान विकास के अवसर उपलब्ध कराना है। जिससे स्वयं के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सके और जीवन के समस्त महत्वपूर्ण निर्णय स्वयं ले सके। बेहतर शिक्षा खान-पान, पोषण, स्वस्थ्य मनोरंजन, पर्यटन-खेलकूद, रोजगार, अभिव्यक्ति आदि के समान अवसर व्यक्तिगत सशक्तिकरण के लिए अति आवश्यक है।
2-सामाजिक सशक्तिकरण-सामाजिक सशक्तिकरण से स्पष्ट है कि महिलायें समाज के हर क्षेत्र में पुरूषों के समकक्ष योगदान देने की क्षमता का विकास कर सके। इसके लिए आवश्यक है कि भेदभाव पूर्ण व पूर्वाग्रह ग्रसित सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वासों व ऐसे मूल्यों को पूरी तरह से नकार दिया जाये। समाज में महिलाओं को कमजोर, पुरूष आश्रित या वस्तु के रूप मे मानने की प्रवृत्ति समाप्त होनी चाहिए। इसके लिए सिर्फ पुरूष मानसिकता मे बदलाव पर निर्भर न होकर महिलाओं को स्वयं भी आमूल-चूल परिवर्तन के लिए आगे आना होगा तभी महिलाओं की समाज में दशा ही नहीं, दिशा भी बदल सकेगी।
3-आर्थिक सशक्तिकरण- महिलायें आर्थिक रूप से सशक्त होंगी तभी आत्मसम्मान भी जागृत होगी । पुरूषों के समान चल अचल संपत्तियो तक पहुँच, उनके खरीद फरोख्त की स्वतंत्रता, एवं उन पर नियंत्रण के साथ-साथ रोजगार प्रशिक्षण व आय निर्माण संसाधनों की उपलब्धता, इच्छानुसार रोजगार चुनने की स्वतंत्रता, समान कार्य के लिए समान वेतन, व अपने वेतन पर पुरूषों के समान वास्तविक अधिकार, आर्थिक सशक्तिकरण के वास्तविक अंग बन जाते हैं ।
4-राजनैतिक सशक्तिकरण- महिलाओं की शक्ति संबंधीय सत्ता धारियों में पुरूषों के बराबर भागीदारी। विभिन्न पारिवारिक, सामुदायिक, धार्मिक व सामाजिक कार्यकलापों में महिलाओं का पुरूष जैसा दखल एवं महिलाओं के विचारों व निर्णयों को पुरूष के विचारों व निर्णयों के बराबर महत्व राजनैतिक सशक्तिकरण है ।
5-वैधानिक सशक्तिकरण- आशय यह है कि महिलाओं को कानूनी सक्षम बनाना। लैंगिक भेदभाव फैलाने वाले कानूनों में बदलाव, महिलाओं की विशेष सामाजिक सांस्कृतिक परिस्थितियों को देखते हुए उनके पक्ष में विशेष कानून का निर्माण तथा महिलाओं के वैधानिक विचारों के प्रति जागरूकता ही वैधानिक सशक्तिकरण है। अग्र
पंक्ति मे वैधानिक अधिकारों का विवरण सविस्तार सम्मिलित किया गया है।
6-मनोवैज्ञानिक सशक्तिकरण- हमारे समाज मे व्याप्त सभी मनोवैज्ञानिक बाधाओं से महिलाओं की मुक्ति एवं उनका पूर्ण मानसिक विकास मनोवैज्ञानिक सशक्तिकरण का हिस्सा है । जिससे वे हीनभावनाओ व कुंठाओं से ग्रसित न हो ।
7-वैचारिक सशक्तिकरण- उपरोक्त समस्त अधिकारों से कानूनी संरक्षण व पहल करने की क्षमता मे निश्चित रूप से वृद्धि हुई है। पर यह भी पाते हैं कि यह सब पर्याप्त सिद्ध नहीं हुआ है। समाज में महिलाओं की दोयम स्थिति और उससे उत्पन्न होने वाली उसकी परेशानियाँ काफी हद तक ज्यौ की त्यौ है। इसमें वास्तविक बदलाव वैचारिक सशक्तिकरण से ही संभव है। वैचारिक सशक्तिकरण का मतलब महिलाओं में आये विचारों के उस परिवर्तन से हुआ है, जहाँ से पुरूष की कृपा या वैधानिक बैशाखी की जरूरत ही न रहे । जिससे वह निशक्त सोच और उस सोच को बल देने वाले तमाम रूपों का, पूरी तरह तिरस्कार कर सके।

