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असंतुलित पर्यावरण व हमारा दायित्व कोयापुनेम की प्रासंगिकता

असंतुलित पर्यावरण व हमारा दायित्व कोयापुनेम की प्रासंगिकता

जबकि संविधान मे मूल कर्तव्ययों (धारा 51 (क)) का भी उल्लेख 

आलेख- सम्मल सिंह मरकाम
वनग्राम- जंगलीखेड़ा, गढी बैहर
जिला बालाघाट (म प्र)
प्रकृति से हमने सब कुछ लिया है लेकिन प्रकृति को कुछ दिया ही नहीं है। यह सच है कि प्रकृति ने कभी हमसे प्रतिदान की अपेक्षा नहीं की, दूसरी तरफ हम प्रकृति को कुछ देना तो दूर उसे संभालकर व बचाकर भी नही रख सके हैं। पर्यावरण के साथ मानव द्वारा किये गये छेड़छाड़ का परिणाम हमारे सामने है। न सिर्फ भारत बल्कि विश्व के तमाम विकासशील व विकसित राष्ट्र आज पर्यावरण असंतुलन की समस्या से जद्दोजहद कर रहे हैं। मानव द्वारा प्रकृति का अधिक दोहन व उसके विरूद्ध कदाचरण का परिणाम यह है कि प्रकृति ने अब पलटवार शुरू कर दिया है। प्रकृति का कहर भिन्न भिन्न रूपों मे हमारे सामने आ रहे हैं और हमे चेता भी रही हैं कि आगे की डगर और मुश्किल भरी हो सकती है। 

मानव सिर्फ अपने अधिकारों की बात करता है अपना कर्तव्य भूल जाता है 

प्रकृति के इस संकेत के बाद भी प्रकृति की संरक्षण, संतुलन व संवर्धन के लिये जो समर्पण और तत्परता हमे दिखानी चाहिये, वह दिखाई नहीं दे रही है। पर्यावरण के संरक्षण संतुलन व संवर्धन के लिये जो दायित्व हमे निभाने चाहिये, हम निभा नही रहे हैं बल्कि हमारा ध्यान सिर्फ और सिर्फ अपने अधिकारो पर ज्यादा होता है। क्यो न हम अपने संवैधानिक परिप्रेक्ष्य मे चर्चा करें, आज मानव सिर्फ अपने अधिकारो की बात करता हैं, अपना कर्तव्य भूल जाता है, जबकि संविधान मे मूल कर्तव्ययों (धारा 51 (क)) का भी उल्लेख है।

पर्यावरण असंतुलन विश्व की विकराल समस्या बन गई है

पर्यावरण असंतुलन की समस्या आज विश्व की विकराल समस्या बन गयी है। पर इस धरा का देशज समुदाय इन वैश्विक समस्याओ से आज चिंताओ से घिरता जा रहा है। वह मानता आ रहा है कि कोयापुनेम अवधारणा के तहत प्रकृति के संरक्षण संतुलन व संवर्धन के सिद्धांतों का पालन समस्त देशज समुदाय करते है।
        इसके साथ ही संपूर्ण विश्व भी कोयापुनेम का पालन करता होगा, पर यह उसका सोचना महज एक भ्रम मात्र है क्योकि संपूर्ण विश्व के तमाम विकसित व विकासशील राष्ट्र विकास की अंधाधुंध दौड़ मे प्रकृति का लगातार बेतहाशा दोहन कर रहे है। इसी का नतीजा है कि हमे समय-समय पर प्रकृति अपने कहर से दो-चार कराती रहती है, यह मानव द्वारा किये गये अंधाधुंध विनाश का ही नतीजा है, पर्यावरण असंतुलन की देन है।

मानव बहुत दूरदर्शी तो है लेकिन अपने किये गुनाहो के परिणाम से अंजान भी है

असंतुलन का परोक्ष प्रभाव मौसम पर सबसे ज्यादा पड़ रहा है और मौसम लगातार अपना मिजाज बदल रहा है। बेमौसम बरसात, पहले सिर्फ कहावत मात्र थी, आज यह कहावत ही, हकीकत मे बदल गई है। आज ग्लोबल वार्मिंग लगातार बढ़ते क्रम में है। मानव बहुत दूरदर्शी तो है लेकिन अपने किये गुनाहो के परिणाम से बिलकुल अंजान भी है। कब प्रकृति दबे पांव अपना रौंद्र रूप दिखा दे, भूगर्भशास्त्री भी अनुमान नही लगा सकते हैं।

