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विश्व के देशजजनों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस और देशज समुदाय की दयनीय स्थिति पर एक चिंतन

विश्व के देशजजनों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस और देशज समुदाय की दयनीय स्थिति पर एक चिंतन 


आपके विचार दैनिक गोंडवाना समय अखबार
सम्मल सिंह मरकाम
वनग्राम-जंगलीखेड़ा, गढ़ी, तहसील-बैहर,जिला-बालाघाट (म.प्र)

संयुक्त राष्ट्र संघ के संयुक्त राष्ट्र कार्यकारी समूह (यूएनडबल्यूजी ) द्वारा देशज समुदाय के मानवाधिकारों की सुरक्षा व उन्नयन हेतु प्रथम बैठक 9 अगस्त 1982 को रखी गई थी। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र  महासभा ने संकल्प क्र 49/214 के माध्यम से 23 दिसम्बर 1994 को निर्णय लिया कि 9 अगस्त अब प्रतिवर्ष विश्व के देशज लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जावेगा।
                विश्व के समस्त इंडीजीनस पीपुल्स 9 अगस्त को इंटरनेशनल डे आफ द वर्ल्ड इंडीजीनस पीपुल्स" मनाते हैं। भारत के देशज समुदाय अर्थात कोयतुरियन समुदाय भी इस दिवस को धूमधाम से मनाते आ रहे हैं। विदेशी युरोपियन विद्वान अक्सर कहा करते हैं कि "भारत के पास अतीत तो है लेकिन इतिहास नही है" ये बात सच हो सकती है, लेकिन यह पूरी तरह सच नही है। जो विदेशी लोग भारत के इंडीजीनस, ( देशज, स्वदेशी, कोयतुरियन ) को नही जानते हैं वे अक्सर इस तरह के अधूरे सच को पूरा सच मान लेते हैं और विभिन्न रूप से प्रायोजित प्रोपेगेंडा का शिकार हो जाते हैं।

देशज समुदाय का अस्तित्व भी संकटमय स्थिति मे है 


संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी घोषणा अनुसार समूचे विश्व में वर्ष 2023 हेतु निर्धारित विषय- "आत्मनिर्णय के लिए परिवर्तन के एजेंट के रूप मे स्वदेशी युवा" पर यूएनओ मुख्यालय न्यूयॉर्क मे देशज समुदाय के मुख्य समस्याओं पर स्पेशल पैनल डिस्कशन के साथ सम्पन्न हो होगी। राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय नीतियां देशज समुदाय को कानूनी रूप से पूर्ण स्वतंत्रता देती है कि वे अपनी परंपरागत पहचान को बनाए रखेंगे।
                भारत के विभिन्न क्षेत्रों मे देशज समुदाय अपनी विविध सांस्कृतिक मूल्यों एवं कलाओं के साथ अपनी विशिष्ट पहचान व अलग अस्तित्व बनाए हुए हैं। जिसे नकारा नही जा सकता है। भारत के संदर्भ मे आज पाते है कि देशज समुदाय की युवा शक्तियां ही देशज की देशजत्व परंपराओं, रीति-रिवाज, रहन-सहन, पाबुन पड्डुम, नेंगे-सेंग मिजान के असली वाहक हैं।
                वैश्विक चिंतन का विषय है आज देशज व्यवस्था की नीव हिल चुकी है, जो न केवल उनकी संस्कृति, पहचान, कोयापुनेम के लिए खतरा है, बल्कि देशज समुदाय का अस्तित्व भी संकटमय स्थिति मे है। यह सब ताकतवर षडयंत्रकारी तत्व, देशज समुदाय को कमजोर करने के लिए लगातार शोषण कर रहे हैं और देशज समुदाय पर अपनी संस्कृति, भाषा, त्यौहार, नाम, कर्मकांड, धर्म, विचार आदि को जबरन थोपते जा रहे हैं।                             समझने और चिंतन करने की बात है कि षड्यंत्र का ही हिस्सा है कि आज कोयतुरियन समुदाय को कई तुच्छ नामो से संबोधित कर उसकी मूल पहचान से दूर किया जा रहा है। आज इस विनाशकारी रणनीति को समझकर भारत के देशज समुदाय को इससे बाहर निकलने की जरूरत आन पड़ी है। 

