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धम्मलिपि शोधकर्ता जेम्स प्रिंसेप के सम्मान में प्रतिवर्ष 20 अगस्त को विश्व धम्मलिपि गौरव दिवस मनाया जाता है

धम्मलिपि शोधकर्ता जेम्स प्रिंसेप के सम्मान में प्रतिवर्ष  20 अगस्त को विश्व धम्मलिपि गौरव दिवस मनाया जाता है

इसी लिपि के खोज के कारण सम्राट अशोक के साथ-साथ प्राचीन भारत का सम्पूर्ण बौद्ध संस्कृति और सभ्यता के इतिहास पता चलता है

जेम्स प्रिंसेप को इंजीनियरिंग और वास्तुकला में काफी दिलचस्पी थी


लेखक-अतुल भोसेकर
अध्यक्ष बौद्ध साहित्य प्रसारक मंडल

भारत सबसे प्राचीन लिपि को पढ़ने वाले महान जेम्स प्रिंसेप की आज 222 वीं जयंती मना रहा हैं। उनके सम्मान में प्रतिवर्ष  20 अगस्त को विश्व धम्मलिपि गौरव दिवस मनाया जाता है। वर्ष 1819 में जब गेम्स प्रिंसेप भारत आए तब वे एक 20 साल के युवक थे । उनकी माता सोफिया और पिता जॉन की वे 10 वीं संतान थे। जॉन एक व्यापारी थे और भारत में आकर उन्होंने व्यापार से खूब सारा धन कमाया था। भारत समृद्धि से वे अच्छी तरह वाकिफ थे इसलिए उन्होंने अपने बेटे को भी भारत भेजा। जेम्स को इंजीनियरिंग और वास्तुकला में काफी दिलचस्पी थी। अपने पिता के रुतबे की बदौलत उन्हें कोलकाता के टकसाल में अधिपारखी के पद पर नियुक्ति मिली ।

बनारस में रहते हुए उनका ध्यान वहां की पुरानी इमारतों पर गया और वे उनके प्रति आकर्षित हुए


जेम्स अपने पिता की तरह अपने कार्य के प्रति मेहनती और निष्ठावान थे और हर पल कुछ नया खोजने की चाहत रखते । कार्य के प्रति समर्पण भाव देखकर उनका ट्रांसफर बनारस के टकसाल में किया गया । एक साल के भीतर ही जेम्स को पदोन्नति भी मिल गई और फिर उन्हें कोलकाता भेजा गया । अधिपारखी के पद पर काम करते हुए जेम्स ने काफी संशोधन कार्य किए और तो और उनके द्वारा बहुत सारे उपकरण बनाए जो उनकी प्रतिभा दिखाते हैं। टकसाल में काफी गर्मी होती थीं उस गर्मी को मापने के लिए जेम्स ने थमार्मीटर बनवाया था। टकसाल में कुछ धातुओं का उपयोग कम मात्रा में किया जाता था। तब जेम्स ने सबसे कम मात्रा 0.19 ग्राम मापने का उपकरण बनाया। बनारस में रहते हुए उनका ध्यान वहां की पुरानी इमारतों पर गया और वे उनके प्रति आकर्षित हुए। 

उन्हें खोज करने में और खोज करने पर उसमें कुछ नया करने में  काफी रुचि थीं


फिर क्या था जेम्स ने टकसाल के स्थापत्य कला और पुराने चर्च के पुनर्निर्माण पर ध्यान दिया। महानगर कोलकाता को महामारी से बचाने के लिए पूरे शहर का मैला ढोने वाली भूमिगत सुरंग बनवाई। औरंगजेब की मीनारों का संरक्षण और संवर्धन किया, हुगली नदी पर पत्थर का पुल बनाया जिससे लोगों को आने-जाने में काफी सुविधा हुई।  उन्हें मुद्रा संग्रहण में गहरी रुचि थीं उनके मुद्रा के प्रति आकर्षण को देखते हुए उन्हें ''जनरल आॅफ एशियाटिक सोसाइटी'' का संपादक चुना गया। इसी जनरल में उन्होंने रसायन विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान, मुद्रा शास्त्र, भारत की धरोहर, जलवायु परिवर्तन तथा पर्यावरण पर अनेक शोध कार्य किए उनके सारे लेख और शोध कार्य उनकी विद्वत्ता और पारदर्शिता को प्रकट करते हैं। अफसोस कि बात हैं की जेम्स प्रिंसेप का नाम दुनिया में एक लिपिविद के रूप जाना जाता हैं हालांकि वे कोई भाषाविद या लिपिविद नहीं थे बल्कि उन्हें खोज करने में और खोज करने पर उसमें कुछ नया करने में  काफी रुचि थीं। 