मात्र दो दशक मे प्राकृतिक आपदाओ मे चार गुना बढ़त हुई है

विकास के चरण मे युरोप में औद्योगिक क्रांति का आना एक वरदान तो साबित हुआ, वहीं दूसरी तरफ इसका परिणाम भी हमारे सामने ग्लोबल वार्मिंग के रूप में है जो एक प्रकृति जन्य जीवो के लिये अभिशाप बन गया है। प्राकृतिक संसाधनो का अंधाधुंध दोहन कर विकास के नाम पर विनाश का खेल, इसी कालखंड में शुरूआत हुई थी। आज पर्यावरण की स्थिति इस हद तक बिगड़ गयी है कि अब और बर्दाश्त करना मुश्किल है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले मात्र दो दशक मे प्राकृतिक आपदाओ मे चार गुना बढ़त हुई है। 

यह बिगड़ता पर्यावरण कुछ और गंभीर परिणाम दे रहे हैं

यानि कुदरत का बेशुमार प्यार अब कहर बनकर टूट सकता है। यह बिगड़ता पर्यावरण कुछ और गंभीर परिणाम दे रहे हैं। पौधो की अनेक प्रजातियां विलुप्त हो गयी हैं, वहीं कुछ विलोपन के मुहाने पर खड़े है इसका सीधा असर प्रकृति की गोद मे रहने वाले देशज समुदाय के शारीरिक प्रतिरोधी क्षमता का लगातार कमजोर होता प्रत्यक्ष देख सकते हैं क्योंकि विश्व के सभी देशज समुदाय प्रकृति प्रदत्त एवं प्राकृतिक वातावरण व खानपान पर ज्यादा निर्भर था।
        आज वह इस दोहन से हताहत है व उसकी प्राकृतिक संपत्ति का विनाश हो गया है। आयुर्वेदिक चिकित्सा विज्ञान व देशज ज्ञान तंत्र में प्रगति के बावजूद जानलेवा बीमारियां दिनो दिन पैर पसार रही है, मानव हाथ में हाथ धरा बैठा है ।

प्रकृति का कोप सारे कोपो से बड़ा होता है

भूगर्भ शास्त्रियों व मौसम वैज्ञानिको का कहना है कि प्रकृति का कोप सारे कोपो से बड़ा होता है। यही बात हमारे पुरखो ने भी कहा व जाना समझा है। यदि वैज्ञानिको व पुरखो की यह एक सूत्र वाक्य पर ध्यान दिया गया होता, तो संभवत: आज कोरोना महामारी (covid-19) आपदाओं के रूप मे प्रकृति का यह क्रूर और विनाशकारी चेहरा नही देखना पड़ता ।
         संपूर्ण विश्व के देशज समुदाय मे पायी जाने वाली देशज ज्ञान तंत्र को समझकर संतुलित विकास को प्राथमिकता दी होती, और विश्व में श्रेष्ठ व शक्तिशाली राष्ट्र बनने की चेष्टा मे प्राकृतिक तत्वो के साथ नये-नये प्रयोग नहीं करती, तो आज प्रकृति इस तरह रूठती नहीं। 

हम पर्यावरण की कीमत चुकाकर, आर्थिक रूप से सशक्त हो गये है

इसका खामियाजा आज विश्व के राष्ट्रो का महासंगठन, संयुक्त राष्ट्र संघ के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांचो स्थायी सदस्य अमेरिका, चीन, रूस, ब्रिटेन और फ्रांस भी भुगत रहे हैं। उनके साथ-साथ इटली स्पेन, भारत, इराक, इरान, सउदी अरब सहित 178 देश कोरोना के चपेट मे हैं।
          हम पर्यावरण की कीमत चुकाकर, आर्थिक रूप से सशक्त हो गये हैं और आर्थिक विकास की लंबी- लंबी छलांग भी लगा ली है। मगर अब इसके दुष्परिणामो व विकराल रूप को झेलने के लिये तैयार भी होना पड़ेगा, या समय के रहते अपने व्यवहार मे बदलाव लाकर पर्यावरण से मित्रतापूर्ण संबंध व प्रकृतिसम्मत आचार विचार रखकर विकास के पथ पर बढ़ते चलना होगा। 

