Type Here to Get Search Results !

पेनवारी बनाने के महान त्योहार दिवाड़, दुवाड़ी, दवाळी, दीवाड़ी, देववारी के नाम से जाना जाता हैं

पेनवारी बनाने के महान त्योहार दिवाड़, दुवाड़ी, दवाळी, दीवाड़ी, देववारी के  नाम से जाना जाता हैं

सैकड़ों पीढ़ियों से पुरखां फसली त्योहार को धान तेरस-अन्न तेरस के रूप में मानते आये हैं

बारूदी पटाखें जलाकर पर्यावरण प्रदूषण बढ़ाने के त्योहार में बदल कर संपूर्ण मानवता को मौत के कगार पर खड़ा कर दिया हैं


लेखक-विचारक
डॉ. हीरा मीणा
पूर्व सहायक प्रोफेसर, दिल्लीस विश्वनविद्यालय
वर्तमान संप्रति : स्वततंत्र लेखन एवं आदिवासी रचनाकार

प्रकृति और जीवन परस्पर एक दूसरे पर निर्भर हैं। संसार के जीव-जन्तु और मानव जीवन पर्यावरण से संचालित और प्रभावित होते रहते हैं। प्राकृतिक संसाधनों का संतुलित उपभोग आदिवासी जीवनशैली के साथ घनिष्ठ  रूप से जुड़ा हुआ है।


संसार के आदिवासियों का जन-जीवन और पर्यावरण संरक्षण में महत्व पूर्ण योगदान रहा हैं। आदिवासी समाज का जंगल, पहाड़, नदियॉं, धरती, खेत-खलिहान, वन्य-जीवों, पशु-पक्षियों के साथ सहजीवी संबंध रहा हैं। आदिवासी समुदायों और कृषक वर्गों के जीवन का आधार वनोपज, खेती-किसानी, पशु-पक्षियों के साथ सहजीविता रहा हैं, इसी कारण इनके पर्व, त्योहार, उत्सव, मेलें, सभी फसल चक्र और उनसे जुड़े पालतु पशुओं-पक्षियों, बैल, गाय, भैंस, पाड़ा, बकरी, भेंड़, मुर्गी, बतख आदि सभी की अहम भूमिका होती हैं।

पूरा कार्तिक मास और विशेष तौर से तेरस तिथि खरीफ फसल चक्र का त्यौहार हैं


सैकड़ों पीढ़ियों से पुरखां फसली त्योहार को धान तेरस-अन्न तेरस के रूप में मानते आये हैं। पूरा कार्तिक मास और विशेष तौर से तेरस तिथि खरीफ फसल चक्र का त्यौहार हैं। खरीफ फसलों की कटाई के बाद अन्न और धान को संग्रहित कर कोठार, कोठी या अनाज घर में भण्ड़ाण के रूप में रखा जाता है। घर की सालभर की जरूरत का अनाज इकठ्ठा रखकर बाकी अनाज को बाजार में बेचकर उसकी कीमत को धन के रूप में जरूरत की चीजों या शादी ब्याह में खर्च किया जाता है। रबी फसल की बुआई शुरू की जाती है। 

काती की तेरस को अनाज घर, गोहर, कोठार में मिट्टी का दीया सरसों या तिल के तेल का जलाया जाता है


मौसम में ऋतु परिवर्तन चक्र शीतकाल की शुरूआत माहौल को खुशनुमा और मनभावन बना देता है। कच्चे घर आंगन और दीवारों पर पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों के चित्रों के साथ सुंदर और कलात्मक विभिन्न तरह की रंगोलियां और मांडणें बनाये जाते है। काती की तेरस को अनाज घर, गोहर, कोठार में मिट्टी का दीया सरसों या तिल के तेल का जलाया जाता है। अनाज/धान से जुड़े सभी जगहों पर दीयें रखे जाते हैं।
            अनाज भंडार के आले, दरवाजे की डैली, बाहर बने हुए गोखे पर, अनाज/धान कूटने वाली ओखली/ढेंकी और मूसल के पास, चाकी के ऊपर, चूल्हें के पास, परींडे पर, बर्तन मांजने की जगह उठावणा में, गोबर के संग्रह स्थौल 'रेवड़ा' के पास, खेती में सहयोगी चौपाया पशुओं के खूटे के पास, बाड़ा में, खेते में, कुआ के पास, पुरखां भोमिया देवता के चौतरे/थानक पर, सेड़लमाता के थानक पर, गॉंव या खेत के मुहाने पर, नीम, खेजड़ी, पीपल, आम, बबूल के पास दीयें जलाये जाते हैं। 

