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स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास से गायब कोईतूर वीरांगनाओं के साहस-बलिदान को सादर नमन-सेवा जोहार

स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास से गायब कोईतूर वीरांगनाओं के साहस-बलिदान को सादर नमन-सेवा जोहार

संपादकीय-लेखक
डॉ सूर्या बाली (सूरज धुर्वे)
भारत देश विभिन्न जतियों, धर्मो, संप्रदायों के साथ साथ बहुत सारे सांस्कृतिक और सामाजिक मान्यताओं वाला देश है। इस देश की सुरक्षा, विकास और उन्नति में यहाँ के सभी लोगों का योगदान रहा है। भारत की स्वतंत्रता और संप्रभुता बनाए रखने के लिए बलिदान देने वालों में बहुत सारे वीर और वीरांगनाओं के नाम आते हैं। ज्यादातर स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उच्च वर्ण के लोगों के नाम ही इतिहासकारों द्वारा वर्णित किए जाते रहे हैं लेकिन ज्यादा योगदान और बलिदान देने वाले बहुजन नायक नायिकाओं को हासिए पर रखा गया। बहुजनों में भी जनजातीय वीरों के साथ तो और भी अन्याय हुआ है। जनजातीय महिलाओं ने इस देश के विकास सुरक्षा, समृद्धि और स्वतंत्रता में पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलकर चली हैं। इस विश्व महिला दिवस पर आइये आज उन्ही कुछ वीरांगओ के बारे में जानते हैं।

अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध करते हुए सैलरकब पहाड़ी पर वीरगति को प्राप्त हुई थीं श्रीमती बंकन मुंडा

वर्ष 1899-1900 के दौरान छोटा नागपूर पठार में मुंडा जनजाति ने अंग्रेजी सरकार के अत्याचारों के खिलाफ धनुष-बाण, कुल्हाड़ी जैसे अस्त्र उठा लिए। इस आंदोलन का नेतृत्व बिरसा मुंडा ने किया था लेकिन इसी आंदोलन से एक और वीर महिला का नाम उभरा। यह देशभक्त वीरांगना महिला बिरसा मुंडा के अंग्रेजों के खिलाफ हो रहे आंदोलन का एक प्रमुख नायिका थीं। यह जनजातीय नायिका अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध करते हुए सैलरकब पहाड़ी पर 9 जनवरी 1900 को वीरगति को प्राप्त हुई थीं। अंग्रेजों ने कभी भी उन्हे सम्मान नहीं दिया और उन्हे मात्र बंकन मुंडा (बिरसा मुंडा के सहयोगी ) की पत्नी के रूप में जाना। मुंडा विद्रोह की ज्वाला को हवा देने वाली इस वीर नायिका को देश ने तब जाना जब दिल्ली के लाल किले में स्थित आजादी के दीवाने म्यूजियम में श्रीमति बंकन मुंडा के चित्र को उनकी वीर गाथा के साथ प्रदर्शित किया गया।

लगभग 15 वर्ष के बाद 1947 में जेल से रिहा हुई थी रानी गाइडिंलिउ

रानी गाइडिंलिउ (1915-1993) एक नागा धार्मिक एवं राजनीतिक नायिका थी, जिनहोने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र युद्ध किया था। जब वे 13 वर्ष की थी तभी जदोनांग द्वारा संचालित हेरेका आंदोलन में कूद पड़ी थीं। अंग्रेजों के खिलाफ एक निर्णायक लड़ाई की शुरूवात हो चुकी थी और रानी गाइडिंलिउ इस आंदोलन का नेतृत्व कर रही थीं। जब वे 16 साल की हुई तब तक वो गुरिल्ला छापामार युद्ध प्रणाली की कुशल योद्धा बन चुकी थी। वर्ष 1931 में जदोनांग को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया और फांसी दे दिया उसके बाद हेरेका आंदोलन को नेतृत्व देने की जिम्मेदारी रानी गाइडिंलिउ पर आ गयी। एक साल तक वे हेरेका आंदोलन का कुशल नेतृत्व करती रही और अंग्रेजों के साथ संघर्ष करती रही । वहीं 17 अक्तूबर 1932 को उन्हे बाकी नागा सैनिकों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया था। सभी सैनिकों को फांसी दे दिया गया लेकिन रानी गाइडिंलिउ को जेल भेज दिया गया। वे आजादी के समय तक जेल में बंद रहीं लेकिन आजादी के तुरंत बात 1947 में उन्हे जेल से रिहा कर दिया गया था।

1855 में अंग्रेजों के खिलाफत में शामिल थी मोहा मराण्डी

1855 में प्रथम स्वतंत्र संग्राम से पहले ही संथाल परगना में जनजातीय कोइतूर महिलाओं ने अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूँक दिया था। उनमें एक महिला थीं मोहा मराण्डी। मोहा अपनी जल जंगल और माटी की लड़ाई के लिए दृढ़ निश्चय थीं । उन्होने बहुत सारी मुंडा और संथाली महिलाओं को तैयार किया और अंग्रेजों को जंगल से खदेड़ने का अभियान छेड़ दिया था। अंतिम सांस तक उन्होने अंग्रेजों से लड़ती रही और अपनी माटी की सुरक्षा के खातिर इस देश पर कुर्बान हो गयी।

देवमानिया ने संभाली थी टाना आंदोलन की बागडोर 

जतरा उरांव एक क्रांतिकारी योद्धा थे और रांची में टाना भगत आंदोलन के झंडाबरदार थे । जब टाना भगत को अंग्रेजों ने गिरफ्तार करके जेल भेज दिया तब उन्होने मान लिया था अब आंदोलन थम जाएगा लेकिन यही अंग्रेजों की भूल थी। टाना जब जेल में थे और आंदोलन टूटने लगा था तभी बटकुरी गाँव की एक वीर महिला जिसका नाम देवमानिया था, उन्होंने टाना आंदोलन की बागडोर संभाली और आंदोलन को एक नई ऊंचाई प्रदान की। देवमानिया को लोग टाना भगताइन के नाम से बुलाने लगे। देवमानिया टाना भगताइन ने लाखों की संख्या में लोगों को इस आंदोलन की तरफ आकर्षित किया। जब जतरा उरांव (टाना भगत) जेल से रिहा हुआ तब तक हजारीबाग और रांची सहित कई स्थानों पर टाना भगत आंदोलन की तूती बोल रही थी। यह देवमनिया भगताईन का ही जादू था। उसके बाद भी टानाभक्तिनों ने हर तरह से टाना भगतों का सहयोग किया। वे अपनी स्वाधीनता के लिए मर मिटने को तैयार रहती थी। टाना आंदोलन में टाना भक्तिनों विशेषकर देवमानिया का सहयोग सराहनीय रहा।
संपादकीय-लेखक
डॉ सूर्या बाली (सूरज धुर्वे)

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