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मध्य प्रदेश के ज्यादातर वनक्षेत्र अवैध कटाई से ग्रसित

मध्य प्रदेश के ज्यादातर वनक्षेत्र अवैध कटाई से ग्रसित 

क्या मध्यप्रदेश में वनों का प्रबंधन सही दिशा में हो रहा है ?

विश्व वानिकी दिवस पर विशेष



21 मार्च को विश्व वानिकी दिवस है। यह दिन पूरे विश्व में वन संरक्षण एवं संवर्धन के प्रति समस्त मानव जाति का ध्यान आकर्षित करता है जबकि म.प्र. का वन विभाग समाचार पत्रों में मात्र छोटा सा विज्ञापन जारी कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेता है। इस अवसर पर अगर प्रदेश के वनों के वर्तमान हालात पर नजर डाली जाये तो यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि प्रदेश के वन दिनो दिन बिगड़ रहे हैं। वैसे तो प्रदेश के लगभग 30 प्रतिशत भू-भाग पर वन हैं लेकिन आज आधे से ज्यादा वन बिगड़े वन की श्रेणी में आ गये हैं। वनों को संरक्षित एवं सवंर्धित करने हेतु जो प्रयास होने चाहियें । विगत कई वर्षों से मध्य प्रदेश का वन विभाग इसकी ओर उतने प्रयास करता नहीं दिख रहा है। यह स्थिति प्रदेश के लिये ही नहीं अपितु भारत वर्ष के लिये भी चिंता का विषय है।

उज्जवला में रीफिलिंग कराने में असमर्थ

इसमें कोई दो मत नहीं कि प्रदेश के वनों पर अत्याधिक जैविक दबाव है। प्रदेश की 8 करोड आबादी में से लगभग 4 करोड़ लोग जलाऊ लकड़ी एवं पशुओं के चारे के लिये वनों पर आश्रित हैं। केन्द्र सरकार की बहुप्रचारित उज्जवला योजना भी स्थानीय आबादी विशेषकर आदिवासियों की र्इंधन की मांग की पूर्ति नहीं कर सकी है। ज्यादातर गरीब लोग गैस सिलेन्डर की रीफिलिंग कराने में असमर्थ होने से योजना कागजों में दम तोड़ रही है और इंधन की पूर्ति के लिये ज्यादातर आबादी पूर्ववत वनों पर आश्रित है।

60 करोड़ राशि व्यर्थ हो गई

विगत 15 वर्षों में प्रदेश सरकार द्वारा ऐसी कोई योजना नहीं चलाई गई जिससे वनों के अंदर एवं वनों के आस-पास रह रही आबादी की जलाऊ लकड़ी की पूर्ति हो सके। मध्य प्रदेश के वन विभाग द्वारा ऊर्जा वन के नाम से वनक्षेत्रों में एक गैर-व्यवहारिक योजना जरूर चलाई गई जो तत्कालीन प्रधान मुख्य वन संरक्षक (हॉफ) के तकनीकी ज्ञान के अभाव एवं अपरिपक्वता के कारण एक वर्ष के अंदर ही विफल हो गई। योजना के अन्तर्गत जमकर भ्रष्टाचार हुआ और व्यय की गई लगभग 60 करोड़ राशि व्यर्थ हो गई। अगर वन विभाग इतनी राशि गरीब लोगों के गैस सिलेन्डर के रीफिलिंग में उपयोग करता तो इसके कही ज्यादा सार्थक परिणाम मिल सकते थे।

लेन्टाना उन्मूलन पर क्रियान्वयन नहीं तो पशु चारा के लिये कारगर योजना नहीं

प्रदेश में जितनी मानव आबादी है, लगभग उतने ही मवेशी भी हैं। अभी तक की प्रदेश सरकारें पशुओं के लिये उन्नत चारा उपलब्ध कराने में भी सफल नहीं हो पाई हैं। वनों के अंदर एवं आस-पास रहने वाले लोग अपने पशुओं को जंगलों में चरने छोड़ देते हैं जिससे वनों का बहुत विनाश हो रहा है। वर्षों से हो रही अत्यधिक चराई से वनों में चराई हेतु उपयोगी घास अत्यंत कम हो गई है। अत्यधिक चराई के दबाव से वनों में लेन्टाना जैसी प्रजाति के फैलाव से एक ओर जहां वनों के पुर्नउत्पादन को बुरी तरह प्रभावित किया है वहीं दूसरी ओर पशुओं के लिये चारा भी समाप्त हो गया है। आज तक वन विभाग लेन्टाना उन्मूलन के लिये कोई व्यवस्थित योजना का क्रियान्वन नहीं कर सका है। कृषि एवं पशु पालन जैसे विभाग भी पशुओं के लिये चारा उपलब्ध कराने की कोई
कारगर योजना क्रियान्वित नहीं कर पाये हैं जिससे वनों पर दबाव घटने के बजाय बढ़ रहा है।