खेती-किसानी और जीवन से जुड़ी हुई हर वस्तु, जगह, जीव-जंतुओं और प्राणियों को बहुत महत्व दिया जाता है

खेती-किसानी और जीवन से जुड़ी हुई हर वस्तु, जगह, जीव-जंतुओं और प्राणियों को बहुत महत्व दिया जाता है। सभी पालतू चौपाया जानवरों के सींगों को विभिन्न रंगो से रंगा जाता हैं। रंगीन धागों में गले में घण्टी और पॉंव में घूंघरू बांधे जाते हैं। शरीर पर मेंहदी से तरह-तरह के छापे लगाये जाते हैं। सभी पशुओं को सजाया संवारा जाता है। बैल-बद फसल चक्र की रीढ़ होते हैं। खेती-किसानी के साथी बैलों को खूब महत्वं दिया जाता है। सबको खूब सजा-संवार कर तैयार किया जाता हैं।
             घर में बनने वाले विशेष पकवान चूरमा, दाल, बाटी, खीर-पुरीं, चावल-बूरा, पूड़ी, फलका, रोटी, खीचड़ी, गुड़ आदि उन्हें खिलाया जाता हैं। घर परिवार के सदस्यों  की तरह वे भी सबके जीवन में अहम भूमिका निभाते हैं, तब ही फसल चक्र पूर्ण हो पाता है, और अन्न-धान की फसल प्राप्ति होती हैं। देशभर के आदिवासी समाज में प्राकृतिक संसाधनों के संतुलित उपभोग को कायम करने के लिए शम्भू  शेक व सैकड़ों गणकों के साथ पेनवारी बनाने के महान त्योाहार दिवाड़, दुवाड़ी, दवाळी, दीवाड़ी, देववारी के नाम से जाना जाता हैं। 

गोबरधन, रेवड़ाधन, गौरधन, गौधन, सोहराई, सोहराय आदि कई नामों से जाना जाता हैं

आदिवासी समाज इस त्योाहार को प्रकृति और जीव-जंतुओं के साथ सहजीवी के रूप में देशभर में मनाता आया है। इस त्योहार का नाम प्रदेश की भाषा बोली और संस्कृति के अनुरूप कही गोबरधन, रेवड़ाधन, गौरधन, गौधन, सोहराई, सोहराय आदि कई नामों से जाना जाता हैं। कृषि और पशुपालन से जुड़े समुदाय, ग्रामीण लोगों की सबसे बड़ी संपत्ति पशुधन ही है। बैंल और भैंसा कृषि कार्यों में हमजोली की भूमिका निभाने के कारण इस त्योहार में विशेष रूप से सजाये व पूजें जाते हैं। तकनीकी विकास से शहरी क्षेत्रों के आस-पास के गॉंवों में टैक्टर का उपयोग होने से इस त्योहार पर टैक्टंर की भी पूजा की जाती हैं। 