महिलाओं के संरक्षण के लिए अधिनियम- 

महिलाओं के लिए अंतत: सरकार ने घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 लागू किया है। इसका घोषित उद्देश्य इस प्रकार है-महिलायें जो कुटुंब के भीतर किसी भी प्रकार की होने वाली हिंसा की पीड़ित हैं, के संविधान के तहत गारंटीकृत अधिकारों को अधिक प्रभावी संरक्षण प्रदान करने के लिए और उससे संबंधित या उसके आनुशंगिक मामलों के लिए, एक अधिनियम।
घरेलू हिंसा के दायरे मे महिला के शारीरिक, मानसिक, दहेज एवं कल्याण संबंधी सभी नुकसान शामिल किये गये हैं । अधिनियम मे कुछ अभूतपूर्व व्यवस्थायें हैं। जैसे-यह सुरक्षा घरेलू नातेदारी मे रही किसी भी महिला को उत्पीड़क पुरूष के विरूद्ध उपलब्ध होगी। संबंधित महिला हरजाना पा सकती है। उनका शामिलाती घर मे अधिकार बना रहेगा। अधिनियम मे पुलिस की सीधी कार्यवाही की व्यवस्था नहीं है पर संबंधित महिला द्वारा किसी मजिस्ट्रेट, संरक्षा अधिकारी, सेवा प्रदाता या पुलिस अधिकारियों से शिकायत पर पक्षों को संबंधित मजिस्ट्रेट द्वारा तलब करके आगे कार्यवाही होगी ।

इस नयी दवा से मर्ज पर क्या कोई असर पड़ेगा? 

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-125 के अंतर्गत पत्नी निर्वाह भत्ता मांग सकती है । 1961 में दहेज निरोधक कानून बनाया गया । 1983 मेभारतीय दण्ड संहिता मे 498 ए धारा जोड़ी गई जिसमें पति या उसके संबंधियों द्वारा पत्नि के प्रति क्रूरता को दण्ड योग्य अपराध घोषित किया गया । विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 के अंतर्गत हर महिला को निशुल्क विधिक सेवा देने की व्यवस्था की गई, पर मर्ज लाइलाज ही रहा है । दरअसल मर्ज की जड़ में है-औरत को पारिवारिक संपत्ति से वंचित रखने एवं उसे पुरूष-निर्भर बनाने का सामाजिक दृष्टिकोण। इसका इलाज जरूरी है ।
इसी क्रम यह उल्लेख किया जाना उचित प्रतीत होता है कि सभी भारतीय कानूनों को भारतीय संविधान से स्वीकृति मिलती है, जिसमें भारत के सभी नागरिक को न्याय, स्वाधीनता, और समानता की गारंटी दी जाती है। प्रस्तावना में सभी नागरिकों के लिए प्रतिष्ठा और अवसर की समानता की बात कही गई है। अनुच्छेद 14, में कहा गया है कि राज्य, भारत के क्षेत्र मे किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा । इसमें न केवल भेदभाव निषिद्ध है अपितु महिलाओं के संरक्षण के लिए भी विभिन्न प्रावधान किये गये हैं।
इस संबंध मे अनुच्छेद 14, 15, विशेष रूप से 15 (3) , 16, 39, और 51 क (ड़) विशेष उल्लेख के योग्य है । अनुच्छेद 14, 15, व 16, के अधीन प्रत्याभूत अधिकार मूल अधिकार हैं और यदि राज्य उनका उल्लंघन करता है तो एक नागरिक संविधान के अनुच्छेद 32 में उच्च न्यायालय तथा उच्चतम न्यायालय मे भी मामला उठा सकता है तथापि बहुत कम मामलों में महिलाओं ने न्यायालयों का दरवाजा खटखटाकर अपने अधिकार का आग्रह किया है। महिलाओं की अज्ञानता एवं उन पर सामाजिक दबाव के अलावा अदालतों की विषम लम्बी व खचीर्ली प्रणाली भी इसके लिए जिम्मेदार हैं।

