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निजीकरण से पूंजीवाद को मिलता है बढ़ावा और पूंजीपतियों का उद्देश्य होता है अधिक से अधिक लाभ कमाना

निजीकरण से पूंजीवाद को मिलता है बढ़ावा और पूंजीपतियों का उद्देश्य होता है अधिक से अधिक लाभ कमाना

क्या सार्वजनिक संस्थाओं एवं उपक्रमों का निजीकरण समावेशी विकास का हल है ?

अन्यथा अर्थव्यवस्था में आर्थिक असमानता बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है


लेखक-डॉ. जीतेंद्र कुमार डेहरिया, अर्थशास्त्री
असिस्टेंट प्रोफेसर,
डेनियलसन महाविद्यालय छिन्दवाड़ा
मो. 9770507023

विशेषकर नब्बे के दशक की शुरूआत से ही निजीकरण हमारे देश में एक बहुचर्चित शब्द बन गया है। निजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें सरकार सार्वजानिक क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले संसाधनों, संपत्तियों, सेवाओं एवं उपक्रमों को निजी क्षेत्र को सम्पूर्ण या आंशिक हिस्सा बेच देती है या स्वामित्व को स्थानांतरित कर देती है।
        चाहे वह ठेके के रूप में करे या फिर पट्टे के रूप में, यह भारत में तब किया जाता है जब कोई भी सार्वजनिक उपक्रम घाटे में चलता है अर्थात उसका घाटा राजस्व प्राप्ति से अधिक होता है। ऐसी दशा में सरकार निजीकरण का रास्ता चुनती है क्योंकि हमारी देश की अर्थव्यवस्था एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है।
        जिसमें अर्थव्यवस्था के विकास में राज्य का हस्तक्षेप बहुत जरुरी होता है और और पूंजी के अभाव में अर्थव्यवस्था के तीव्र विकास के लिए निजी क्षेत्र का भी सहारा लिया जाता है लेकिन इन दोनों में संतुलन का होना अति आवश्यक है अन्यथा अर्थव्यवस्था में आर्थिक असमानता बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है। हमारा देश एक लोकतांत्रिक देश है जहाँ जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों का दायित्व होता है कि वे जनता के हितों के लिए कार्य करें और जनता का भी दायित्व होता है की वह भी अपने कर्तव्यों का पालन करे।

हमारे देश में आय की असमानता अत्यधिक


जैसा की सर्वविदित है की हमारे देश में क्षेत्रीय और स्थानीय, आर्थिक एवं सामाजिक विषमताओं के साथ-साथ कई प्रकार की विविधताएँ भी हैं। देश की कुल जनसँख्या का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा अभी भी गांव में निवास करता है, जो मुख्यत: कृषि, पशुपालन एवं दैनिक मजदूरी पर निर्भर है। हमारे देश में आय की असमानता अत्यधिक है और इसका मुख्य कारण है।
        सामाजिक असमानता और इन दोनों असमानताओं का प्रभाव शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, कुपोषण और विकास के अन्य सामाजिक एवं आर्थिक संकेतकों पर देखने को मिलता है। क्या इतनी विविधताओं और विषमताओं को सार्वजनिक संपत्तियों या सार्वजनिक संस्थाओं को निजी स्वामित्व में देकर हम देश के गरीब, पिछड़े, वंचित, बेरोजगार, छोटे कर्मचारी या निम्न वर्गीय या निम्न आय वाले मजदूर, विधवा, वृद्ध एवं गरीब छात्र-छात्राओं के साथ न्याय कर पायेंगे यह एक चिंतन का विषय है।
        क्या आपने अभी तक के इतिहास में बहु-राष्ट्रीय कम्पनियों को सार्वजनिक व्यय की तरह जैसे बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सड़क पर खर्च करते देखा है ? क्या निजी संस्थाएँ या उपक्रम सरकार की तरह सार्वजानिक हितों को ध्यान में रखती हैं ? इन सभी प्रश्नों पर विचार करने की जरुरत है।

निजीकरण से गरीबों और अमीरों के बीच की खाई और अधिक बढ़ेगी


सच तो यह है निजीकरण से पूंजीवाद को बढ़ावा मिलता है और पूंजीपतिओं का उद्देश्य होता है उत्पादन के साधनों एवं मजदूरों का शोषण कर अधिक से अधिक लाभ कमाना। सामान्यत: उनका सार्वजनिक हितों से कोई मतलब नहीं होता। आज हमारा देश निजीकरण की और बहुत तेजी से कदम बढ़ा रहा है। जिससे देश के सम्पूर्ण एवं समावेशी विकास में बहुत बड़ा संकट पैदा होगा। निजीकरण से हमारे उत्पादन और उत्पादकता दोनों में वृद्धि हो सकती है, उत्पादन के साधनों का पूर्ण उपयोग हो सकता है।
        जिससे देश की सकल घरेलु उत्पाद (जीडीपी) की दर में वृद्धि होगी लेकिन क्या उसका निम्न वर्गों के बीच सही वितरण हो पायेगा ? यह एक विचारणीय प्रश्न है। निजीकरण से गरीबों और अमीरों के बीच की खाई और अधिक बढ़ेगी जो दो वर्ग को जन्म देगी एक शोषित और दूसरा शोषक वर्ग, इससे कल्याणकारी राज्य की भूमिका खत्म हो जायेगी, आरक्षण खत्म हो जाएगा, छात्रवृत्ति, शोधवृत्ति, विधवा पेंशन, शैक्षिक अनुदान, कृषि अनुदान इत्यादि सब धीरे-धीरे खत्म हो जायेंगे और निम्न आय वर्ग के लोगों का शोषण इतना होगा की वे समाज की मुख्यधारा से अपने आप दूर हो जायेंगे।

