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हल्बा जनजातीय इतिहास, संस्कृति एवं शक्ति दिवस

हल्बा जनजातीय इतिहास, संस्कृति एवं शक्ति दिवस 

हल्बा क्रांतिवीरों ने देश की स्वतंत्रता के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया है



आदिम जनजातीय समुदाय से लेकर सभ्य समाज अपनी मूल उत्पत्ति का दावा किसी काल्पनिक चरित्र, पौराणिक देवी-देवता अथवा प्राकृतिक पदार्थों से संबंध जोड़कर करता है। हल्बा जनजाति की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न लेखकों ने कई भ्रांतियों को जन्म दिया है।
            

कुछ विद्वानों ने उड़िया राजा के खेत में फसल सुरक्षा के लिए लगे पुतलों में शिव-पार्वती द्वारा प्राण डालने से हल्बा उत्पत्ति का उल्लेख किया है। शिव की कृपा से पुतले हिलने-डुलने लगे और मनुष्य रूप में जीवंत हो उठे। इन जीवंत मनुष्यों ने पहचान के लिए भगवान शिव से अपनी जाति पूछी तो उन्होंने जाति का नाम बताया-हालिबा टा। उड़िया भाषा में हालिबा टा अर्थात हिलने डुलने वाले। हालिबा टा शब्द अपभ्रंश के रूप में हल्बा में परिवर्तित हो गया।

हल्बा जनजाति की उत्पत्ति    


हल्बा उत्पत्ति का संबंध महाभारत के प्रसंग रूक्मणी-हरण से भी जोड़ा जाता है। रूक्मणी हरण के समय जिन योद्धाओं ने बलराम के पक्ष में युद्ध किया था, वे बलराम के प्रिय अस्त्र हल को धारण करने लगे। हलवाहक होने के कारण यह शब्द बाद में कुछ सुधार के साथ अपभ्रंश के रूप में हल्बा में परिवर्तित हो गया। अ़ंग्रेज विद्वान जी.के. गिल्डर हल्बा की उत्पत्ति कन्नड़ शब्द हल्बारू से मानते हैं। जिसका अर्थ होता है-प्राचीन। मिथकीय कथायें और विद्वानों के मत भिन्न हो सकते हैं लेकिन आदिम अर्थव्यवस्था और सभ्यता के विकास क्रम का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि आखेटक स्थिति से कृषि मूलक अर्थव्यवस्था में आगमन के चरण में स्थानांतरित कृषि से स्थायी कृषि अर्थव्यवस्था में जिन आदिम जातियों ने हल को धारण किया, उनके सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक स्थिति में व्यापक परिवर्तन हुआ। हल्बी में शिकार खेलने के लिये पारद खेलतो और स्थानांतरित कृषि के लिए डाही डोसतो शब्द बोलचाल में प्रयुक्त होते हैं।

हल और बाहना से हल्बा उत्पत्ति


कृषि कार्य में हल की उपयोगिता और चिवड़ा ( पोहा ) के पारंपरिक उपकरण  बाहना से मिलकर हल्बा शब्द का निर्माण हुआ है। हल्बा मूलत: कृषक जनजाति है। अत्यधिक अन्न उत्पादन से शेष बचे धान को हल्बिन महिलायें  उसनकर (उबालकर), हंडी में धीमे आंच में तपाकर मूसल और चाटू की सहायता से बाहना में कूटती हैं। इस प्रक्रिया से चिवड़ा (पोहा) उत्पादित होता है। इस चिवड़ा को हल्बा जाति की महिलायें बाजार में बेचकर घर-परिवार की अर्थव्यवस्था में योगदान देती हैं। चिवड़ा कूटना हल्बा जाति की महिलाओं का पारंपरिक व्यवसाय है।

सुख-चिवड़ा का बस्तर की संस्कृति में योगदान


चिवड़ा का बस्तर की संस्कृति में सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण योगदान है। हल्बा समाज के साथ अन्य समाजों में मांगलिक कार्य विशेषकर माहला (सगाई), विवाह के विभिन्न रस्म पूरे होने के पश्चात चिवड़ा गुड़ देने का रिवाज है। चिवड़ा गुड़ ने बस्तर के सभी समाजों को एक सूत्र में पिरोकर सामाजिक सद्भाव में मिठास घोलने का कार्य सदियों से किया है। इसलिये इसे बस्तर में सुख-चिवड़ा के नाम से जाना जाता है।

सरगी (साल) पत्तों के दोनी में चिवड़ा के साथ गुड़ मिलाकर देने का सांकेतिक अर्थ-रस्म विशेष की पूर्णता को बयान करता है। बस्तर के कुछ क्षेत्र विशेष में मुरिया-गोंड समाज के लोग नवाखानी पर्व के अवसर पर हल्बिन महिला के हाथ का बना चिवड़ा ही अपने कुलदेवता में अर्पित करते हैं। 