महिलाओं की मात्र उपस्थिति बदली है, स्थिति नहीं-

हमारे देश मे कानून की भरमार है लेकिन ये सब कानून किसी कार्य के नहीं सब व्यर्थ है जब तक इनके बारे मे कोई जानकारी नहीं। यह तभी कारगर साबित हो सकते हैं जब हम सब इनकी जानकारी लेंगे और इन्हें जानने के उत्सुक होंगे । अत: हमें खासकर महिलाओं को यह आवश्यकता है कि वे कानूनों की जानकारी जरूर रखें । यही वो हथियार है जिससे वे अपने आप को सुरक्षित रख सकेंगी । 
आज की सबसे महती आवश्यकता अगर कोई है तो वह महिलाओं के अंदर सामाजिक बदलाव लाने की है क्योंकि महिलायें ही दया मैत्री त्याग और पोषण की अपनी मुख्य भूमिका का निर्वाह कर बदलाव ला सकती है पुरूषों का यह दायित्व होना चाहिए कि वे उनके महत्व को समझे एवं उनकी सांस्कृतिक व विद्वतापूर्ण पूर्ण भूमिका का सहारा ले विकास की ओर अग्रसर हो । महिलाओं का भी यह दायित्व है कि वे अपने आपको पुरूष से नीचा न समझें । जब तक वे अपने आपको पुरूषों से नीचा समझेगी, विकास की बात सोचना मात्र कागजों मे रह जायेगी। वर्तमान मे महिलाओं जागरूक हो रही है, निरंतर प्रयासों के बाद आज उपस्थित बदली है स्थिति नहीं ।
जो शिक्षित महिला हैं उनका दायित्व है कि वे आस-पास की महिलाओं को इसकी जानकारी दे या जागरूकता अभियान चलाये एवं इससे होने वाले विनाश को समझायें ।
महिलाओं की स्थिति संबंधी समिति ने कहा था कि कानून के कुछ दण्ड संबंधी प्रावधान निश्चित रूप से स्थापित पैतृक प्रणाली, पति की प्रबल स्थिति, और महिलाओं के सामाजिक तथा आर्थिक पिछड़े पन से प्रभावित हैं । महिलाओं के स्थिति का भविष्य, महिलाओं के बड़े वर्गों द्वारा संविधान की स्पष्ट सूझबूझ और संवैधानिक आश्वासनो की पूर्ति के लिए कानून/ प्रक्रियाओं का उपयोग कर पाने मे उनकी क्षमता/ पहल पर निर्भर करेगा ।

कोयापुनेम में अपरिहार्य भूमिका- 

आज देशज समुदाय कोयापुनेम के लिए संघर्ष कर रहा है, इसलिए कुछ तथाकथित शख्सियतों द्वारा कोयापुनेम को जनजाति तक सीमित किया जाकर मानसिक संकीर्णता का परिचय दे रहे हैं। यहाँ शोध व चिंतन की अपार संभावनाएं हैं कि कोयापुनेम की जड़ें कितनी गहरी है। इस पृथ्वी पर पाये जाने वाले जैविक, अजैविक दृश्य अदृश्य  सभी पदार्थ कोयापुनेम व्यवस्था में हैं । समस्त मानव जीवन मे कोयापुनेम है, यह अलग बात है कि आज समुदाय भिन्न-भिन्न मान्यताओं व धार्मिक स्वरूपों को मानता है लेकिन बारीकी व पारखी नजरों से देखें तो हर व्यवस्था के आधार स्तंभ में कोयापुनेम मौजूद है । मौजूदा दौर में जब महिला सशक्तिकरण व संवैधानिक अधिकारों का बोल बाला व उसकी आवश्यकता रही है-फिर महिलाओ का योगदान कोयापुनेम मे कितना है यह भी भिज्ञ होना जरूरी है-कोयापुनेम मातृशक्ति के बिना अधूरा है, महिला ही इस व्यवस्था की मूल वाहक की भूमिका निभाते हैं व संपूर्ण व्यवस्था को संजोकर रखते हैं ।
(संदर्भ- कोयापुनेमी स्मारिका, 2019 अंक तृतीय)

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