विश्व का आदिवासी समाज प्रकृति, जीव-जंतुओं और पुरखों को ही मानते और पूजते आये हैं

कार्तिक अमावस को आदिवासी मीणा समुदाय में अपने पुरखों को पाणी देने की हजारों साल पुरानी परम्परा का पालन आज भी किया जा रहा हैं। विशेष रूप से कार्तिक अमावस, पड़वा-गोरधन और आने वाली चौदस को पुरखों को परंपरागत फसली अन्न और पाणी (तर्पण) दिया जाता हैं। विश्व का आदिवासी समाज प्रकृति, जीव-जंतुओं और पुरखों को ही मानते और पूजते आये हैं। आदिवासी समाज अपने जीवन में सहयोगी हर तत्व को महत्व देता आया है। सिंधुघाटी सभ्यता में मिलने वाले प्रतीक, चिन्हं, विशाल स्नाहनघर, पानी के कुंड़, मोहरों पर अंकित चित्र भील-मीणा, गोंड, संथाल, उरॉव, असुर, नागवंशी आदि कई कबीलाई समुदायों के गणचिन्हि, टोटम, धराड़ी के रूप में आज भी माने जाते हैं। पुरखों को मानने की पाणी देने की परम्परा हजारों लाखों साल पुरानी हैं। अरावली, नर्मदा, सतपुड़ा, हम्पी  आदि कई पर्वतमालाओं में प्राप्ते होने वाले गुफा शैलचित्र इसका जीवंत उदाहरण पेश कर रहे है। गैर आदिवासी तथाकथित सभ्य धारा के लोगों ने आदिवासी नायकों की छल-कपट से हत्या, करके उसे त्योहार के रूप में मनाते हैं और बारूदी पटाखें जलाकर पर्यावरण प्रदूषण बढ़ाने के त्योहार में बदल कर संपूर्ण मानवता को मौत के कगार पर खड़ा कर दिया हैं। 

भाणजों कुगेल गैबी मामा न खागो काली बादली को कालस चाँदा राज पै छागो

मुख्यधारा में रहने वाले शहरी, पढ़े-लिखें गैर आदिवासी समुदायों द्वारा देशभर में आमजन से चंदा वसूली करके दशहरे पर रावण के साथ उनके वंशजों को खतरनाक बारूदी पटाखों के साथ जलाते हैं। नवरात्रों में महिषासुर की हत्या का उत्सव मनाया जाता हैं। मीणा समाज के गणतांत्रिक राजा आलण सिंह और उनके परिवार का नरसंहार धोखेबाज राजपूत भांजे दूलहेराय के द्वारा पुरखों को पाणी देते वक्त काती की अमावश दीवाली को ही किया था। भारतीय इतिहास में मीन गणवंश के स्वर्णिम अतीत के अति महत्वपूर्ण पुरावशेषों की महागाथा स्वयं बयां करते है।
                अरावली पर्वतमाला पर 1800 साल पूर्व खोहगंग की घाटी, जयपुर में राजा राव चंद्रसेन मीणा द्वारा स्थापित वैभवशाली खौहगंग नगरी मीणा राजवंश ने संवत 221 से लगातार 779 वर्ष (1090-1147) तक 22 पीढ़ियों ने कबिलाई शासन किया था। नरवर के राजपूत राजा सोडाराय की हत्या कर उसका छोटा भाई राजगद्दी हथिया लिया था। सोडाराय की विधवा अपने दूधमुंहे बच्चे (दूलहेराय) की जान बचाने के लिए खोहगंग के राजा आलणसिंह चाँदा मीणा के राजपरिवार में शरणार्थी दासी  बनकर आई थी। आलणसिंह को सच्चाई पता लगने पर उसे अपनी बहन बनाया और उसके पुत्र दुलहराय को भान्जा बनाकर अपने राज परिवार का पूरा संरक्षण प्रदान करके पालन पोषण किया।
            दिल्ली के शासक अंनगपाल तोमर को कर भुगतान करने के लिए आलणसिंह ने दूलहराय को भेजा था। खोहगंग की तलाई में दिपावली के दिन पुरखों को पाणी देते हुए निशस्त्र मीणों पर षड़यंत्रों के तहत डूम, ढ़ोली, बारहट के साथ मिलकर घात लगाकर दूलहराय ने चाँदा राजवंश के 1445 पुरूषों का सरेआम नरसंहार किया। इस कत्लेंलआम से खोह की सामने वाली पहाड़ी की तलाई खून से पूरी लाल हो गई और लाशों का ढ़ेर लगाकर कपटी दुलहेराय ने कछावा राजपूत राजतंत्र की स्थापना की, ये वही दूलहेराय हैं जिसके पिता की हत्या के बाद उसकी माँ अपने देवर से उसकी जान बचाने के लिए महान दयालू राजा आलणसिंह मीणा की नगरी खोहगंग में शरण ली थी।             बुजुर्गों के मुख से आज भी पुरखां गीत की यह लोकपंक्ति सुनी जाती हैं..भाणजों कुगेल गैबी मामा न खागो काली बादली को कालस चाँदा राज पै छागो। दूलहराय ने अपने स्वामी (मामा) राजा आलणसिंह मीणा के साथ विश्वासघात कर खोहगंग जयपुर का राजा बनकर कछवाहा राजवंश को स्थापित किया था। यह एक हजार साल पुरानी सच्ची घटना है। 