हल्बा बस्तर की मूल जनजाति है


क्या हल्बा अन्य राज्य से प्रवासित जनजाति है ? इतिहासकार, साहित्यकार और भाषा विज्ञानियों ने बस्तर की भौगोलिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिदृश्य के समुचित अध्ययन के बगैर हल्बा को काकतीय राजा अन्नमदेव से संबंध जोड़कर वारंगल (तेलंगाना ) से प्रवासित जनजाति का दर्जा दे दिया। वास्तविकता ठीक इसके उलट है। ऐतिहासिक प्रमाण उल्लेख करते हैं कि वारंगल, तेलंगाना में लगातार मुस्लिम आक्रमण से नये साम्राज्य की स्थापना का स्वप्न लिये सन 1317 में चालुक्यवंशी अन्नमदेव ने बस्तर की ओर रूख किया था। कुलदेवी माई दन्तेश्वरी के आशीर्वाद से मात्र 2000 सैनिकों के साथ अन्नमदेव ने बस्तर प्रवेश किया था। जनजातियों के तगड़े प्रतिरोध के बाद सन 1324 में बस्तर में काकतीय वंश की स्थापना हुई।
                 हल्बा बस्तर की मूल जनजाति है। यदि हल्बा काकतीय राजा के साथ वारंगल, तेलंगाना से आये होते, तो निश्चित रूप से हल्बाओं की मातृबोली हल्बी में तेलुगु शब्दों की भरमार होती जबकि हल्बी में तेलुगु शब्दों का पूर्णत: अभाव है। यदि हल्बा वारंगल से सैनिक वेश में आये होते तो निश्चित रूप से महिलाओं, बच्चों और रिश्तेदारों को छोड़कर आये होते और उनके कुल-कुटुंब के वंशज आज भी तेलंगाना में पूर्ण अस्तित्व के साथ आबाद होते लेकिन वर्तमान में वारंगल और तेलंगाना के अन्य स्थानों में हल्बा समाज का अस्तित्व ही नहीं है।                     बस्तर रियासत के दीवान पण्डा बैजनाथ, आर.व्ही.रसेल, हीरालाल और बस्तर भूषण के रचनाकार केदारनाथ ठाकुर अपने लेखों में हल्बा को बस्तर की मुरिया जनजाति उल्लेखित करते है। बस्तर में सदियों से निवासरत अन्य जातियों से हल्बा की उच्च सांस्कृतिक स्थिति के कारण कुछ विद्वान इस जनजाति को अन्य राज्य से प्रवासित बताने की भूल करते हैं। रियासतकालीन प्रथम प्रकाशित ग्रंथ बस्तर भूषण (1908 ) के अनुसार हल्बा बस्तर में आदिकाल से निवासरत 24 जातियों में सांस्कृतिक समृद्धि के मामले में उच्च पायदान पर है।                         काकतीय शासनकाल में विश्वासपात्र सैनिक, राजकीय प्रशासन में भागीदारी और राज परिवार से निकट संपर्क के कारण आचार-विचार,रहन-सहन, वेशभूषा में परिवर्तन से हल्बाओं की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति में सुधार हुआ जिसके कारण समकालीन आदिम और परंपरागत जातियों से हल्बा की स्थिति भिन्नता लिए हुये है। आर. व्ही.रसेल और हीरालाल (1916) लिखते हैं कि हल्बी बोली इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि हल्बा जाति पूर्णत: जनजातीय पृष्ठभूमि से सरोकार रखती है।

बस्तर इतिहास में हल्बा समाज का योगदान

ऐतिहासिक दृष्टि से बस्तर में 7 वीं शताब्दी से 9 वीं शताब्दी तक नलवंश और नौवीं शताब्दी से 13 वीं शताब्दी तक नागवंश का शासनकाल था। नलवंशी और नागवंशी शासन के दौरान हल्बा राजाओं का उल्लेख मिलता है। प्राचीन बस्तर (चक्रकोट) की राजधानी बारसूर छिंदक नागवंशी राजाओं की समृद्ध विरासत की साक्षी है। नागवंश शासन में ही हल्बी भाषा का जन्म हुआ।
                 काकतीय शासन में  लोकभाषा हल्बी बस्तर रियासत की राजभाषा थी। बस्तर की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था में हल्बा जनजाति का योगदान अतुलनीय है। रियासत काल में दीवान का पद हल्बा व्यक्ति को दिया जाता था। बस्तर राजा के विश्वस्त मंत्रियों और सलाहकारों में पांच नाईक की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती थी।
                ये पांच नाईक राजा के पांच रत्नों के समान न्यायिक कार्य में सहयोग प्रदान करते थे। नाईक, देहारी, दीवान, प्रधान, कुपाल, बाकड़ा, भंडारी, समरथ, मांझी, कुदराम आदि राजाओं की ओर से हल्बा समाज को दिये गये पद हैं, जिसे आज भी उपनाम के तौर पर प्रयोग किया जाता है।

