खाज्या नायक का बलिदान रहेगा अमर
स्वतंत्र लेखक
भले ही इतिहस के पन्नों से क्रांतिकारी वीर यौद्धा खाज्या नायक का नाम गुमनाम करने का प्रयास कलमकारों ने किया हो लेकिन यह भी सत्य है कि अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति दिलाने में भारत देश की मिट्टी जनजाति समुदाय के असंख्य वीर यौद्धाओं के खून के रंग से सनी हुई है। भले ही स्याही के रंग से कलम चलाने वाले कलमकारों ने इनका इतिहास को सामने लाने में कंजूसी किया हो लेकिन जनजाति समुदाय के द्वारा सबसे पहले भारत में अंग्रेजों के खिलाफ ऊलगुलान का बिगुल फंूका गया था यह भी सही है। इसे झूठलाया नहीं जा सकता है।
ऐसा ही संघर्ष व बलिदान की गाथा गांव-गांव में गाया जाता है। वर्ष 1857 की क्रांति के दौरान खाज्या नायक का संघर्ष और बलिदान आज भी अपने स्वर्णिम इतिहास अपना प्रमाण के साथ सबके सामने मौजूद है। क्राँतिकारी, वीर योद्धा खाज्या नायक निमाड़ क्षेत्र के सांगली ग्राम निवासी गुमान नायक के पुत्र थे जो वर्ष 1833 में पिता गुमान नायक की मृत्यु के बाद सेंधवा घाट के नायक बने थे।
क्रांतिकारी वीर यौद्धा खाज्या नायक ने जनजातीय भील समुदाय में चेतना लाते हुये अंग्रेजों से सीधे युद्ध किया था। वर्ष 1857 की क्राँति में जिसने बड़वानी क्षेत्र में भीलों की बागडोर संभाली। वहीं 11 अप्रैल, 1858 को बड़वानी और सिलावद के बीच स्थित आमल्यापानी गाँव में अंग्रेज सेना और इस भील सेना की मुठभेड़ हो गयी। अंग्रेज सेना के पास आधुनिक शस्त्र थे, जबकि भील अपने परम्परागत शस्त्रों से ही मुकाबला कर रहे थे। प्रात: आठ बजे से शाम तीन बजे तक यह युद्ध चला। इसमें खाज्या नायक के वीर पुत्र दौलतसिंह सहित अनेक योद्धा बलिदान हुए।