यह आदिवासी समाज की मूल डोकरा पुरखां परम्परा की पहचान को खत्म करने की साजिश है

जिसका इतिहास की अधिकांश पुस्तकों में उल्लेख किया गया है। आज भी कई गॉंवों में मीणा समाज के बुजुर्ग, युवा और महिला अपने पुरखों को सामुहिक रूप से घर, खेत की मेड़, तालाब की पाळ, नदी के किनारें, कुएं की पार पर आदि जल स्रोतों के सान्निध्य में अन्न और पाणी देते हैं। चावल, बूरा, घी, खीर, पुआ, फलका, रोटी, बर्फी आदि के साथ पाणी डाब की घास और आन्धाम झाड़ा के साथ पुरखों को तर्पण करते हैं और पाणी पिलाते हैं। यह पुरखां परम्पारा सदियों पुरानी हैं, जो काती की अमावस, पड़वा और चौदस तिथियों को सामाजिक भाई बंधुओं, बहन-बेटियों की सामुहिक उपस्थिति में पूर्ण की जाती है।
                कुछ परिवारों में पुरूष वर्ग पुरखों को पाणी देते हैं और कुछ परिवारों में घर की महिला भी सामुहिक रूप से इस पुरखां परम्परा को निभाती हैं। संस्कृतिकरण और बाजारवादी संक्रमण के कारण पुरखों के जल तर्पण दिवस अर्थात पुरखों की हत्यां दिवस को स्वघोषित सभ्य समाज की खुशी का त्यौहार बना दिया गया हैं। समाज के बुजुर्ग लोग मूल परम्पघराओं को निभाते आये हैं लेकिन युवा पीढ़ी चकाचौंध की दुनिया के जाल में फंसती जा रही हैं।
            लगभग सभी मीणा गोत्रों में दीवाली पर पुरखों को पाणी देने की प्राचीन परम्परा को अब कुछ गोत्रवाले हिंदू संस्कृति के प्रभाव में आकर (श्रादपर्व) कनागतों में पानी देना शुरू कर दिया हैं। यह आदिवासी समाज की मूल डोकरा पुरखां परम्परा की पहचान को खत्म करने की साजिश है। मीणा आदिवासी समाज हिंदू नहीं है, आदिवासी समाज हिंदू धर्म में नहीं आता हैं। इसीलिए वर्णवादी व्यवस्था में भी नहीं आता हैं।
            काल्पनिक देवी-देवताओं की बजाय प्रकृति, जीव-जंतुओं, पुरखों को मानते और पूजते हैं। काल्पानिक धन प्राप्ति के स्रोत प्रकाश पर्व लक्ष्मी, गणेश की पूजा को पटाखों के साथ बारूद उत्सव में तबदील कर दिया हैं। बाजारवाद की चकाचौध के षड़यंत्र के जाल में फंस कर मेहनतकश आम जनता के कठिन परिश्रम से मिला पैसा बाजार की भेंट चढ़ जाता हैं। 

