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भलो हतो वो गांव रे...

भलो हतो वो गांव रे...

ठोकर खांय जमाने भर की, चलें नहिं हाथ-पांव रे।
कैसे अपनी का कहि देबैं, भलो हतो वो गांव रे।
गांव गली पनघट सब भूले, छूटी खेती-बाड़ी।
उरिया, परछी, गैया, बुकरिया, छूटी बैलों की जोड़ी।
हंसियां, खुरपी और कुदाली, सूनी दहलाने है।
पीपल,अमराई की छैंया, नदी घाट वीराने है।
शहर, अटारी की कुलियों में-ढूंढें जिंदगी के ठांव रे...(1)
करमा, भडौनी, रीना, ददरिया, जाने कहां हिराने है।
शैला, फाग और नाच दिवारी, कोई नहीं जानें है।
तीज-तिहार, खैरो के जवारे, डूबे रीति-रिवाज हैं।
रहन-सहन, व्यवहार बदल गये, बिसरे सब सुरताल है।
बदल रहो है अब तो जमाना-तुम भी लगालो दांव रे...(2)
बौनी, कटाई और पुजाई, सालों-साल की बातें।
सियारी, उन्हारी, रहट-सिचाई, खेत मढ़ैया की रातें।
ब्याह नेंग, पंचादी-चलन और, चैंतहारन के नातें।
महुआ, तेंदू, गोंद, चिरौंजी, सबई समेटन नानें।
बांध कलेवा तड़के निकर गये-सालत नहिं धूप-छांव रे...(3)
चार-चौमासे काटन काजे, घर छप्पर पलटा रय।
नोन-तेल उन्हा-लत्ता के, सबई जुगाड़ लगा रय।
देव-दिवाला मना-थपा लो, हार-घाट, घटवाई के।
धन, जन और भरपूर अन्न हो, बेखटका भरपाई के।
सबकी भलाई, देव-पुजाई-उमड़ चलो सब गांव रे..(4)
सावन, भादौ रिमझिम बरसै,आल्हा की धुन गूंजे।
कहीं अखंड पाठ रामायण, जिसको जो कछु सूझे।
हरियाली, राखी और कजरी, पोला वर्षा बुढ़ानी है।
दंगल नागपंचमी तीजा में, मल्लों की पहलवानी है।
चकाचौंध के दांव-पेंच में-अंगद सो जमालो पांव रे..(5)
हल्की ठंड गुलाबी दशहरा, चहल-पहल की बेरा।
घाम सुहानी लगत सकारे, छटो बादर को डेरा।
गांव दिवारी बेझा न्यारी, घर-घर दिया बरे हैं।
गौरैया से फुदक रहे हैं, खिले-खिले चेहरे है।
जाने कब तक पार उतरहै-जीवन की जा नांव रे..(6)
बैसाखी होली की रंगत, स्वागत में टेसू माला।
झांझ मंजीरा बजे मृदंगा, झूम रहे नर और बाला।
ढोल नगाड़े गरज उठे हैं, बाज रही शहनाई है।
नर-नारी जवान और बच्चे, मचल रही अंगड़ाई है।
तरस गये हम जिनके लाने-चलो चलें अब गांव रे...(7)

(कवि-अलाल जी. देहाती)

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