कोयापुनेमी श्रेष्ठ व्यवस्था को आज विश्व में सिर्फ देशज समुदाय ही बचाकर रखा है

यहां ज्वलंत प्रश्न यह है कि तकनीक के इस आधुनिक युग में पर्यावरण से मित्रतापूर्ण संबंध कैसे व किन सिद्धांतो के तहत रखा जाये। इस प्रश्न का समाधान भले ही दुनिया के पास न हो लेकिन दुनिया के भौितक, अभौतिक, सजीव, निर्जीव, वनस्पति व प्रकृति के कण-कण पर निहित कोयापुनेम ही पर्यावरण से मित्रतापूर्ण संबंध, के साथ साथ संतुलन संरक्षण व संवर्धन के सिद्धांतो पर प्रकृति को सुरक्षित रख सकता है।
        यह कोयापुनेमी श्रेष्ठ व्यवस्था को आज विश्व में सिर्फ देशज समुदाय ही बचाकर रखा है। इन्ही महान विशेषताओ के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ भी देशज समुदाय के इस देशज ज्ञान तंत्र का सम्मान करता है । इसका आशय ये नही है कि कोयापुनेम का सिर्फ देशज समुदाय ही पालन करता है। स्वरूपो नामो व भाषिक अंतर के कारण भिन्नता स्वाभाविक है लेकिन विश्व के सभी जाति, धर्म, भाषा, नस्ल, वर्ग, सम्प्रदाय के मानवीय क्रियाकलापों पर कोयापुनेम का अंश स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है क्योकि कोयापुनेम की व्यवस्था पेंजिया के उत्पत्ति विस्तार व वर्धन के साथ साथ गतिमान है।
      इस कोयापुनेम व्यवस्था को पूर्णतया आत्मसात करना विश्व की पहली प्राथमिकता होनी चाहिये क्योंकि कोयापुनेम आज की प्रासंगिकता है, इसे विश्व पटल पर चर्चा के लिए हर संभव प्रयत्न होना ही चाहिये ।

इसलिये प्रयास भी वैश्विक स्तर के होने चाहिये

प्रकृति और पर्यावरण के प्रति यदि मानव अपने दायित्वो की जरा भी अनदेखी की तो अभी प्रकृति सिर्फ झटके दे रही है वे पूरी तरह प्रलय का रूप धारण कर हमे निगल सकता है। अभी भी यदि मानव जागृत अवस्था में आ जाता है और पर्यावरण के संरक्षण व संतुलन पर ध्यान देना शुरू कर दे तो विनाश से बच सकते हैं क्योंकि यह वैश्विक समस्या है।
           इसलिये प्रयास भी वैश्विक स्तर के होने चाहिये । आज विश्व मे कोरोना एक महामारी का रूप ले लिया है। यह तो प्रकृति के शक्ति का एक बानगी मात्र है। आज प्रकृति का सबसे बुद्धिमान और साधन सम्पन्न से धनी जीव मनुष्य कोरोना (covid-19) नामक एक सूक्ष्मजीव से बचने मात्र के लिये भागता फिर रहा है, यह दृश्य देखकर यह प्रतीत होता है कि प्रकृति शनै: शनै: चतुराई से अपने ही बनाये रचना से नाराज होकर कुछ बड़ा ही नुकसान करने जा रही है ।
          इस करिश्मे को हम बड़े अचरज जिज्ञासा व मुग्ध भाव से देखते रहते हैं। सच तो है कि प्रकृति भी एक बहुत बड़ी खिलाड़ी है, जिसे रोज नये नये खेल रचने मे आनंद प्राप्त होती है और प्रकृति का यह आनंद, जीवो के लिए काल बनता जा रहा है ।