बड़े डोंगर हल्बा समाज का प्राचीन काल से मुख्यालय है      

बस्तर की प्राचीन राजधानियों में से एक बड़े डोंगर हल्बा समाज का प्राचीन काल से मुख्यालय है। अन्य समाज से हल्बाओं में संगठन क्षमता, सैन्यवृत्ति और नेतृत्व गुणों के आधिक्य के कारण ये सदैव राजाओं के भरोसेमंद रहे। इन्हीं गुणों के कारण राजाओं को हमेशा भय रहता था कि कहीं अन्य जातियों को हल्बा शासन के विरुद्ध विप्लव के लिए बाध्य न कर दें।
                लंबे समय तक बड़ेडोंगर को बस्तर की राजधानी होने का गौरव प्राप्त है। अन्नमदेव से लेकर कमलचंद्र भंजदेव तक बस्तर के सभी राजाओं का राजतिलक बड़ेडोंगर में सम्पन्न हुआ है। जिस पत्थर पर नये राजा को बैठाकर राजतिलक की रस्म की जाती है, उस पत्थर को  गादी पखना के नाम से जाना पहचाना जाता है। बस्तर और कांकेर के राजाओं का राजतिलक हल्बा सरदारों द्वारा ही सम्पन्न करने की रियासतकालीन परंपरा है।

बस्तर दशहरा में तलवार और राजा के छत्र को लेकर हल्बा चलते है     

बस्तर में बत्तीस बहना, चौरासी पाड़ देवी-देवताओं की पुरातन परंपरा है। काकतीय शासनकाल से पूर्व नल-नागवंशी काल से ही हल्बा अधिकांश देवी-देवताओं के पुजारी हैं। मावली, दंतेश्वरी और विभिन्न आंगादेव के पुजारी हल्बा हैं। बस्तर दशहरा में तलवार और राजा के छत्र को लेकर हल्बा चलते हैं। राजा के अंगरक्षक के रूप में इनकी प्रतिष्ठा है।
            बस्तर राज की विरासत कालबान बंदूक को दशहरा में कालबानिया हल्बा धारण करता है। विश्वप्रसिद्ध बस्तर दशहरा निर्विघ्न संपन्न हो, इस आशय से नौ दिनों तक उपवास रहकर हल्बा जाति का सदस्य ही जोगी बनकर योग साधना में लीन रहता है। बस्तर रियासत में महत्वपूर्ण नाईक के पद पर राजा द्वारा हल्बा को ही नियुक्त करने की परंपरा है।

हल्बा विद्रोह -(1774-1779)

राजगद्दी को लेकर दो राजकुमारों अजमेर सिंह और दरियावदेव के मध्य उत्तराधिकार युद्ध ने हल्बा विद्रोह को जन्म दिया। अजमेर सिंह राजा दलपतदेव की पटरानी का पुत्र था,जिसे युवावस्था में ही बड़ेडोंगर का अधिपति नियुक्त किया गया था। राजा अपनी सौतेली रानी के प्रेम में पड़कर दरियावदेव को गद्दी सौंपना चाहते थे। राजगद्दी को लेकर छिड़े विवाद में हल्बा सरदारों ने अजमेर सिंह का पक्ष लिया था। हल्बा सेना की सहायता से अजमेर सिंह ने जगदलपुर को घेर लिया था। पहली लड़ाई हल्बा सैनिकों ने जीत ली थी। दरियावदेव को हार के बाद जैपुर राजा के यहां शरण लेनी पड़ी।
                जैपुर राजा एवं ब्रिटिश और मराठों के साथ समझौता के तहत दरियावदेव को विशाल सैन्य सहायता मिली। गठबंधन सेना के बल पर अजमेर सिंह पर दरियावदेव ने आक्रमण कर दिया। लंबी लड़ाई के बाद अजमेर सिंह की हार हुई। भारी संख्या में हल्बा सैनिकों को क्रूरतापूर्वक मार डाला गया। दो वर्षों तक चले युद्ध में 2500 से अधिक हल्बा मारे गये। बंदी सैनिकों को ताड़ झोंकनी जैसा दण्ड दिया गया। कई हल्बाओं को चित्रकोट जलप्रपात में फेंक दिया गया। कईयों की आखें तक फोड़ी गईं।
                कईयों को हाथी के नीचे कुचला गया। दरियावदेव के क्रूर व्यवहार से कुछ ही हल्बा प्राण बचाने में सफल रहे। अंतत: हल्बा सरदारों के साथ दरियावदेव के मध्य समझौते के बाद हल्बा विद्रोह समाप्त हुआ। ऐतिहासिक दृष्टि से छत्तीसगढ़ में अजमेर सिंह  क्रांति के पहले मसीहा हैं। हल्बा विद्रोह के बाद अस्तित्व संकट ने हल्बा समाज में बिखराव पैदा किया।