बेदखली का शिकार ज्यादातर देशज समुदाय ही हुआ है 


देशज समुदाय के अधिकारों के अनुक्रम में आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की एक महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा है, जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ ने 16 दिसंबर 1966 को अंगीकार किया था। इसी प्रसंविदा के भाग-तीन मे कार्य का अधिकार, आर्थिक,  सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा, महत्वपूर्ण प्रसंविदा के रूप मे दर्ज है।
                 देशज समुदाय बेहतर जीवन जीने की बजाय, आज भी उसका मूल संघर्ष जीवन-यापन के संसाधनों जैसे जल, जंगल, जमीन व सांस्कृतिक पहचान, स्वतंत्र धार्मिक पहचान की बेदखली के विरोध मे निरंतर जारी है।स्वतंत्रता के पूर्व व पश्चात भी सबसे ज्यादा बेदखली का शिकार ज्यादातर देशज समुदाय ही हुआ है। इन कारणों से देशज समुदाय में संघर्ष की चेतना भी जागृत हुई है। आज देशज समुदाय मे उसका असर दिखाई पड़ती है कि स्वतंत्र नेतृत्व के लिए संघर्षरत है।

तब जाकर बमुश्किल कुछ अधिकार प्राप्त कर पाता है 

देशज समुदाय के मानवाधिकारों का अध्ययन करते हैं तो सर्वप्रथम हम संयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर 1945 की उद्देश्यिका मे पाते हैं कि मूल मानव अधिकारों के प्रति, मानव के गरिमा के प्रति, पुरूष व स्त्रियों, छोटे व बड़े राष्ट्रों के प्रति, समान अधिकारों की बात की गई है। इस बात से बिल्कुल स्पष्ट है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य मे मानव की गरिमा में अनुसूचित जनजाति भी अंतर्निहित है। 
                मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा 1948 की उद्देश्यिका में भी सभी व्यक्तियों की गरिमा एवं समान अधिकारों की बात स्वीकार की गयी है। अनुच्छेद 27 के अंतर्गत सांस्कृतिक जीवन मे भाग लेना प्रत्येक मानव का मानवाधिकार है। मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए एक ऐसे दस्तावेज की आवश्यकता महसूस की गयी, जो राज्य पक्षकारों को उसमें उल्लेखित अधिकारों के प्रवर्तन के लिए बाध्य है। इसकी पूर्ति के लिए राजनैतिक अधिकारों से संबंधित प्रसंविदा को अंगीकार किया गया।
                इस प्रसंविदा में प्राण का अधिकार, यातना व अमानवीय व्यवहार से मुक्ति का अधिकार, दासता और बलात्श्रम से मुक्ति का अधिकार, स्वतंत्रता एवं दैहिक सुरक्षा का अधिकार,  विरोधी के साथ मानवीय व्यवहार का अधिकार, अन्य देशियों को मनमाने निष्कासन के विरुद्ध अधिकार, संचरण व आवास के चयन का अधिकार, विधि के समक्ष एक व्यक्ति के रूप में मान्यता का मानवाधिकार, राजनैतिक अधिकार, (राज्य कार्य के संचलन मे भाग लेने, मत देने और लोक पदों पर चयनित होने का अधिकार) आदि। आज भी देशज समुदाय को इन अधिकारों को पाने के लिए बहुत तकलीफ व बाधाओं को पार करना होता है, तब जाकर बमुश्किल कुछ अधिकार प्राप्त कर पाता है।

