खांडेराव गढवीर सेवा गोंगों, मेघनाथ घमसेन, गढ़वीर शूरवीरों को कोया जगत में सेवामान देने की अतिप्राचीन परिपाटी
कोया सगा बिडार मेंं जो कि आज भी प्रचलन मेंं है
विशेष संपादकीय
कोयतोड़ियन सगा बिडार के आदिम देशज गण जीवों के अंतस मेंं रचा बसा चिरकालीक सिमगा-पडूम, सग्गुम-गोंगो, फागुन फोद्दाय फो पाबुन, पाँडामान मान फागुन माह पूनो को बीत रहे बरस की विदाई-विश्रांत का यह महा तंदरी साधक पड्डूम-तिहार है । इस दिन कोया-जगत के कोयतोड़ियन ग्राम-नार व्यवस्था में ग्राम के मुखिया मुकडदम के सानिध्य में मुठवा-भुमका उनके पट शिष्य चेलों के साथ गाँव के सियान, युवा जनों के सहयोग से साम के समय गो-धूली बेला सग्गुम बेरा में गांव के समस्त घरों से रोन-रजगा, बीजक स्त्रोत वायरस एकत्रित करके ग्राम के मेंड़ो में ले जाकर कोया-पुनेम के टोटमिक क्रिया-उच्चाटनों के साथ चलायमान-बीत रहे बरस की विदाई-विश्रांति की अनुष्ठानिक कार्य को विधिवत सम्पन्न करते व कराते हैं ।

मध्यरात्रि को ग्राम शिमगा जहाँ पर फाग अमावस्या को विधिवत निवता देकर ग्राम मुकडदम के सानिध्य में सेमर डगाल के शीर्ष पर पंडरी-सफेद ध्वजा और बीत रहे बरस के बारह महीनों (चैत से लेकर फाग उंदोमान से पांडामान)के प्रतिकात्मक सुहरी गाय के गोबर से बने बारह कंडो के हार सहित शिमगा खापा गड़ाया गया था । उसी नियत ठौर पर ग्राम के हर घर से लकड़ी /घास पूरा नव आगंतुक बछर-साल-पूनल-साँवरी स्वागत हेतु अभिनंदन आनंद पर्व के लिए एकत्रित कर लिया जाता है । कोयतोड़ियन गण गुडारिय जीवन शैली में अथिति सत्कार की यही विरासत भी है । आगन्तुक पहुना बरस हेतू सम्मान , सेवामान देने की परिपाटी भी रही है तत्पश्चात किस मासिना नेंग अद्दिटिया पेन अग्नि प्रजवलन का कार्य मुकडदम द्वारा मुठवा, भुमका के सानिध्य में मध्यरात्रि को सम्पन्न किया जाता है । आदि गणवेनों मेंं स्वागत की यह परिपाटी प्रकृति चक्र की ही भाँति अनवरत चली आ रही है। यह पुनेमी पडूम फाग पूनो को गतिमान बरस के विश्रांति-विदाई के साथ और पाबुन से तात्पर्य फाग अंधियारी पाक में पूरे पन्द्रह दिनों तक चलने वाली विलक्षण रस-रंग-गंध भी है और अद्वितीय भी, सिमगा पडूम पांडामान मान पूनो-फाग-पूर्णिमा तिथि के रात्री में बीते बरस की बिदाई, सिमगा मासीना, नेंग-उंदोमान से पांडामान, साँवरी ता पर्रांग मान, साल के बारह महीनों चैत से फाग तक, तांत्रिक प्रक्रिया के पश्चात,अलसुबह-बड़े सकारे से नव बरस स्वागत हेतु, मूलत: आदिम देशज जीव गणबीज नीचे लिखे अनुसार नव बछर की भावभीनी स्वागत करते हैं । जिसमें पहले दिन धुरेड़ी सिमगा-नीरा और दूसरे दिन मूर-पुँगार जम्मोनूल तो तीसरे दिन सरापी सरपोटा इसी तरह चौथे दिन रबदा काँदो और पाँचवें दिन येर उम्मोटिया पेन, फल फोद्दाय फो के रूप में मनाया जाता है ।
प्रकृति भी नव बरस की आगमन हेतू लालायित है
पुरातन पीढ़ीयों से काल के प्रवाह के साथ चलायमान फगुआ-फोद्दाय-फो पाबुन हास-परिहास हसीं-ठिठोली, आनंदोत्सव उल्लास, की यह गरिमामयी परिपाटी कोयतोड़ियन सगा समुदाय के समस्त संयुरंडू (52)पेंंजियाँ आया के अनन्य नेगियों मेंं मूलत: यह परम्परा अभी भी जीवित है। प्रकृति मेंं नैसर्गिक बदलाव भी शायद इन प्रकृति पुत्रों को अपनी परम्परा के निर्वाहन हेतु, उद्वेलित करती है। जिस प्रकार बंसत आगमन पश्चात पतझड़, पेड़-पौधे अपने पुराने पोशाक पत्तों को त्यागकर मानो नव परिधान पहिरने हेतु, आतुर हैं, लालायित हैं, पलाश-मूर मरहा पुँगार, पीपल, जामुन, रेला, अमलतास, डूमर-गूलर-कोया तोय कटा साँवरी-वलेक मरहा, लडिया धंवा, पिखरी चार, चुरना और महुआ, इरुक मरहा मेंं नव-कोया-पुँगार हेतु, कुचीयाना सभी पेड़-पौधों मेंं नव कोपलों का आना, नव श्रंगार से वन-उपवनों मेंं अपना पहरावा बदलना या यूं कहें प्रकृति भी नव बरस की आगमन हेतू लालायित है। नव परिधान पहिनकर स्वागत हेतु आतुर है।