परलकोट विद्रोह -(1824-25)


आदिवासी स्वाभिमान और मातृभूमि की आजादी के लिए परलकोट रियासत के भूमिया राजा गेंदसिंह बाऊ के नेतृत्व में सन 1824 में हल्बा, मुरिया और अबुझमाड़िया आदिवासियों ने तत्कालीन शासन के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूंका था। जिसे इतिहास में  परलकोट विद्रोह अथवा अबुझमाड़ विद्रोह का नाम दिया गया। विद्रोह ने व्यापक रूप ले लिया था।
            अंतत: ब्रिटिश-मराठा सेना के हस्तक्षेप से विद्रोह पर काबू पा लिया गया। आदिवासियों के पारंपरिक अस्त्र-शस्त्र तीर-धनुष, टंगिया, फरसा आधुनिक बंदूकों के आगे टिक नहीं सके। विद्रोह के नायक गेंदसिंह को गिरफ्तार कर 20 जनवरी 1825 को  उनके महल के सामने इमली पेड़ पर फांसी दी गई।
            ऐतिहासिक साक्ष्य के अनुसार गेंदसिंह छ.ग.के पहले शहीद हैं लेकिन आजपर्यंत तक इस हल्बा वीर को उसके योगदान का वास्तविक सम्मान मिलना शेष है। अखिल भारतीय हल्बा समाज द्वारा प्रतिवर्ष 20 जनवरी को शहादत दिवस के रूप में गेंदसिंह के योगदान को स्मरण किया जाता है।

1910 का भूमकाल आंदोलन और हल्बा समाज का योगदान 

मुरिया राज की स्थापना के मकसद से नेतानार के धुरवा जनजाति के गुंडाधूर के नेतृत्व में 1910 में यह आंदोलन पूरे बस्तर में प्रभावशील हुआ। आंदोलन का बीजारोपण अक्टूबर 1909 में दशहरे के दिन रानी सुबरन कुंअर और लाल कालेन्द्र सिंह द्वारा अंतागढ़ तहसील, जिला कांकेर में स्थित ताड़ोकी गांव के आदिवासी सभा में जनसमूह को संबोधित करने से हुआ।राज परिवार के सदस्यों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आदिवासियों को विद्रोह के लिये प्रेरित किया।
             फरवरी 1910 तक पूरे बस्तर में इस आंदोलन का विस्तार हो चुका था। विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार को एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। भूमकाल आंदोलन में हल्बा समाज के वीरों ने भी सक्रिय भूमिका निभाई थी। बस्तर को 10 विद्रोह क्षेत्र के रूप में चिन्हित कर सभी जाति समुदाय के लोगों को नेतृत्व सौंपा गया था। दक्षिण बस्तर कोण्टा में विद्रोही नेता के रूप में धनीराम हल्बा को जिम्मेदारी दी गई थी। जगदलपुर क्षेत्र में हरि चालकी और बुद्धू मांझी (कैकागढ़),बस्तर के लिए नाईकगुड़ा के जोगी और जैतगिरी के जयसिंग  को कमान सौंपी गई थी।
            अर्जुन सिंह, सोमनाथ वैध,वीर सिंह बहीदार और नारायणपुर से बहीदार रामधर कुपाल,धरमा पातर ने भी इस आंदोलन में भाग लिया था। भूमकाल आंदोलन के क्रांतिकारियों को सरकार द्वारा आजीवन कारावास से लेकर कठोर से कठोर कारावास की सजा दी गई।सात वर्षों का कठोर कारावास हरचंद नाईक को,चार वर्षों का कठोर कारावास समारू वल्द देवीसिंह हल्बा को एवं धनीराम हल्बा (कोण्टा) को दो वर्षों के कठोर कारावास का दंड दिया गया। अन्य हल्बा वीरों ने भी इस आंदोलन में  बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था लेकिन इतिहास में वे गुमनाम हैं।