प्रायोजित रूप से मानवाधिकार का नामोनिशान मिटाने का प्रण ले लिया है 

मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा करने वाले राष्ट्र संघ चार्टर और नागरिक व राजनैतिक अधिकारों पर ऐतिहासिक जेनेवा सम्मेलन के प्रारूप बनाने वालों को शायद यह अंदाजा भी नही होगा कि भविष्य में मानवाधिकारी सरोकारों का स्तेमाल राजनैतिक कूटनीति के साथ किया जावेगा।
            वरना यह नजारा देखने की नौबत ही नही आती, जो आज देश के विभिन्न क्षेत्रों मे देखने को मिलती है। ज्वलंत उदाहरण है कि देश के देशज समुदाय के नरसंहारों से जमी लाल हो रही है। वहीं प्रकृति दिन-रात उजड़ रही है, जंगल खोखले हो रहे हैं, उक्त मानवीय तांडव देखकर प्रतीत होता है कि यहां कोई प्रायोजित रूप से मानवाधिकार का नामोनिशान मिटाने का प्रण ले लिया है। 

जिओ और जीने दो का सिद्धांत गढ़ा 

राष्ट्र मे विकास विमर्श आंतरिक रूप में इतना विविधता मूलक है जितना कि हमारे जंगलों, पहाड़ों, एवं वन्य भूमि मे व्याप्त आश्चर्य चकित करने वाली जैव विविधता विद्यमान है। हालांकि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमे अपेक्षाकृत ऊर्जा नही दे पा रही है क्योकि कहीं पर हम भी इस विविधता को संरक्षित नही कर पाये हैं। आज कौतुहल का विषय है कि विकास के प्रारंभिक दौर में मानव को अपने अधिकारों का ज्ञान नही था।
                उस समय जो बलशाली होते थे, वे जाने-अनजाने दूसरों के अधिकारों का हनन करते थे। धीरे-धीरे शिक्षा व सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव का मस्तिष्क भी परिष्कृत होता गया और अधिकार बोध के साथ उसमें अधिकारों को पाने की लालसा जाग उठी थी। तब मानव ने अपनी बुद्धि और विवेक से खुद जिओ और जीने दो का सिद्धांत गढ़ा। अब मानव दूसरों के सुख में खुशी व दूसरों के दुख में रोना सीख लिया है।

देशज समुदाय की बुनियाद की जड़ें खुद-ब-खुद हिल जायेंगी 

इक्कीसवीं शताब्दी में विकास की दर निरंतर बढ़ रही है। वहीं देशज समुदाय के सम्मुख अनेक चुनौतियां मुंह उठाये खड़ी हैं। एक तरफ तो आधुनिक सभ्यता व औद्योगिक विकास के विविध आयाम है, तो दूसरी ओर देशज समुदाय की सांस्कृतिक धरोहरों, परम्पराओं और रीति-रिवाजों को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी हैं।
            देशज समुदाय विकास मे हिस्सेदारी तो अवश्य चाहता है किंतु यह भी जानता है कि उसने जैसे ही अपने संस्कृति रीति-रिवाज व कोयापुनेम को भुला दिया तो देशज समुदाय की बुनियाद की जड़ें खुद-ब-खुद हिल जायेंगी।
             क्योंकि जब तक हम अपनी मौलिक परम्पराओं, रूढी़ प्रथाओं को मानते हैं व आत्मसात करते हैं तब तक हम देशज समुदाय के अंग हैं अन्यथा विभिन्न राज्यों में अपने रीति-रिवाज व परम्पराओ को छोड़ने के कारण कुछ देशज समुदाय संविधान की अनुच्छेद 366 (25) की सूची से बाहर किये जा चुके हैं, की स्थिति मे आने मे देर नही लगेगी। 

