रूढ़ी प्रथा एक अलिखित महाग्रंथ
राज्यसभा न लोकसभा सबसे बड़ी है ''ग्रामसभा''
गोंडवाना समय अखबार, आपके विचार
स्वतंत्र विचार लेखक
धर्मवीर मरकाम
(गढ़ा-मंडला, मध्य गोंड़वाना)
सेवा जोहार साथियों, साथियों कोयतुरों का जीवन दर्शन में रूढ़ी प्रथा एक अलिखित महाग्रंथ है, जिस महान व्यवस्था को आज जानने और मानने की जरूरत है, पुरखों के जमाने में कोई कोर्ट-कचहरी और थाना-तहसील नहीं हुआ करते थे। ये अपनी रूढ़ीगत न्याय व्यवस्था से ही बड़े से बड़े मामले का समाधान निष्पक्ष करते थे। 3 गाँव से लेकर 12 गाँव के सियाने आपस में बैठके हर बड़े से बड़े केस का निपटारा करते थे।
एक दिन उसे समाज के सामने झुकना पड़ता है
इस व्यवस्था के प्रमुख सदस्य होते थे, जिनका नाम कुछ इस प्रकार से हुआ करता था। ''मोकद्दम'', ''दवान'', ''छिरवय'', ''कोटवार'' आदि, और साथ में गढ़मान्य लोग। समाज में जब भी कोई व्यक्ति किसी प्रकार का असामाजिक कृत करता था, तो जुर्म के हिसाब से 3-12 गाँव के मुखिया मिलकर एक महापंचायत बुलाते थे। फिर ये देखा जाता था कि जुर्म कितना बड़ा है, कैसा है, उसी हिसाब से निराकरण और सजा का प्रावधान करते थे, अगर उक्त दोषी व्यक्ति इस पंचायत की बात नहीं मानता है तो उसे और भी उचित दंड दिया जाता था, जिसमे जुर्म की भरभाई हेतु कुछ राशि और ''सामाज से बहिष्कार'' कर देते हैं, जिसे गाँव की भाषा में ''पानी बंद'' या ''लोटा बंद'' बोलते हैं। फिर उस आदमी से गाँव के लोग किसी भी प्रकार के तालमेल नहीं रखते, ना ही उसके साथ उठते-बैठते। वह एक पशु समान हो जाता है, आखिर वह आदमी कितना ही बड़ा, अकड़ू और कितना ही टेड़ा क्यूं न हो समाज से कितना दिन दूर रह सकता है। जो मुमकिन है, एक दिन उसे समाज के सामने झुकना पड़ता है और जो जुर्म किया है उसका और सामाजिक दंड का हजार्ना चुकाना पड़ता है।
और मिलेगा क्यूं नहीं समाज को छोड़ जाएगा कहाँ
अगर उक्त व्यक्ति अपना जुर्म कबूल कर समाज में मिलना चाहता हो, और मिलेगा क्यूं नहीं समाज को छोड़ जाएगा कहाँ। फिर उसके घर-परिवार को रूढ़ीगत पद्धति से शुद्धिकरण किया जाता है। साथ ही गाँव का भी शुद्धिकरण किया जाता है। इसके बाद वह समाज में सबके साथ उठ-बैठ सकता है। जो अभी भी कुछ ग्रामीण अंचलों में नहीं के बराबर देखने को मिलता है। जिसे पुन: स्थापित करने की जरूरत है। साथियों यही हमारे रूढ़ी सिस्टम को ही संविधान में संक्षिप्त रूप से उल्लेखित किया गया है जो बहुत कुछ कहता है। रूढ़ीप्रथा बहुत छोटा शब्द है पर इसका विस्तार अकूत है, जो अलिखित है। जिसे लिखा जाए तो एक महाग्रंथ से कम नहीं होगा।
असामाजिक कृत करने से पहले सौ बार सोचता था
छोटे-छोटे मसलों को तो एक ही गाँव के सियाने निपटा लेते हैं लेकिन जुर्म बड़ा होने पर 3-12 गाँव के सियानो को बुलाया जाता था, सामाजिक बहिष्कार एक ऐसा दंड है जो आदमी को झोरपा मार के गिरा देता है। वह चाहे कितना ही बलवान और धनवान क्यूं न हो, इसलिए लोग किसी भी प्रकार का और यही कारण है कि उस समय जुर्म कम होते थे और आज लोग बिलकुल नहीं डरते गरज के बोलते हैं, जेल ही होगा ओर क्या। तो आप समझ सकते हैं रूढ़ीप्रथा कितना सरल और ससक्त व्यवस्था था।
ये नारा एक कहावत ही नहीं, हकीकत था
साथियों इनका एक नारा हुआ करता था और ये नारा एक कहावत ही नहीं, हकीकत था। हमारे पुरखों के राज-काज के दौरान जल-जंगल और जमीन तथा जमीन से निकलने वाले तमाम संपदा का मालिक हमारे लोग ही होते थे, जिनके इजाजत के बिना मानो पत्ते भी नहीं हिलते थे और आज जहाँ कहीं भी प्राकृतिक संपदा या खनिज संपदा मिला वह जमीन सरकार का हो जाता है।
रूढ़ीप्रथा की ओर लौटना होगा
साथियों अब हमें उस पुरखा गली, रूढ़ीप्रथा की ओर लौटना होगा। हमारे सिस्टम और कस्टम को पुनर्जीवित करना होगा, इसी लिए हमारे पुरखा कहते थे। राज्यसभा न लोकसभा सबसे बड़ा है ''ग्रामसभा'' और वह रूढ़ीप्रथा को जीवित किये बिना नहीं मिल सकता। इसका उल्लेख भी हमारे संविधान में निहित है।