अभी भी वक्त है, वक्त के रहते सचेत हो जाइये, संभल जाइये

इस विनाश के नियंत्रण के लिये अपरिहार्य रूप से सरकार द्वारा एहतियातन लॉकडाउन कर सामाजिक दूरी को नियमित करने की अपील की गयी। प्रकृति के इस खेल मे मानव बराबरी तो छोड़िये एक अंश मात्र भी जतन कर ले तो बहुत बड़ी उपलब्धि होगी । प्रकृति के इस प्रकोप का असर वृहत्त रूप मे हमे पलायन की समस्या के रूप मे भी दिखाई दिया।
       जिसकी तस्वीर बहुत भयावह है व तस्वीर में भी दर्द है। इस पलायन में तमाम प्रकार के कष्ट मनुष्य के साथ-साथ सभी जीव जंतुओ को भी हो रही है क्योकि सभी एक दूसरे के सहजीवी होते हैं। प्रकृति के संतुलन, संरक्षण व संवर्धन के सिद्धांतो के अनुरूप होते हैं । उपरोक्त विनाशलीला से हम यह भी कहें तो कोई अतिश्योंक्ति नही होगी कि-कोरोना वायरस प्रकृति का एक संदेश वाहक तो नही है, जो यह कहना चाह रहा हो कि अभी भी वक्त है, वक्त के रहते सचेत हो जाइये, संभल जाइये ।

हम सभी अपने जीवनशैली में कोयापुनेम की महत्ता को समझें और आत्मसात करें

दुख इस बात का है कि समृद्धशाली प्रकृतिसम्मत कोयापुनेम व्यवस्था के धनी, देशज समुदाय आज अध्ययन का विषय मात्र बन गया है, तमाम परिप्रेक्ष्यो मे शोध देशज समुदाय पर हो रहे हैं लेकिन वह अध्ययन व शैक्षणिक योग्यता मात्र तक सीमित हो गया है।
          पर्यावरण असंतुलन की समस्या से निजात पाने के लिये हमारा यह दायित्व बनता है कि हम वह आचरण किसी भी कीमत मे न करें, जिससे पर्यावरण को क्षति हो । हम सभी अपने जीवनशैली में कोयापुनेम की महत्ता को समझें और आत्मसात करें । विकास और प्रगति के लिये उतना ही दौड़ लगायें, जितनी की इजाजत प्रकृति हमे दे।
          प्रथम तो प्राकृतिक संसाधनो का कम से कम दोहन किया जाए, यदि बहुत आवश्यक हो तो पर्यावरण को होने वाली क्षति की भरपायी के लिए प्रबल प्रयत्न करना चाहिये। प्रकृति के आचरण से मनुष्य को घबराने की जरूरत नहीं पर अपनी गलतियों व विकास के नाम पर अंधाधुंध विनाश से जरूर डरना चाहिये ।

तकनीकी विकास ने समस्याओ को जन्म दिया है वही इसका समाधान भी करेगा

प्रकृति मे व्याप्त आज के इस पर्यावरणीय संकट मुख्य कारण तकनीकी व औद्योगिक विकास है और पर्यावरणविदो का मानना है कि जिस तकनीकी विकास ने समस्याओ को जन्म दिया है वही इसका समाधान भी करेगा। महान पर्यावरणविद जान वि लिण्डसे ने कहा है कि यह कार्य तकनीकी खुद नही करेगी इसके लिये आज चिंतन को नयी दिशा देनी होगी, अनुसंधानो मे लगना होगा।
         प्रत्येक नई विकास तकनीके के साथ ही उन आवश्यक पहलुओ और महत्वपूर्ण तकनीक को खोजना होगा, जो प्रकृति के संरक्षण, संतुलन के सिद्धांतो पर कार्य कर प्रकृति को संवर्धित करे और वह तकनीक कोयापुनेमी व्यवस्था हो सकती है। जिसमे संतुलित विकास के साथ संवर्धन व संरक्षण तत्वो का विशाल समुच्चय है ।
आलेख- सम्मल सिंह मरकाम
वनग्राम- जंगलीखेड़ा, गढी बैहर
जिला बालाघाट (म प्र)

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3 Comments
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  1. बहुत बढ़िया जानकारी दी सर आपने...
    हमारा हर कदम प्रकृति का संतुलन के लिए बढ़ेगा,
    आने वाली पीढ़ी को स्वच्छ वातावरण देना हमारा परम कर्तव्य है।

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  2. बहूत बडिया महोदय जी ,आपने बडिया जानकारी दी. जय सेवा

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  3. हमें हमारा कोयापुनेम व्यवस्था पर गर्व है बहुत अच्छा सुझाव दिए आप के इस कदम से हो सकता है मानवता को अवश्य संदेश पहुंचेगा सेवा जोहार

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