प्र्रकृति ज्ञान-विज्ञान की विधान भी रही है
प्रकृति के अनुरूप ही तो कोया गणजीव भी प्रकृति के सत्वों को अपने सहचरी के रुप सेवामान देते और सेवामान लेते है । जीवन यापन मेंं उन सत्वों को उपयोग करते हैं और उपभोग भी करते हैं अर्थात फोद्दाय-फो फागुन नव बरस उल्लास उत्सव के पहले दिन से पाँचवे दिन तक कोया जगत मेंं उपरांकित प्राकृतिक सत्वों के क्रम मेंं ही क्रमानुसार जिसमें कि पहले दिन नीरा-सिमगा राख से तो दूसरे दिन परसा-फूल के रस से और तीसरे दिन सरापी गोबर के घोल से वहीं चौथे दिन रबदा-काँदो से एवं पाँचवें दिन येर उम्मोटिया आया पानी से जैसे कि फल-फोद्दाय-फो कि जो परम्परा रही है । प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान की लिंगो पदवी धारकआदि महामहानव रुपोलंग कुपाड़ की और आदिम सोच गोटूल शिक्षा शोध संस्थान की व सबसे विशेष प्र्रकृति ज्ञान-विज्ञान की विधान भी रही है । उस नव तपीश हेतु जो आगामी नव बरस के साथ-साथ आने वाली हैं चैत, बैशाख और जेठ मेंं पूर्वा-दाऊ सूर्य के रौद्र लपटों से बचने का सुप्रबंधन भी फगुआ-पाटा-पाटालीर रेला, फाग गीत-गम्मत, उत्सव, उल्लास, हास-परिहास और फगुआ-फुहार हुरियारे रस रंग भंग भांग संग मदमस्त हुरिया खेली होली जाती थी । जो कि आज भी कोया सगा बिडार मेंं प्रचलन मेंं है।
अपने गढ़वीर को सेवामान देने का यह पुनेमी अवसर आखिर साल मेंं एक बार ही तो आता है
तत्पश्चात पाँचवे ही दिन खाण्डेराव-गढ़वीर, मेघवाल-मेघनाथ पोय-रावेन, सयूंग ठोली संयुमुठली, गोंगो पंचमी तिथि को बड़े ही श्रद्धा भाव से करते आ रहे हैं । अपने गढ़वीर के खूट ठाना, पेन स्थान, बीते बरस किए गए मन्नत-बदना को विशिष्ट गोंगो-गिरान गोंगों विधान से सम्पन्न कर अपने गढ़वीर को सेवामान देने का यह पुनेमी अवसर आखिर साल मेंं एक बार ही तो आती भी है। गण गाथाओं मेंं अलिखित यह व्यापक परम्परा आज भी पातालकोट-पेंकमेंढ़ी, वेन्याचल, सतपुड़ा मैकल कछार के तराई वाले बालाघाट, सिवनी, लाँजी पेंजियाँ आया ना मोड़-नाभि केन्द्र बिन्दु, परिक्षेत्र मेंं प्रचलन में है। बस्तर बारासूर तेलंगाना गण-गुडारिय इत्यादि मेंं भी सामान्यत: कुछेक जन जातीय समुदायों मेंं गतिमान है तो कहीं बिसार भी दिया गया है। आदि मूल बीजों में यह परिपाटी जीवित भी है और अब लगने लगा है पुनर्रोत्थान की ओर पुन: अग्रसर होने की ओर लालायित भी है।
पुरखों की तराशी हुई उन गुमनाम पगडंडियों की ओर लौटना होगा
भलमनसाहत सीधे सरल आदिम जनों को अवसर वादी ताकतों ने कुटिल चतुर्वर्णिय फाँस में फसानें का भरसक प्रयास किया है लेकिन अब चेतना के बीज देशज जनों में अपने, पुनेम, परम्पराओं, मान्यताओं और सांस्कृतिक विरासत को पुन: पुनर्जीवित करने की ओर अग्रसर होने लगा है । हमें तो बस हमारे पुरखों की तराशी हुई उन गुमनाम पगडंडियों की ओर लौटना होगा । जहाँ से हमने हमारी कोया-पुनेम प्रकृितकृत विश्व संस्कृति की जननी कही जाने वाली हमारी विरासत को फिर सहज सके । जिस सफर को निरस समझकर हमने छोड़ दिया था। उसी अतीत के गलियारों मेंं हमारें इतिहास के पन्ने बिखरे पड़े हैं। उन पन्नों को सहेज कर, आइए कोयतोडियन सगा-बिडार के सभी गण-गुडारिय देशज जनों बिखरे पड़े अतीत के पन्नों को संग्रहित करके अलिखित दस्तावेजों को सजिल्द भी करें।
लेखक- नसीब कुशरे (कोया पुंगार)
पता-कोया गोदाल
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