आजादी की लड़ाई में सुखदेव पातर (पातर हल्बा) की भूमिका


महात्मा गांधी से प्रेरित अहिंसक आंदोलन में भाग लेकर हल्बा क्रांतिवीरों ने भी देश की स्वतंत्रता के लिए योगदान दिया है। इन अमर बलिदानियों में ग्राम-भेलवापानी,दुर्गकोंदल, तहसील-भानुप्रतापपुर, जिला-कांकेर निवासी स्व. सुखदेव पातर (पातर हल्बा) का नाम उल्लेखनीय है। सुखदेव पातर का जन्म सन 1892 में ग्राम राउरवाही, कांकेर में हुआ था। इनके पिता का नाम रघुनाथ हल्बा था। इनके पूर्वज बहेटीपदर, डुमरतराई जिला नारायणपुर के हैं, किसी काल में कांकेर क्षेत्र में प्रवासित हुये थे।
                अंग्रेजों की शोषण नीति,अत्याचारी व्यवहार से कांकेर क्षेत्र की जनता में भारी आक्रोश व्याप्त था। 1920 में पूरे देश के साथ छत्तीसगढ़ में भी असहयोग आन्दोलन का सूत्रपात हुआ। कण्डेल नहर सत्याग्रह में आंदोलनकारियों की हौसला अफजाई के लिए महात्मा गांधी का प्रथम छ.ग.आगमन 1920 में हुआ। सुखदेव पातर अपने दो साथियों इन्दरू केंवट और कंगलू कुम्हार के साथ गांधी जी से भेंट करने कांकेर से पैदल चलकर धमतरी गये। गांधी जी के असहयोग आन्दोलन से प्रभावित होकर उन्होंने इन्दरू केंवट और कंगलू कुम्हार के साथ मिलकर दुर्गकोंदल क्षेत्र में गांधीवादी तरीके से ब्रिटिश सरकार का विरोध किया था।
                ये तीनों आजादी के मतवाले गांव-गांव घूमकर, चरखायुक्त तिरंगा झंडा लेकर हाट-बाजारों में देशभक्ति का प्रचार कर लोगों को जागरूक करते थे। सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भी सुखदेव पातर ने सक्रिय भूमिका निभाई थी। महात्मा गांधी के द्वितीय छ.ग. प्रवास 1933 ई. के दौरान सुखदेव पातर, इन्दरू केंवट और कंगलू कुम्हार गांधी जी से मिलने दुर्ग गये। इनके प्रयासों से सुरूंगदोह, भेजलपानी और दुर्गकोंदल आजादी की लड़ाई के प्रमुख केन्द्र बन गये।पातर हल्बा और साथियों की गतिविधियों से कांकेर रियासत का ब्रिटिश प्रशासन भयभीत हो उठा।
                    कांकेर रियासत के अधीक्षक रघुवीर प्रसाद ने 1933 में सुखदेव पातर और साथियों को पकड़ने के लिए दो बार अभियान चलाया।कोड़ेकुरसे बाजार और अन्य जगहों पर इन्हें तलाशा गया लेकिन वे पकड़े न जा सके। सुखदेव पातर के नेतृत्व में स्वतंत्रता की लड़ाई में आदिवासियों को प्रेरित करने खण्डी नदी के पास पातर बगीचा में एक सभा बुलाई गई, जिसमें लगभग दो हजार लोग चरखायुक्त तरंगा झंडा लिये मौजूद थे। इस बैठक में पातर हल्बा और साथियों ने लोगों को आजादी के लिए प्रेरित किया।
                    वर्ष 1944-45 में पातर हल्बा, इन्दरू केंवट और कंगलू कुम्हार के नेतृत्व में कांकेर रियासत के दीवान टी. महापात्र द्वारा भू-राजस्व(लगान) में वृद्धि किये जाने के विरोध में भू राजस्व विरोधी आंदोलन चलाया गया। इन तीनों पर ब्रिटिश हुकूमत का विरोध करने के कारण राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ और इन्हें सजा भी दी गई। देश आजाद होने पर सुखदेव पातर ने सुरूंगदोह और गोटुलमुंडा गांव में आजादी का खम्भा गाड़कर चरखायुक्त झण्डा फहराया था।
                भारत माता के सच्चे सपूत, आजादी के इस दीवाने का 09 जनवरी 1962 को स्वर्गवास हो गया। अखिल भारतीय आदिवासी हल्बा समाज  एवं इनके वंशज ढालसिंह पातर द्वारा शासन-प्रशासन से सुखदेव पातर को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का दर्जा देने की मांग की गई है लेकिन दुर्भाग्य से आज पर्यन्त तक इस देशप्रेमी सपूत को उसके योगदान का वास्तविक सम्मान नहीं मिल सका है।

हल्बा समाज की सामाजिक एवं संगठनात्मक व्यवस्था

वर्तमान में  हल्बा समाज पांच महासभा में विभक्त है। पांचों महासभा के सगा बिरादरों को संगठित करने के उद्देश्य से अखिल भारतीय आदिवासी हल्बा समाज से सम्बद्ध किया गया है।