उन्हें सिक्कों की लिखावट और इलाहाबाद के स्तंभो के अक्षरों में समानता नजर आयी

टकसाल में काम करते समय उन्हें सिक्कों में की गई नक्काशी और लिखावट को समझने की उन्होंने कोशिश की। उनकी अक्षरों में काफी दिलचस्पी बढ़ी और उन्हें मूल रूप से समझने की भरसक कोशिश की । उन्हें सिक्कों की लिखावट और इलाहाबाद के स्तंभो के अक्षरों में समानता नजर आयी। तब उन्हें पता चला कि उड़ीसा के पत्थरों पर भी कुछ लिखावट है और वे जुट गए उसकी खोज करने । बिहार के बेतिहा जिले से प्राप्त कुछ अभिलेखों की प्रतियां उन्होंने मंगवाई और इस पर खोज करने लगे। इसे पढ़ने के लिए उस वक्त इलाहाबाद और कोलकाता के अनेक सुसंस्कृत पंडितों और लिखावट के जानकारों को आमंत्रित किया गया। मगर उनका कोई समाधान ना मिल सका। फिर भी जेम्स ने हार नहीं मानी और अपनी खोज जारी रखी।

अथक परिश्रम और प्रयासो के बाद 1837 में जेम्स प्रिंसेप को भारत में पाए जाने वाले अक्षरों की पूरी जानकारी मिली 

बैक्टीरिया और कुषाण के इंडो-ग्रीक सिक्कों पर लिखी लिपि के माध्यम से उन्होंने खरोष्ठी लिपि की पूर्ण वन वर्णमाला बनवाई। उनका यह शोधपत्र ''एशियाटिक सोसायटी के जनरल'' में प्रकाशित किया हुआ और इससे दुनिया भर के शिक्षाविदों का अभिलेखों के प्रति आकर्षण को बढ़ावा मिला। इससे प्राप्त प्रसिद्धि के बाद जेम्स के पास भारत में अनेक अभिलेखों, स्तंभो, दृश्यपर्त, सिक्कों, भूगर्भीय विज्ञान की हस्तलिखित प्रतियां आना शुरू हुई। महाराजा रंजित सिंह के फ्रेंच जनरल जें बप्तिस्ते वेंतूरा ने रावलपिंडी में उत्खनन में प्राप्त कुछ अभिलेख जेम्स के पास पढ़ने के लिए भेज दिए। अब भारत के कई स्तंभ लेखों की जानकारी उनके पास आने लगी। वे रोज 18 से 20 घंटे इनके पढ़ने का अभ्यास करते।  इनका अभ्यास करते हुए प्रिंसेप को सबसे पहले ''दानं'' शब्द कुछ खास लगा और फिर खोज हुई इस शब्द की क्योंकि ज्यादातर लेखों का आखिरी शब्द ''दानं'' ही था । लगातार छह महीनों के अथक परिश्रम और प्रयासो के बाद 1837 में जेम्स प्रिंसेप को भारत में पाए जाने वाले अक्षरों की पूरी जानकारी मिली। 

''देवानंपिय पियदसि'' ये उपाधि धारण करने वाला कोई और नहीं बल्कि भारत का ''सम्राट अशोक'' है

