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इस देश में आदिवासी सिर्फ समस्या का शिकार नहीं बल्कि समस्या के समाधान का भी शिकार बना दिया गया है

इस देश में आदिवासी सिर्फ समस्या का शिकार नहीं बल्कि समस्या के समाधान का भी शिकार बना दिया गया है


लेखक-
प्रणव राजनेगी

आज बेसक आप इस आधुनिक दौर में बेहद सुखी जीवन जी रहें हों पर कुछ असल मसलों से उतने ही वास्तविकता से दूर भी है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्यों आप असल मसलों से दूर हो रहें हे ? इस देश में एक ऐसी व्यवस्था भी है जो लगातार कई वर्षों से भ्रम फैलाने का काम करती आ रही है, जिसे या तो हम प्रत्यक्ष तौर से या तो अप्रत्यक्ष तौर से मजबूत करने का काम करते आ रहे है। जब तक हमें वास्तविकता का एह्सास नहीं होगा हम और हमारी आने वाली पीढ़ी इसी तरह मजलूमियत का जीवन जीते रहेंगे। 

ट्राइबल सेल्फ गवर्नेंस के सिद्धांत को निहित करने में अहम भूमिका निभाया

आजादी के कई दशक होने के बाद भी आज हम अपने हक हुकूक की लड़ाई को समझने में असमर्थ हैं। हमे.कई वर्षों तक अपने सामाजिक क्रांतिकारियोेंके शौर्य व संघर्ष की गाथाओं से दूर रखा गया ताकि पुन: अपने ऊपर हो रहे जुल्म के खिलाफ खड़े न हो सकें पर आज हमें ये समझाना होगा कि जुल्म के विरोध में संघर्ष करना क्यों जरुरी हैं ? धरती आबा बिरसा मुंडा, तांत्या भील सहित तमाम क्रांतकारियों के सँघर्ष में सामाजिक एकीकरण को देखा जा सकता है।
            जो ग्राम सभा, पारम्पारिक व्यवस्था पर आधारित थी। सामाजिक एकीकरण ही एक मात्र एक ऐसा रास्ता था जिसके बल पर दमनकारी व्यवस्था का सामना किया जा सकता था। इसी कारण संविधान सभा में जयपाल सिंह मुंडा जी और बाबा साहेब आंबेडकर जी ने पारम्परिक व्यवस्था  की अहमीयत को समझते हुए अपने पुरे सामर्थ के साथ संविधान सभा में 'ट्राइबल सेल्फ गवर्नेंस' के सिद्धांत को निहित करने में अहम भूमिका निभाया। जिसे हम भारतीय संविधान के कई प्रावधानो में देख सकते है, मुख्यत: पांचवी अनुसूची और छटवीं अनुसूची जैसे प्रावधान शामिल है। 

आदिवासी इस देश की हर एक समस्या का एक पहला पीड़ित बन चूका है

आदिवासियों का जल, जंगल, जमीन के लिए जो संघर्ष हुआ, उसे अंग्रेजी हुकूमत को भी मानना पड़ा। जिसके परिणाम स्वरुप संविधान के पूर्व में भी 'ट्राइबल सेल्फ गवर्नेंस' को मान्यता मिली। सकारात्मक कानून बनाए गये, पर आज आदिवासी इस देश की हर एक समस्या का एक पहला पीड़ित बन चूका है। चाहे वह समस्या कोरोना महामारी हो या कृषि संकट।
        संवैधानिक व्यवस्था होने के बाद भी निरंतर आदिवासियों पर जुल्म व दमन जारी है। ये हमे सबसे पहले समझना होगा कि क्यों इस देश में संविधान को अमल में नहीं किया गया। इसके पीछे कौन सी ताकत है जो हमारे हक हुकूकके खिलाफ काम कर रही है। आज जो संकट आदिवासियों के ऊपर मंडरा रहा है, वो सिर्फ आरक्षण को खत्म करने का नहीं बल्कि इस देश से  सामाजिकता खत्म करने का है जिसका परिणाम आदिवासियों के पूर्ण पतन के रूप में भविष्य में देखा जा सकता है। 