देशज समुदाय से संबंधित मुद्दे अंतर्राष्ट्रीय पटल में कई स्तर में उठ रहे हैं 

देशज समुदाय की अपनी स्वतंत्र प्रथाओं, परम्पराये व संस्कृति है। किसी भी देश के मूल निवासियों के वंशजो मे पायी जाने वाली अत्यधिक भिन्नता को समाहित करने के उद्देश्य से व्यापक श्रेणी की आवश्यकता को ध्यान में रखकर जनजातीय समुदाय के लोगों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा संबोधन हेतु विश्व स्तर पर देशज (इंडीजीनस) शब्द का प्रयोग किया जाता है।
                वहीं भारत के संदर्भ में व्यापकता के दृष्टिगत संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में "अनुसूचित जनजाति" शब्द प्रयुक्त किया जाता है। वहीं उसकी सामाजिक/ कोयापुनेमी पहचान अंतर्गत वह अपने आपको कोयतुरियन शब्द से संबोधन से गौरवान्वित होता है। देशज समुदाय की सुरक्षा का प्रथम उल्लेख अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ ) की धारा 157 के प्रस्ताव में मिलता है।
                तत्पश्चात देशज समुदाय से संबंधित मुद्दे अंतर्राष्ट्रीय पटल में कई स्तर में उठ रहे हैं। 1994 मे महासभा ने 1995-2004 के दशक को देशज लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दशक घोषित किया गया। ऐसी आशा की जाती है कि वैश्विक प्रयास से अंतत: देशज समुदाय को अंतर्राष्ट्रीय मुख्य धारा से जोड़ दिया जावेगा और इन्हे निर्णय की स्वतंत्रता व स्वायत्ता भी होगी।

शैक्षणिक व्यवस्था का निर्माण व संचालन कर सकें 

देशज समुदाय के सर्वांगीण विकास हेतु 1983 मे संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने देशज समुदाय के लोगो के लिए निम्नलिखित मूल अधिकारों की मान्यता हेतु आह्वान किया जो मुख्यत: इस प्रकार है- देशज अपने को स्वतंत्र रूप से व्यक्त कर सकें।
                    अपने पदीय हैसियत से अपने प्रतिनिधित्व संगठन बना सके। जहां बस्ते हैं वहां पारम्परिक आर्थिक ढांचे तथा जीवन पद्धति को बनाए रखें। प्रशासन व शिक्षा के लिए जहां तक संभव हो अपने देशज भाषा के प्रयोग बनाए रख सकें। अपनी आस्था व धर्म की स्वतंत्रता व स्वायत्तता का उपभोग कर सकें। भूमि तथा प्राकृतिक संसाधनों तक उनकी पहुंच बना सकें। प्राकृतिक संसाधन में उनके अधिकार उनके परम्परा व आकांक्षाओं से जुडे हुए हों तथा शैक्षणिक व्यवस्था का निर्माण व संचालन कर सकें। 

देशज समुदाय के मानवाधिकार से जुड़ी समस्याओं मे इजाफा हुआ है

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देशज समुदाय के हितार्थ समय-समय पर की जाने वाली पहल इस प्रकार है- देशज समुदाय के व्यक्तियों के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र 2006, स्वतंत्र देशो में देशज समुदाय संबंधी अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन अभिसमय 1989, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन 1989(राइट्स आफ इंडीजीनस पीपुल्स-169), मानवाधिकार व देशज मुद्दे 2005, मानवाधिकार संकल्प आयोग 2005/51, विस्थापन संबंधी अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय 1990, युनाइटेड नेशन डिक्लेरेशन आॅन द राइट्स आॅफ इंडीजीनस पीपुल्स यूएनओ द्वारा घोषित इंडीजीनस राइट्स घोषित किया गया है।
                इस पर समस्त देशज समुदाय को विशेष ध्यानाकर्षण चाहा गया है कि इसका यथावत पालन भी सुनिश्चित होवे। अंतर्राष्ट्रीय संगठन ह्युमन वाच की 175 देशो मे मानवाधिकार की स्थिति का जायजा लेने वाली एक संवेदनशील रिपोर्ट में भारत के बारे मे कहा गया है कि, यहां देशज समुदाय के मानवाधिकार से जुड़ी समस्याओं मे इजाफा हुआ है। 