उन्होंने उसकी वर्णमाला तैयार करवाई।  कुछ अभिलेखों में ''देवानंपिय पियदसि'' शब्द बार-बार पढ़ने को मिला लेकिन यह संबोधन किसके लिए कहा गया हैं यह पता नहीं चल रहा था। तब बौद्ध ग्रंथ ''महावंस'' से उन्हें पता चला कि यह श्रीलंका के राजा का नाम है। फिर सोचा कि श्रीलंका के राजा ने भारत में इतने सारे स्तंभो और अभिलेखों को क्यों बनवाया ? इतने अभिलेख क्यों लिखे ? तब  मित्र टर्नर से प्राप्त पाली ''त्रिपिटक'' उन्हें प्राप्त हुई और फिर बौद्ध ग्रंथ का अध्ययन करने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ''देवानंपिय पियदसि'' ये उपाधि धारण करने वाला कोई और नहीं बल्कि भारत का ''सम्राट अशोक'' हैं । मगर प्रिंसेप के पास इसे सिद्ध के लिए उस समय कोई प्रमाण या साक्ष्य नहीं थे। वर्ष 1915 में कर्नाटक के मस्की गांव में सड़क बनाते हुए डायनामाइट के विस्फोट के दौरान एक अभिलेख मिला, जिसमें सम्राट अशोक का नाम ''देवानंपिय पियदसि'' लिखा हुआ था । जेम्स प्रिंसेप की खोज को बल मिला । अब जेम्स की खोज ने पूरी दुनिया में खलबली मचा दी और इतिहासकारों का ध्यान भारत की ओर आकर्षित किया। प्राचीन इतिहास का  पुनरुत्थान हुआ। भारत से प्राप्त सम्पूर्ण अभिलेखों और साक्ष्यों को जेम्स ने अपनी ग्रंथमाला ''उङ्म१स्र४२ कल्ल२ू१्रस्र३्रङ्मल्ल्र४े ्रल्ल्िरूं१्र४े'' में प्रकाशित किया। जो आगे चलकर उनके शिष्य और दोस्त सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने 1877 में पुन: प्रकाशित किया ।

22 अप्रैल 1840 को 41 वर्ष की अल्प आयु में जेम्स प्रिंसेप का निधन हो गया

सम्राट अशोक के अभिलेखों से प्राचीन भारत का इतिहास एवं भारत के पड़ोसी देशों से संबंधों का पता चलता हैं। इससे पड़ोसी अंटिओकस  और अन्य ग्रीक  राजाओं का पता चलता हैं। अब जेम्स अफगानिस्तान और पेशावर में मिले अभिलेखों का अभ्यास करने लगे। रोज इसी शोध कार्य में लगे रहने के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया। उनकी सेहत बिगड़ने लगी है उन्हें तीव्र सर दर्द का सामना करना पड़ा। इंग्लैंड में उन्हें इलाज के लिए बुलाया गया लेकिन 22 अप्रैल 1840 को 41 वर्ष की अल्प आयु में जेम्स प्रिंसेप का निधन हो गया। 

जिस लिपि को जेम्स प्रिंसेप ने खोज निकाला उसी लिपि को सम्राट अशोक अपने अभिलेखो में ''धम्मलिपि'' कहते हैं

कोलकाता को महानगर बनाने के जनहित का कार्य जेम्स प्रिंसेप द्वारा किया गया। कोलकाता  नगर वासियों द्वारा उन्हें सम्मान स्वरूप नगर के हुगली नदी के किनारे एक शानदार प्रिंसेप घाट बनवाया। इंग्लैंड की सरकार ने भारतीय लिपि, पुरातात्विक महत्व के कार्य और उनके संरक्षण की याद में एक मेडल दिया । प्रसिद्ध जीव वैज्ञानिक जॉन रोयाले ने उनके सम्मान में एक वनस्पति का नाम प्रिंसिपिया रखा । 1771 में भारत में आए जॉन प्रिंसेप के बाद उनकी चार पीढ़ियों ने भारत को अपना घर बनाया। जिस लिपि को प्रिंसेप ने खोज निकाला उसी लिपि को सम्राट अशोक अपने अभिलेखो में ''धम्मलिपि'' कहते हैं। इसी लिपि के खोज के कारण सम्राट अशोक के साथ-साथ प्राचीन भारत का सम्पूर्ण बौद्ध संस्कृति और सभ्यता के इतिहास पता चलता है। इसी धम्मलिपि से केवल भारत ही नहीं बल्कि अन्य अनेक देशों की लिपि भी प्रेरित हैं। जेम्स प्रिंसेप के महान शोध कार्यो के सम्मान स्वरूप उनका जन्म दिवस ''विश्व धम्म लिपि गौरव दिवस'' के रूप में मनाया जाता है। इस महान शोधकर्ता को उनके 222 वीं जयंती पर विनय पूर्वक अभिवादन।


लेखक-अतुल भोसेकर
अध्यक्ष बौद्ध साहित्य प्रसारक मंडल

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