महानगरों में प्रदूषण खतरनाक स्तर पर आ गया, दिल्ली की हवा जहरीली हो गई हैं 

नये अनाज का खान-पान जो अन्नभकूट और गोवर्धन पूजा में बदला जा रहा है जबकि अनाज और गोबर फसलों से संबंधित मानव जीवन के आवश्यक तत्व है। गोबर की खाद से प्राकृतिक गुणों से भरपूर गुणवत्तास वाली फसलों से मानव जीवन स्वस्थ्य, बलिष्ठ और निरोगी रहता आया हैं।
            हिंदू संस्कृति ने अन्न-धान तेरस के त्यौहार को कल्पना लोक और बाजारवाद से जोड़कर लक्ष्मी और गणेश की पूजा से धन प्राप्ति का लालच देकर धन तेरस का नामकरण कर दिया हैं, इसी कारण सोने-चॉंदी की खरीददारी, बैंक-बैलेंस, गहने व नकदी की पूजा और बिजली का अनावश्यक दुरूपयोग के साथ पर्यावरण को प्रदूषित करता बारूदी पटाखों का त्योहार सबके लिए जहरीला वातावरण पैदा करके सबको मौत के कगार पर ले आया हैं।
        बाहरी लोगों द्वारा इसे दिपावली नाम देकर दीप कम बारूदी पटाखों का त्योहार बनाकर सबको संकट में ले आये हैं। महानगरों में प्रदूषण खतरनाक स्तर पर आ गया है। दिल्ली की हवा जहरीली हो गई हैं लोग स्वासों को तरस रहे हैं। घरों के बाहर जहरीला धुआ फैला हुआ हैं। घरों में भी लोग बारूदी पटाखों के धमाकों और प्रदूषण से बहुत परेशान हो रहे हैं लेकिन अंधभक्त धर्म और संस्कृति का हवाला देकर लगातार खतरनाक बारूदी पटाखें जला रहे हैं।  

आदिवासी समुदायों की परम्परागत जीवन शैली और पुरखों की तकनीक का उपयोग करना चाहिए

तकनीकी विकास से मशीनीकरण और हानिकारक रासायनिकों का खेती-बाड़ी में उपयोग किये जाने से कैंसर जैसी अनेक घातक बीमारियॉं बढ़ती जा रही हैं। मिट्टी की उर्वरता उपजाऊपन खत्म होकर बंजर बन रही हैं। नदियों, नहरों, कुओं, तालाबों आदि जलस्रोत जहरीले अपशिष्टों से दूषित होकर मानव जीवन, पशु-पक्षियों और पर्यावरण के लिए खतरा बनते जा रहे हैं।
            इन सब भयभहताओं से बचने के लिए सबको आदिवासी समुदायों की परम्परागत जीवन शैली और पुरखों की तकनीक का उपयोग करना चाहिए। पशु-पक्षियों और पर्यावरण का उचित संरक्षण, संवर्धन पर विशेष कार्य करने चाहिए। प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देकर स्वीस्थि अन्नर-धान की फसलों से स्वस्थ्य जन जीवन की नींव रखनी चाहिए। प्रकृति और जीव-जंतुओं का सरकारी योजनाओं से अनावश्यक विदोहन नहीं करना चाहिए। आदिवासी पुरखों की संयमित जीवनशैली को तथाकथित सभ्य धारा के लोगों को भी अपनाना चाहिए, जिससे कम से कम संसाधनों के उपयोग से पर्यावरण संरक्षण में सहयोगी बन सकें।
            जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों, पर्यावरण, पेड़-पौधों, नदीय, झरनों, तालाबों, नहरों को प्रदूषण से मुक्त रखने का कार्य ज्यादा से ज्यादा करने चाहिए। पाखण्डों और संस्कृति के नाम पर भावनाओं का हवाला देकर बारूदी पटाखे जलाने वालों पर सख्त  प्रतिबंध और कड़ी से कड़ी सजा होनी चाहिए। त्योहारों पर ज्यादा से ज्यादा वृक्षारोपण को बढ़ावा देना चाहिए, जिससे सबकों स्वस्थ्य जीवन जीने का अधिकार मिलें।
        'सब जीओं और जीने दो' की विचारधारा को अपनाये तो कई समस्याओं का समाधान हो सकता हैं। प्रकृति और माता-पिता जो हमें जीवन देते हैं, उन्हीं की पूजा करनी चाहिए। संपूर्ण जीव जगत और मानवता के लिए प्रकृति से जुड़े आदिवासियों और किसान वर्गों के उत्सव, त्यो हार फसल चक्र और ऋतु परिवर्तन के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए है, जो जीवन चक्र के साथ हमेशा चलते रहते हैं।


Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.