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शवराज न बनें, अब चिंता की इस बात की करें शिवराज

शवराज न बनें, अब चिंता की इस बात की करें शिवराज 

राज्यों में समन्वय, कलेक्टरों व कंट्रोल रूम की मॉनिटरिंग की कमी को स्वीकार करें सरकार 

पूंजीपतियों की दौलत, शौहरत को नहीं श्रमवीरों की मेहनत और शहादत को मिले सम्मान 

कुछ माह पूर्व ही सिवनी जिले के चार आदिवासी श्रमिक भी हुये थे रेलवे टेक में मृत 

औरंगाबाद के दर्दनाक हादसे में श्रमवीरों के निधन पर गोंडवाना समय की ओर से देवांजलि

कड़वी कलम 
विवेक डेहरिया 
संपादक दैनिक गोंडवाना समय
श्रमवीरों की मेहनत, खून, पसीनों की बदौलत ऊंची-ऊंची ईमारतों में रहने वाले, सुख सुविधाओं, ऐशोआराम की जिंदगी जीने वाले पूंजीपतियों लानत है तुम पर और धिक्कार है जो तुम अपने आपको भारत का सपूत कहते हो, कपूत से भी गये गुजरे हो और भारत की मिट्टी में जन्म लेने के नाम पर कलंक का टीका अपने माथे पर लगाकर दिखावा करने वाले पूंजीपति जिन श्रमिकों की मेहनत की बदौलत तुम्हारी तिजौरी भरी, तुम्हारा बैंक बैलेंस बढ़ा, सम्मान मिला उन श्रमिकों को अपने कार्यस्थल क्षेत्र में दो-तीन महिना भोजन, रहने की व्यवस्था नहीं कर सकें।
          जिन्होंने श्रमवीरों का ख्याल रखा होगा उन्होंने श्रमवीरों के प्रति कर्ज और फर्ज अदा किया। अब सरकार की बात करें तो श्रमिकों का मताधिकारी पाकर बनने वाली सरकारें, सत्ता की कुर्सी संभालने वाले श्रमिकों के अधिकार के प्रति वफादार क्यों नहीं है ? आखिर सरकार श्रमवीरों से ज्यादा उनके मालिकों की तरफदार क्यों होती है ? सरकार भी श्रमिकों के अधिकारों को दिलाने में कंजूसी करती है और उनके मालिकों को संरक्षण देती है इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिये।
        अब हम बात करें श्रमिकों की सुरक्षा, सही मार्गदर्शन, उचित दिशा में मेहनत करने के लिये सबसे पहले जिनकी जिम्मेदारी है, उनकी अर्थात समाजिक संगठनों की भूमिका भी मंच में भाषणों पर सीमित है और राजनैतिक संगठनों की स्थिति तो यह है कि मालिकों को मजदूरों के संगठनों का मुखिया बना दिया जाता है, इससे ज्यादा बताने की जरूरत नहीं है।
           लॉकडाउन के बाद भारत में श्रमवीरों की स्थिति चिंताजनक, दर्दनाक तस्वीरें आईना की तरह साफ हो चुकी है। पूंजीपति, सरकार, समाजिक संगठनों व राजनैतिक संगठनों का छिपा हुआ चेहरा सामने आ चुका है।

अब पलायन को रोकने बने ठोस नीति और योजना को दिया जाये मूर्त रूप

पूरे देश में लॉकडाउन के बाद से पलायन करने वाले श्रमिकों की वो तस्वीरें सामने आ रही है जिस पर पर्दा डालना और झूठलाना अब सरकार के बस की बात नहीं है चुपचाप श्रमिकों की दुर्दशा को स्वीकार करना ही उचित है।
          हम देश भर के श्रमिकों की बात तो फिलहाल नहीं करेंगे लेकिन देश में सर्वाधिक जनजातियों की संख्या वाला राज्य मध्य प्रदेश जहां पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सरकार है। मध्य प्रदेश से पलायन कर वापस लाने वाले श्रमिकों की संख्या स्वयं मध्य प्रदेश सरकार प्रतिदिन गिना रही है इन आंकड़ों में सबसे ज्यादा जनजाति समुदाय के श्रमिकों की ही है।
            यह आंकड़े स्वयं प्रमाणित कर रहे है कि मध्य प्रदेश में कितने परिवार पेट की भूख को शांत करने, रोजगार की तलाश में पलायन करने को मजबूर है। आगामी समय में मध्य प्रदेश से पलायन शून्य रहे ऐसी ठोस नीति बनाने की आवश्यकता सरकार को है उन्हें अपने ही क्षेत्र में रोजगार मिल जाये ऐसी योजना को मूर्त रूप देने की सख्त आवश्यकता है।
            इसके लिये वातानुकूलित कक्षों में बैठकर योजनायें बनाने अफसरों और जनसेवकों के सुझाव का सिरे से खारिज करने की आवश्यकता है वरन ऐसे वास्तविक श्रमिक हितेषी संगठनों को सामने लाकर उनके बताये अनुसार सुझाव से योजनाओं को बनाने व निगरानी की जिम्मेदारी देने आवश्यकता है।