18 गढ़ हल्बा समाज

कांकेर शिलालेख 1210 ई.में पहली बार हल्बा पट्टी के रूप में 18 गढ़ों का उल्लेख मिलता है। इससे यह तथ्य प्रमाणित होता है कि अन्नमदेव के सिंहासनारूढ़ होने की तिथि 1324 ई.से पूर्व बस्तर में हल्बा राजाओं का शासन था। डॉ.हीरालाल शुक्ल के अनुसार सन 1465 - 1502 के मध्य बस्तर राजा ने 18 गढ़ों पर कब्जा कर व्यवस्थित करने का प्रयास किया था।इसका तात्पर्य है कि काकतीय शासकों को स्वाभिमानी हल्बा योद्धाओं से अनवरत संघर्ष करना पड़ा था।
                1502 ई. में प्रतापराज देव ने 18 गढ़ों को जीतकर अपने छोटे भाई को बड़ेडोंगर का अधिपति नियुक्त किया था। अजमेर सिंह, दलगंजन सिंह,लाल कालेन्द्र सिंह आदि बस्तर राजपरिवार के सदस्य ही रियासत काल में 18 गढ़ों के स्वामी नियुक्त होते थे। राजशाही काल में इन 18 गढ़ों में राजा द्वारा अपने विश्वासपात्र हल्बा योद्धाओं को  गढ़पति नियुक्त किया जाता था।

18 गढ़ हल्बा समाज की सामाजिक व्यवस्था 

बस्तर अंचल की हल्बा जनजाति ने 18 गढ़ हल्बा समाज महासभा के रूप में स्वयं को संगठित किया है। महासभा का मुख्यालय बड़ेडोंगर है। महासभा द्वारा लोकतांत्रिक प्रक्रिया से अध्यक्ष का मनोनयन 5 वर्षों के कार्यकाल के लिए होता है। व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका का गठन कर समाज को सुचारू रूप से संचालित किया जाता है। न्यायिक कार्य के लिए  " पांच नाईक " की व्यवस्था है। न्यायपालिका का अलग से गठन नहीं होता।
                महासभा कार्यकारिणी में संरक्षक,पांच नाईक, अध्यक्ष,उपाध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, महासचिव, संभाग अध्यक्ष होते हैं। सामाजिक उत्थान हेतु युवा, कर्मचारी एवं महिला प्रकोष्ठ का गठन किया जाता है। ग्राम,गढ़, संभाग और महासभा से 18 गढ़ हल्बा समाज की सामाजिक, सांगठनिक व्यवस्था का निर्माण होता है। वार्षिक महासभा में विभिन्न प्रकरणों का निपटारा सर्व बिरादरों की उपस्थिति और सहमति में होता है। एजेंडा का निर्माण महासभा बैठक से पूर्व कार्यकारिणी बैठक में किया जाता है।
                समाज के लिये नियम बनाने का अधिकार ग्राम,गढ़, संभाग को नहीं है। वर्तमान में यह महासभा अखिल भारतीय आदिवासी हल्बा समाज 18 गढ़ हल्बा समाज मुख्यालय - बड़ेडोंगर के रूप में पंजीकृत है। बस्तर संभाग के अतिरिक्त उड़ीसा के कोकसरा,सिहावा (धमतरी,छ.ग.) और महाराष्ट्र के झाड़ापापड़ा में इस महासभा के सगा -बिरादर निवासरत हैं। 18 गढ़ों में बड़ेडोंगर को माथगढ़ (शीर्ष गढ़) का दर्जा दिया जाता है। द्वितीय गढ़ छोटेडोंगर और तीसरे गढ़ के रूप में नारायणपुर की मान्यता है।

पांच नाईक और पंच ईमली

बड़ेडोंगर में राजशाही काल में दैवी संस्कार संपन्न करने के लिए राजा द्वारा पांच नाईक को नियुक्त किया गया था।पांच नाईक की उपस्थिति में ही बड़ेडोंगर में दैवी कार्य पूर्ण कराने की परंपरा थी। पांच नाईक की प्रतिष्ठा में वृद्धि होने से राजा द्वारा न्यायिक कार्य में भी इनका सहयोग लिया गया। ये पांच नाईक पांच इमली के पेड़ के नीचे बैठकर न्यायिक कार्य करते थे।
                वर्तमान में ये पंच ईमली के वृक्ष धराशायी हो चुके हैं। पांच ईमली के वृक्षों का समूह संवसार बन्धा बड़ेडोंगर में स्थित था। बड़ेडोंगर से जगदलपुर राजधानी परिवर्तन के बाद बस्तर राजा द्वारा दैवी कार्य का प्रभार सौंपकर तथा अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर इन पांच नाईक को समाज को सौंपा गया था। इन पांच नाईक में प्रधान को सर्वश्रेष्ठ दर्जा प्रदान किया गया था।
                अन्य चार नाईक गागड़ा, कुदराम, समरथ और मांझी हैं। बस्तर अंचल के हल्बा जनजाति में दो वर्ग पाये जाते हैं पुरित/पुरैत/पुरहित और सुरित/सुरैत/सुरहित। पुरित श्रेणी के हल्बाओं ने अपने आपको 18 गढ़ हल्बा समाज से सम्बद्ध किया है जबकि सुरित हल्बा ने अपना पृथक अस्तित्व बनाने के प्रयास में 32 गढ़ हल्बा समाज का निर्माण किया है। हकीकत यह है कि 90 के दशक से पूर्व तक सुरित हल्बा भी 18 गढ़ की ही एक शाखा थी। प्रारंभ में यह वर्ग 18 गढ़ सुरित के नाम से जाना जाता था। बाद में गढ़ों की संख्या बढ़कर 32 हो गई।