ज्वलंत समस्याएं

देशज समुदाय के आज की ज्वलंत समस्याएं- प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण की समाप्ती। देशज शिक्षा का अभाव। विस्थापन व पुनर्वास की समस्या। स्वास्थ्य व कुपोषण की समस्या। पहचान का संकट (रीति-रिवाज, भाषा धर्म)। सांस्कृतिक पतन होना । परसंस्कृतिग्रहण की समस्या।  अवैध अत्खनन की समस्या।  जमीन छीनने की समस्या। वैधानिक उपचार प्राप्ति की समस्याएं। देशज साहित्य व सांस्कृतिक विकास की समस्या। स्वदेशी युवा/जनजातीय नेतृत्व की विफलता। 

देशज ज्ञान से ही आज विश्?व विकास के पथ पर चल पड़ा है 

भारतीय संविधान मूल रूप से विभिन्न अनुच्छेदों में देशज समुदाय के विकास व सुरक्षा के महत्वपूर्ण बिंदुओं को लेकर प्रावधान विहित किए गए हैं । यथा- अनुच्छेद- 14-18, 15(4), 16, 19(1), 19(5), 46, 51(क) मूल कर्तव्य, 164 विशेष कल्याण मंत्री का प्रावधान, 244, 244 (1), 244 (2), 275, 330, 332, 334, 338, 342, 366 (25), 1989 में अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम। 1996 का पेसा एक्ट, 2006 में पारंपरिक वनाधिकार अधिनियम, संवैधानिक संस्थाओं व गैर संवैधानिक संस्थाओं का प्रावधान विभिन्न आयोग का गठन किया गया है।
            वर्तमान परिदृश्य में देश का एक वर्ग आज भी हासिए मे है। आशय उस वर्ग से है जो प्रकृति सम्मत व्यवस्थाओं व देशजत्व का ज्ञान रखता है। संयुक्त राष्ट्र संघ भी स्वीकार करती है कि देशज ज्ञान से ही आज विश्व विकास के पथ पर चल पड़ा है, पर देशज ज्ञान के जनक सदियों से अभावग्रस्त व आज भयाक्रांत जी रहे है। परखने व चिंतन का विषय यह है कि भूमि के साथ संबंध, देशज समुदायों की संबंधता का मुख्य बिंदु है, जो कानून व संविधान के साथ जोड़ता है।
            परिणाम स्वरूप देशज समुदाय की चिंता केवल जीवन-यापन तक सीमित नही होती, अपितु पारिस्थितिक तंत्र, पर्यावरण संरक्षण, पुन: सृजन व ज्ञान व्यवस्था भी इस चिंता का विषय होता है। क्योंकि देशज समुदाय में अंतर्निहित कोयापुनेम प्रकृति के संरक्षण संतुलन व संवर्धन के सिद्धांतों पर आधारित है, जिससे देशजत्व की बुनियाद टिकी है। 

प्राचीन गौरव को हम फिर से कैसे हासिल कर सकते हैं ? 

वर्तमान मे देशज समुदाय के सभी सदस्य एक बात से बहुत परेशान व चिंतित हैं कि वे अपनी शैक्षणिक, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक और नेतृत्व की बदहाली को कैसे ठीक करें। देशज समुदाय इसी दुख व चिंता में बार-बार सोचने के लिए बाध्य होता है कि उनकी सदियो पुरानी महान कोयापुनेमी परम्परा कैसे नष्ट हो रही है ?
            लगभग 1800 सौ सालों का राजवंशों का इतिहास जो स्वर्णिम महान गोंडवाना साम्राज्य के नाम से जाना जाता था, कैसे खत्म हो रहा है ? महान कोयापुनेम दर्शन, पवित्र पाना पारसी, भाषा और कोयतुरियन तीज-त्यौहार कैसे नष्ट रहे है ?
            आजादी के बाद से आज तक नेतृत्व मजबूत क्यों नही हुआ ? समाज जहां का तहां क्यों पडा है ? सब कुछ होकर भी वे आज बेबस क्यों है ? यह संकल्प लेने का समय है, यह प्रण करने का समय है कि यह हालत कैसे सुधर सकती है ? कैसे हम प्राचीन गौरव को फिर से हासिल कर सकते हैं ?

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