गांव में पलायन रजिस्टर रखना किया जाये अनिवार्य

हम आपको बता दे कि गोंडवाना समय द्वारा पलायन का मुद्दा हमेशा उठाया जाते रहा है, गांव में पलायन रजिस्टर रखने की बात को भी मुखरता से ही उठाया जाते रहा है। औरंगाबाद की तरह ही सिवनी जिले के चार जनजाति समुदाय के श्रमिक नागपूर के पास बीते कुछ माह पूर्व रेलवे टेक में कटकर मृत हो गये थे तब भी श्रमिकों के मुद्दे को गोंडवाना समय द्वारा प्रमुखता से संज्ञान लेने के लिये उठाया गया था।
           इतना ही नहीं कोरोना वायरस संक्रमण को लेकर लॉकडाउन के पहले ही होली त्योहार के समय वापस आने वाले श्रमिकों को लेकर भी प्रत्येक श्रमिकों के संधारण किये जाने की बात गोंडवाना समय द्वारा उठाया गया था।
        अब तो कम से कम से सरकार को सबक लेने की आवश्यकता है कि गांव में पलायन रजिस्टर अनिवार्य करवा दिया जाये और यदि गांव में सरकार की रोजगार की योजनायें चल रही है, उसके बाद भी पलायन की बात सामने आती है तो इसके लिये संबंधितों की जिम्मेदारी पंचायत स्तर पर नहीं जिला पंचायत स्तर पर तय किया जाना चाहिये। 

औरंगाबाद के दर्द पर ये दवा काफी नहीं सरकार

औरंगाबाद में जो दर्दनाक हादसा हुआ उसे सुनकर ही रूह कांप जाती है, अंगों को समेटते हुये चादरों में पोटली बनाकर ले जाते हुये तस्वीरें बयां कर रही है कि रेल हादसे के दौरान कैसी चीख पुकार तड़पन रही होगी इसका एहसास सहने वाला ही समझ सकता है। सुनने वाला, देखने वाले संवेदना व्यक्त कर सकता है।
         
आदिवासियों का मध्य प्रदेश के खजाने में पहला हक बताने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के राज में मध्य प्रदेश सरकार ने प्रत्येक जनजाति मृतकों को 5 लाख रूपये दिये जाने की घोषणाा किया है इस विषय पर कम ज्यादा का कोई सवाल हम नहीं खड़ा करेंगे क्योंकि इसकी भरपाई सरकारी खजाना की पाई पाई पंूजी भी नहीं कर सकती है। अब सरकार को सचेत होकर ऐसी कोई भी घटना न हो, श्रमिको की मौत तो क्या उन्हें खरोंच भी न आये ऐसी व्यवस्था श्रमिकों को वापस लाने की बनाने की होना चाहिये।