क्योंकि समाजवाद का सिद्धांत सामाजिक सुरक्षा की बात करता है 

जिस संविधान में सामाजिक सुरक्षा  के सिद्धांत को निहित किया गया है, उसी संविधान को आज कई तरीके से शून्य करने के कार्य जारी है। यह हम कई संवैधनिक संशोधन, कई कानून, कार्यपालिका के आदेशों व सम्माननीय न्यायालय के निर्णय में देख सकते है।
        निरंतर राज्य की तमाम संवैधानिक संस्था पर आदिवासियों का प्रतिनिधित्व न होने के कारण संवैधानिक व्यवस्था आज शून्य समझ में आती है। आज एक ऐसे वर्ग ने पूरे राज्य के संस्था पर कब्जा कर लिया है जिसे सामजवाद व सामाजिकता से कोई लेना देना नहीं है, क्योंकि समाजवाद का सिद्धांत सामाजिक सुरक्षा की बात करता है। 

संवैधानिक व्यवस्था को अपनी एक कठपुतली बना रखा है

आज आदिवासियों को पूर्णत: असुरक्षित कर दिया गया है। कार्ल मार्क्स के अनुसार ''राज्य एक साधन है जिसके माध्यम से पूंजीपति गरीवों पर शासन करते हे'' और यही बात आज कहीं न कहीं हमे प्रतीत होती है कि पूंजीपतियों ने राज्य के मशनरी के माध्यम से अपने फायदे के लिए पूरे संवैधानिक व्यवस्था को अपनी एक कठपुतली बना रखा है। हमें यह भी समझना होगा कि आदिवासियों के पतन से किसका फायदा हो रहा है। बिना संविधानवाद  के संविधान को अमल नहीं किया जा सकता है। 

आदिवासियों को उनके मूल जीवन के संशाधनों से ही विस्थापित किया गया

इसीलिए यह जरुरी है कि हम इस पीढ़ी के अंदर संवैधानिक नैतिकता का विकास करे ताकि उन व्यवस्था के विरोध में खड़ा हो सके क्योंकि कई वर्षो तक आदिवासियों का कानूनी तौर पर सशक्त न होने के कारण इस समुदाय को संवैधानिक व्यवस्था से दूर रखा गया बल्कि नक्सलवाद के जन्म व मूल कारणों पर आवाज उठाने वाले लोगों को जेलों में डाला गया।
         जिसके परिणाम स्वरुप आज जेलों में अधिकतर संख्या आदिवासियों की है। वहीं संशाधनो के आभाव के बाबजूद भी आज भी आदिवासी अपने जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहा है। नक्सलवाद, विकास और पर्यावरण के नाम जो दमन, शोषण आदिवासियों के साथ किया गया, उसे समझना होगा, कि कैसे देश की सुरक्षा के नाम पर आदिवासियों को असुरक्षित  किया गया। कैसे देश के विकास के नाम पर आदिवसियों का विनाश किया गया और कैसे पर्यावरण, वन्य प्राणी के संरक्षण नाम से आदिवासियों  को उनके मूल जीवन के संशाधनों से ही विस्थापित किया गया।  

समाज में उलगुलान पैदा करना होगा

ये एक ऐतिहासिक अन्यान्य है जो वर्षों से आदिवासियों के साथ चलते आ रहा है। अन्याय करने के तरीके समय-समय में बदल सकते हैं पर अन्याय  के पीछे जो उद्देश्य होता हे वो मूलत: आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल करना होता है, क्योंकि यह पूरा मसला जमीन का है, धर्म का नहीं हमे धार्मिक उन्माद में भ्रमित किया जाता है और दूसरी और हमारे असल मसलों से हमें दूर किया जाता है ताकि हम इनके खिलाफ न खड़े हो सके और इसी तरह गुलामी में जीते रहे।
        महापुरषों के विचारों को आतमसात किए बिना हम कोई लड़ाई नहीं लड़ सकते बल्कि दमनकारी व्यवस्था के बने हुए जाल  में हमेशा फसें रहेंगे। अब हमें इन नीतियों, कानूनों और तमाम वैधानिक दाव पेंचों को समझना होगा। इसके साथ ही अपने महापुरषों के विचारों में चलते हुए सामाजिक एकीकरण के माध्यम से इस समाज में उलगुलान पैदा करना होग। क्यूंकि ये लड़ाई इस समाज के अस्तित्व को बनाए रखने की है जिसे हमें ही लड़ना होगा।

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