32 गढ़ हल्बा समाज महासभा

महासभा का मुख्यालय बड़ेडोंगर में स्थित है।32 गढ़ हल्बा समाज भी 18 गढ़ की तरह माथगढ़ (शीर्ष गढ़) का दर्जा बड़ेडोंगर को देता है। महासभा कार्यकारिणी में संरक्षक,अध्यक्ष, उपाध्यक्ष,अध्यक्ष ( न्याय समिति ), महासचिव, सचिव, कोषाध्यक्ष एवं कार्यकारिणी सदस्यों का मनोनयन सर्व सम्मति से होता है। युवा एवं महिलाओं के उत्थान के लिए पृथक से प्रकोष्ठ का गठन किया गया है। वार्षिक महासभा में विभिन्न सामाजिक प्रकरणों का निराकरण सर्व सम्मति से होता है।बस्तर संभाग के अतिरिक्त उड़ीसा, महाराष्ट्र के भापड़ा और छत्तीसगढ़ में बिन्द्रानवागढ़ क्षेत्र, धमतरी जिला में इस महासभा के सदस्य आबाद हैं।

बालोद महासभा

हल्बा क्रांति के बाद समाज में बिखराव उत्पन्न हुआ।कुछ हल्बा समूह बस्तर छोड़ छत्तीसगढ़ क्षेत्र में पलायन कर गए एवं छत्तीसगढ़ी संस्कृति को आत्मसात कर लिया। छत्तीसगढ़ी संस्कृति से प्रभावित हल्बा समाज ने पृथक से महासभा का गठन 1940 में बालोद महासभा के नाम से किया। बालोद महासभा के सगाजन दुर्ग, राजनांदगांव, बालोद, रायपुर, धमतरी  एवं बस्तर के कांकेर जिले में विस्तारित हैं। इस महासभा के हल्बा सदस्यों की भागीदारी सरकारी सेवाओं में सर्वाधिक है।

मध्यप्रदेश महासभा (लांजी)

मध्यप्रदेश  के बालाघाट, लांजी गढ़, छिंदवाड़ा, सिवनी, मंडला जिले के कुछ क्षेत्रों में हल्बा समाज आबाद है। इन्होंने भी पृथक से महासभा का निर्माण किया है।

महाराष्ट्र महासभा (गोंदिया)

महाराष्ट्र के गोंदिया,भंडारा एवं नागपुर क्षेत्र में भी बहुतायत से हल्बा समाज आबाद है। मराठी सँस्कृति से प्रभावित ये हल्बा महाराष्ट्र महासभा के नाम पर संगठित हैं और चारों महासभा की तरह अखिल भारतीय आदिवासी हल्बा समाज से सम्बद्ध हैं। इस महासभा का मुख्यालय गोंदिया में है।

समाज का एकीकरण एवं शक्ति दिवस का महत्व

हल्बा क्रांति के बाद अस्तित्व संकट ने हल्बाओं को बस्तर से अन्य राज्यों की ओर पलायन के लिए बाध्य किया।जिस हल्बा समूह ने जिस प्रदेश में पलायन किया, वहां की संस्कृति को आत्मसात कर लिया। उड़िसा में बसे हल्बा समाज पर उत्कल संस्कृति, महाराष्ट्र के सगा बिरादर पर मराठी सँस्कृति, छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्रों में बसे समाज पर छत्तीसगढ़ी संस्कृति,और म.प्र.के बालाघाट, छिंदवाड़ा, सिवनी में बसे हल्बा समाज पर बुंदेलखंडी संस्कृति का प्रभाव साफ झलकता है।
            देश के विभिन्न भागों में भिन्न -भिन्न संस्कृति को आत्मसात कर चुके हल्बा समाज को एकता के सूत्र में बांधना भगीरथी प्रयास से कम नहीं है।इस दुष्कर कार्य को करने का जिम्मा अखिल भारतीय हल्बा आदिवासी कर्मचारी प्रकोष्ठ ने अपने कंधों पर लिया।