औरंगाबाद की घटना से सबक ले सरकार 

लॉकडाउन के बाद पलायन करने वाले श्रमिकों को जो जहां पर है वहां पर रोके रखना और वहीं की राज्य सरकारों के द्वारा उनके लिये भोजन, निवास की व्यवस्था में जितना व्यय हुआ है उतनी सुविधायें संभवतय: राज्य सरकारे नहीं दे पाई।
             इसके बाद प्रवासी श्रमिकों को अपने अपने राज्यों में वापस लाने केंद्र सरकार द्वारा निर्देश जारी करने के बाद, देश के राज्यों में आपसी समन्वय की कमी होना, वहीं प्रदेश मुख्यालयों में बने कंट्रोल रूम व जिला में कलेक्टरों की मॉनिटरिंग के साथ समन्वय में बहुत बड़ी कमी सामने आई है।
           बाहर फंसे हुये श्रमिकों पंजीयन नहीं करा पाये है और जो नंबर जारी हुआ है वह एक ही होने के कारण व्यस्तता के चलते अधिकांश मजदूर पंजीयन नहीं करा पा रहे है। आॅन लॉइन पंजीयन करवाना उतना आसान नहीं है जितना सरकार ने सोचकर व्यवस्था करवाया है।
         इसके साथ ही प्रत्येक जिलों में गांव स्तर से सही जानकारी पलायन करने वालों की जुटाने में कमी रह गई है और यदि पूरी कर ली गई है तो उन्हें सरकार के द्वारा वापस लाये जाने की व्यवस्थाओं व सुविधाओं की जानकारी देने में पंचायत स्तर पर जिम्मेदार अपनी भूमिका नहीं निभा पा रहे है।
             जबकि देखा जाये तो प्रत्येक गांव से श्रमिकों के पलायन की जानकारी जुटाना किसी भी जिला पंचायत सीईओ और कलेक्टर के लिये 24 घंटे का समय बहुत है। इस आधार पर श्रमिकों से संपर्क कर उन्हें वापस आने के लिये पैदल चलने से रोका जा सकता है और उन्हें सरकार द्वारा साधन की सुविधायें मुहैय्या कराई जा सकती है लेकिन प्रदेश मुख्यालय, जिला मुख्यालयों व गांव तक समन्वय समाधान के उद्देश्य से बने तभी सफलता मिल सकती है। औरंगाबाद में हुये दर्दनाक हादसे जैसा दोहराव कतई न हो इस पर चिंता करने की आवश्यकता है। 

समाजिक संगठन मंच नहीं धरातल पर करें काम 

कोरोना वायरस संक्रमण के बाद बनी स्थिति लॉकडाउन लगाये जाने के बाद घरों में रहने की सलाह देने वाले समाजिक संगठनों को यह विचार करना होगा कि उनके अपने अपने समाज के कितने लोग, कितने परिवार पेट की भूख को शांत करने के लिये, रोजी-रोटी की तलाश में अपने गांव-शहर, पड़ौस से बड़े शहरों में जाने को मजबूर है।
            समाजिक संगठनों का आखिर क्या काम है, उनका संगठन बनाने के पीछे क्या उद्देश्य है सिर्फ मंचों में भाषण पेलना और सोशल मीडिया में ज्ञान बांटने तक ही सीमित है। कुछ संगठनों को छोड़ दिया जाये तो अधिकांश समाजिक संगठनों की वास्तविकता लॉकडाउन के समय, श्रमिकों की स्थिति, समाज के परेशान होते परिवारों ने उजागर कर दिया है।
             कितने समाजिक संगठन मंच पर और माईक में समाजसेवक होने का ढिंढौरा पीटते है और कौन-कौन समाज के दु:ख, दर्द, तकलीफ के समय साथ देता है। प्राय: हम देखे तो प्रत्येक समाजिक संगठनों का गांव-गांव व शहर-शहर में नेटवर्क है उनके पदाधिकारी, सदस्य है लेकिन क्या वे अपने ही समाज के ऐसे लोगों को पलायन करने से रोक पा रहे है।
               सामाजिक संगठनों के शिक्षित पदाधिकारियों को यह समझ नहीं आता है कि उनके अपने ही समाज की बहन-बेटियां-महिलायें बड़े शहरों में जहां रहने का ठिकाना नहीं है वहां पर रोजगार करने जा रही है, वहां पर वह कैसे अपनी दिनचर्या को पूर्ण करती होंगी मतलब सामाजिक संगठन अपने ही समाज की रोटी, बेटी, संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिये चिंतित व गंभीर नहीं है। समाजिक संगठनों को भी मंच में भाषण, सभाओं में समाज की भीड़ जुटाने की होढ़ और सोशल मीडिया में हीरोगिरी छोड़कर धरातल में काम करने की आवश्यकता है।
कड़वी कलम 
विवेक डेहरिया 
संपादक दैनिक गोंडवाना समय

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