समावेशी विकास चाहते हैं तो हमें सार्वजनिक संस्थानों का विस्तार करना चाहिए


यदि हम वास्तव में आर्थिक विकास एवं वृद्धि में संतुलन स्थापित करना चाहते हैं और समावेशी विकास चाहते हैं तो हमें सार्वजनिक संस्थानों का विस्तार करना चाहिए एवं उनमें  स्थायी अधिकारियों एवं कर्मचारियों की संख्या बढ़ाकर उनकी कार्यक्षमतओं का पूर्ण उपयोग करना चाहिए। वहीं जो सार्वजनिक उपक्रम या संस्थाएँ ठीक से काम नहीं कर रहीं हैं उनको कार्य करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
        इसके साथ ही उनका समय-समय पर उचित मूल्यांकन किया जाना चाहिए ताकि वे सक्रिय रूप से कार्य कर सकें और अपनी उत्पादन क्षमता को बढ़ा सके। वर्तमान में सरकारी संस्थाओं में काम करने वाले सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों की संख्या बहुत कम है और वर्कलोड बहुत अधिक है, इसलिए अक्सर सरकारी कार्य समय पर नहीं हो पाते हैं।
         बेशक कुछ संस्थायें या उनमें कार्यरत लोग लापरवाही करते हो या वे संस्थाएँ  घाटे में चलती हो लेकिन इसका मतलब ये नहीं की उन्हें सीधा निजी क्षेत्र के स्वामित्व में कर दिया जाए। जिन भी सरकारी संस्थाओं में कुछ अधिकारियों एवं कर्मचारियों के पास ज्यादा कार्य नहीं हैं उन्हें उनकी योग्यता एवं  क्षमता के अनुसार अतिरिक्त कार्य देकर उनकी कार्यक्षमताओं का पूर्ण उपयोग किया जाना चाहिए।

तभी विश्व गुरु बनने का सपना पूरा होगा और यही हमारे देश के प्रधानमंत्री जी भी चाहते हैं

निजीकरण आर्थिक एवं समावेशी विकास का हल नहीं है यह मजदूरों और कमजोर वर्ग के लोगों को आधारभूत सुविधाओं से वंचित रखने एवं उनका शोषण करने का एक तरीका है, जो अमीरी और गरीबी के बीच की खाई को तो बढ़ायेगा ही साथ ही अनेक प्रकार के आर्थिक और गैर-आर्थिक संकट और विषमताएँ पैदा करेगा। हमारे सामने निजीकरण के ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे हमको सीखना चाहिए आज शिक्षा, स्वास्थ्य, बैंकिंग, ट्रांसपोर्ट, संचार सभी में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी है।
        जिसके फायदे और नुकसान हम सभी जानते भी है। खासकर निजीकरण से वस्तुएँ एवं सेवाएँ इतनी मंहगी हो जाती हैं कि निम्न वर्ग या तो उनसे वंचित रहता है या फिर बहुत ही सीमित रूपसे से उनका उपभोग कर पाता है लेकिन सार्वजनिक वस्तुओं एवं सेवाओं का उपभोग हर वर्ग का व्यक्ति करता है और विशेष रूप से निम्न एवं मध्यम वर्ग का करता ही है। इसलिये सरकार को उच्च आय वर्ग के साथ-साथ निम्न आय वर्ग का भी ध्यान रखना चाहिए क्योंकि अभी भी हमारे देश की जनसँख्या का बहुत बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करता है और शासकीय योजनाओं के ऊपर निर्भर रहता है।
        अब चाहे वे शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, संचार, आवास या बैंकिंग से सम्बंधित हो। निजीकरण से सिर्फ आर्थिक वृद्धि होगी और आर्थिक वृद्धि से हम देश की औसत प्रतिव्यक्ति आय बढ़ा तो सकते हैं लेकिन वास्तविक रूप से प्रत्येक व्यक्ति की आय बढ़ाना ज्यादा जरुरी है। यह तभी संभव होगा जब देश की आय का कमजोर वर्गों के बीच समुचित वितरण होगा तभी देश के विकास की नीव मजबूत होगी और हम एक स्वस्थ्य, सुदृढ़ और आत्म निर्भर देश एवं प्रदेश की कल्पना कर पाएंगे और तभी हमारा सबका साथ सबका विकास और विश्व गुरु बनने का सपना पूरा होगा और यही हमारे देश के प्रधानमंत्री जी भी चाहते हैं।


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