कर्मचारी प्रकोष्ठ का प्रथम अधिवेशन 1991 में भिलाई नगर में हुआ था       

अखिल भारतीय हल्बा आदिवासी कर्मचारी प्रकोष्ठ का गठन सन 1990 में भिलाई और रायपुर में सरकारी सेवा में कार्यरत समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने किया। कर्मचारी प्रकोष्ठ का प्रथम अधिवेशन 1991 में भिलाई नगर एवं द्वितीय अधिवेशन अप्रैल 1992 में रायपुर में हुआ। अधिवेशन का मुख्य उद्देश्य था विभिन्न क्षेत्रों में बसे सांस्कृतिक विविधता लिये हल्बा समाज को एकता के सूत्र में बांधकर अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान करना।
             1994 में कर्मचारी प्रकोष्ठ के प्रयास से अखिल भारतीय आदिवासी हल्बा समाज का गठन हुआ। देशभर में बसे हल्बा जनजाति के आचार-विचार, रहन-सहन, रीति-रिवाज एवं धार्मिक मान्यताओं के अध्ययन के बाद सन 1995 में पांचवां अधिवेशन कोण्डागांव में स्वर्गीय एस.आर.एल्मा के नेतृत्व में सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन में पहली बार महाराष्ट्र, बालोद और बालाघाट महासभा के सगा बिरादरों को हल्बा संस्कृति और रीति -नीति की जानकारी मिली।

हल्बा समाज के प्रतीक और झण्डा को अंतिम रूप से स्वीकृति हेतु 26 दिसंबर 1997 को दिया गया     


हल्बा समाज के प्रतीक और झण्डा को अंतिम रूप से स्वीकृति हेतु 26 दिसंबर 1997 को अंतिम राष्ट्रीय बैठक 18 गढ़ हल्बा समाज भवन, पत्थरागुड़ा, बड़ेडोंगर में सम्पन्न हुई। इस बैठक में महाराष्ट्र, बालाघाट, बालोद महासभा सहित बस्तर अंचल के 18 गढ़ हल्बा समाज के पदाधिकारी और सगा बिरादर शामिल हुये। बैठक में बालोद महासभा से प्रमुख रूप से श्री बहुर सिंह रावटे, श्री मुन्नालाल ठाकुर, श्री देव प्रसाद आर्य, 18 गढ़ महासभा से श्री लक्ष्मण सिंह प्रधान और स्व.एस.आर.एल्मा एवं 32 गढ़ महासभा से स्व. जलदेव प्रधान की मुख्य भूमिका रही।                 कर्मचारी प्रकोष्ठ के श्री पी.आर.नाईक, श्री जी.आर.राना  श्री, किशन मानकर और श्री ओ.एस.जमदार ने सामाजिक एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बैठक में समाज के झण्डे और प्रतीक चिन्ह को मान्यता दी गई। सभी महासभा के सामाजिक सदस्यों ने एक झण्डा, एक प्रतीक, एक भाषा-बोली और संस्कृति को 26 दिसंबर 1997 को मान्यता प्रदान किया। इसी दिन से क्षेत्रीय और सांस्कृतिक विविधता के बावजूद सभी हल्बा एकता के सूत्र में बंध गये। इस दिन को ऐतिहासिक मानते हुये प्रतिवर्ष 26 दिसंबर को हल्बा समाज राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाता है।

एक समान संस्कृति के पालन से ही समाज में एकता कायम होगी       

सामाजिक एकीकरण एक पेचीदा विषय है। संस्कृति और क्षेत्रीय आधार पर महासभाओं का गठन एकीकरण में बाधक है। बस्तर में आदिकाल से निवासरत हल्बा जनजाति की संस्कृति ही मूल हल्बा संस्कृति है। एकीकरण में बाधक अन्य कारण पांचों महासभा में अहं और वर्चस्व की लड़ाई है। जब तक अहं और वर्चस्व का दंभ बना रहेगा, एकीकरण सुनहरा सपना ही प्रतीत होगा। मेरे विचार से संस्कृति ने सदियों से समाज को जोड़कर संगठित करने का कार्य किया है।
            एक समान संस्कृति के पालन से ही समाज में एकता कायम होगी। आधुनिक युग में रूढ़िजन्य परंपराओं और प्रथाओं का पालन कितनी शिद्दत से कर  पाते हैं ? और जनजातीय समाज की मूल अवधारणा को संरक्षित कर पाने में समाज किस हद तक सफल हो पाया है ? वर्तमान तकनीकी युग में यह यक्ष प्रश्न  समाज के लिए मुख्य चुनौती है। पुन: माई दन्तेश्वरी को स्मरण करते हुये अखिल भारतीय आदिवासी हल्बा समाज को 24 वें शक्ति दिवस महापर्व की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें। जय हल्बा, जय शक्ति।


भागेश्वर पात्र, शिक्षक, साहित्यकार एवं सामाजिक शोधकर्ता,
मो.नं.-9407630523, जिला नारायणपुर, (छत्तीसगढ़)


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