वन विभाग अवैध उत्खनन की रोकथाम के प्रति गंभीर नहीं

एक सच्चाई यह भी है कि म.प्र. के वनों में अतिक्रमण लगातार बढ़ रहा है। इस सच्चाई से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि वर्ष 2006 में वन अधिकार अधिनियम के लागू होने से इस समस्या को बढ़ावा मिला है। इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि वरिष्ठ वन अधिकारियों एवं अधीनस्थ वन अमले को जिस संजीदगी के साथ इस अधिनियम के तहत वन अधिकार पत्र वितरण करने थे, उसमें कोताही बरती गई है। वन अधिकारियों के ऐसे रूख के कारण ही आज भी अधिनियम के तहत अमान्य दावों की समीक्षा की मांग बारम्बार उठ रही है। अतिक्रमण के साथ-साथ अवैध उत्खनन भी प्रदेश के वनों को बर्बाद कर रहा है। अवैध उत्खनन को रोकने के लिये भी प्रदेश का वन विभाग ठोस कार्रवाई न कर मात्र औपचारिकता निभा रहा है। ग्वालियर वन वृत्त के ग्वालियर एवं मुरैना वनमण्डल में हुये एवं हो रहे अवैध उत्खनन की जांच के लिये मेरे द्वारा विगत 7 वर्षों से हर स्तर पर प्रयास किये गये लेकिन नतीजा सिफर ही रहा, जो सिद्ध करता है कि वन विभाग अवैध उत्खनन की रोकथाम के प्रति कितना गंभीर है।

वन विभाग का पौधरोपण में कम सीमेण्ट पोल व बारबड़ वायर खरीदने में ज्यादा ध्यान

विगत कुछ वर्षों से वन क्षेत्रों में अग्नि प्रकरणों की घटना भी दिन दूनी-रात चौगुनी गति से बढ़ रही हैं ।
जिसके नियंत्रण के लिये कोई कार्य योजना नहीं है। प्रदेश के ज्यादातर वनक्षेत्र अवैध कटाई से ग्रसित हैं। प्रदेश के गठन को 60 वर्ष से ज्यादा की अवधि बीत जाने के बाद भी वन विभाग उच्च गुणवत्ता के पौधे तैयार करने की ऐसी योजना नहीं बना पाया है, जो अच्छे परिणाम दे सके।
विगत 60 वर्षों से विभाग द्वारा जो रोपण किये गये हैं वे भी अपेक्षित सफलता नहीं प्राप्त कर सके हैं। विभाग आज भी सफल रोपण करने में असमर्थ है। हाँ, यह अवश्य है कि पूर्व में जहां 4-5 हजार रुपए प्रति हेक्टेयर के मान से वृक्षारोपण होता था, वह राशि आज 50 हजार से लाख रुपए हो चुकी है विशेषकर कैम्पा मद से कराये गये रोपणों में। विभागीय अधिकारियों का पूरा ध्यान सीमेन्ट के पोल एवं बारबड़ वायर खरीदने में ही लगा रहता है । जिनसे जंगलों के अंदर सीमेन्ट कांक्रीट की चार दीवारियां खड़ी कर दी गई हैं। वनों के बाहर जेड-4 क्षेत्रों में वृक्षारोपण कराने में भी वन विभाग असफल रहा है।

वन समितियों के सुदृढ़ीकरण के बिना वनों का संरक्षण एवं संवर्धन असंभव 

90 के दशक में जंगलों को बचाने के लिये स्थानीय लोगों के सहयोग से जो संयुक्त वन प्रबंधन कार्यक्रम शुरू किया गया था, वह भी दम तोड़ रहा है। कहने को प्रदेश में 15 हजार से ज्यादा वन समितियां गठित हैं लेकिन वे ज्यादातर कागजों तक ही सीमित हैं। वन समितियों के सुदृढ़ीकरण का कोई कार्यक्रम वर्तमान में नजर नहीं आ रहा है। वरिष्ठ वन अधिकारियों का ज्यादातर ध्यान अपनी पदोन्नति एवं ट्रान्सफर/पोस्टिंग में ही लगा रहता है। जब वरिष्ठ अधिकारियों का ये हाल है तब निचले अमले की तो बात करना ही बेमानी है। वन विभाग में 30 वर्ष कार्य करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि विभाग को अपनी कार्यप्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। वन समितियों के सुदृढ़ीकरण के बिना वनों का संरक्षण एवं संवर्धन असंभव है।

   

लेखक-
आजाद सिंह डबास
                                 पूर्व आईएफएस
   अध्यक्ष, सिस्टम परिवर्तन अभियान
  भोपाल मध्य प्रदेश 

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