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सिंधुघाटी सभ्यता की चित्रलिपि को गोंडी में पढ़ने में सफल हुए डॉ मोतीरावण कंगाली जी को भारत रत्न क्यों नहीं मिला ?

सिंधुघाटी सभ्यता की चित्रलिपि को गोंडी में पढ़ने में सफल हुए डॉ मोतीरावण कंगाली जी को भारत रत्न क्यों नहीं मिला ?

सिंधुघाटी यहां के मूलनिवासियों की सभ्यता थी जो विश्व में सबसे प्राचीन, विकसित  और महान सभ्यता थी

मोतीरावण कंगाली जी ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने सिंधुघाटी सभ्यता की चित्रलिपि को गोंडी भाषा में पढ़ने में सफल हुए


लेखक-विचारक
विवेक डेहरिया, संपादक
दैनिक गोंडवाना समय

सदी के गोंडियनों के महानायक आचार्य तिरू. मोतीरावण कंगाली जी का जन्म 02 फरवरी सन 1949 को महाराष्ट्र विदर्भ के नागपुर जिले के रामटेक तहसील के एक छोटे से गॉव दुलारा में हुआ था। इनके पिता छतीराम और माता रायतार खुद अशिक्षित होते हुए भी इनको मैट्रिक शिक्षा, स्नातक शिक्षा इसके बाद स्नातकोत्तर स्तर की उच्चशिक्षा नागपुर से करवाया।
                


तिरू मोतीरावण कंगाली जी ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने सिंधुघाटी सभ्यता की चित्रलिपि को गोंडी भाषा में पढ़ने में सफल हुए। पाश्चात्य पुरातत्वतेत्ता एवं शिक्षाविद् जान मार्शल, कंनिघम, आरडी बैनर्जी, डीआर साहनी आदि पुरोधाओं सहित अनेक खोजकर्ता उस चित्रलिपि को पढ़ने में असफल रहे।
                

ऐसी अनेक स्वर्णिम ऐतिहासिक इतिहास खोजने वाले एवं स्वर्णिम साहित्य मूलनिवासियों व बौद्धिकता के समक्ष साहित्य के रूप में सृजन करने वाले महान लिंगोवासी दादा मोतीरावण कंगाली जी को आखिर भारत रत्न से क्यों नवाजा नहीं गया यह सवाल आज प्रत्येक गोंडियनजनों के समक्ष उभर रहा है। 

शक्तिशाली गोंडवाना के रूप में पुर्नस्थपित होते हुए देखना चाहते थे मोतीरावण कंगाली जी 


तिरू कंगाली जी का सैंधवी लिपि को गोंडी भाषा में उद्वाचन करने से पूरे वैश्विक जगत के इतिहास, पुरातत्व, धर्म, दर्शन, विज्ञान में नए सिरे से ज्ञान का उद्वम का रास्ता साफ कर दिया तथा दुनिया को  यह बता दिया कि सिंधुघाटी यहां के मूलनिवासियों की सभ्यता थी जो विश्व में सबसे प्राचीन, विकसित और महान सभ्यता थी।                     आचार्य तिरू कंगाली जी  गोंडवाना को पुन: सशक्त गोंडवाना, समृद्ध गोंडवाना और शक्तिशाली गोंडवाना के रूप में पुर्नस्थपित होते हुए देखना चाहते थे। यह गोंडीजनों के लिए बड़े गौरव की बात है लेकिन सिर्फ एक अकेली गोंड जाति को लेकर सशक्त गोंडवाना, समृद्ध गोंडवाना और शक्तिशाली गोंडवाना की परिसंकल्पना करना संभव नहीं है।
                    हमें सिर्फ गोंड और गोंडी की बात करके विराट  गोंडवाना के, समर्थ गोंडवाना के सपने देखना लाजमी नहीं हैं। गोंडवाना में माढ़िया, मुड़िया, कोल, भील, बैगा, ओझा, परजा, पठारी, परधान, नगारची, दोरला, दुलिया, बादी, कंडरा, हल्वा, हल्वी, धुरवा, बिंझवार, माना, भैना, भूइयां, भूमिया, भारिया, कोरकू, गोंडी लोहार आदि कई उपजातियां हैं।
                सबका यहां उल्लेख नहीं किया जा सकता, जिनका गोंडवाना समुदाय में एकीकरण किये बिना विराट गोंडवाना, वैभवशाली गोंडवाना की परिसंकल्पना निहायत लाजमी नहीं है, जो रात को छोड़ दिन में ही सपने देखने से कम नहीं है। सिर्फ गोंड जाति और वृहद गोंडवाना की बात करने वालों को समझना चाहिए कि किसी भी जाति समाज में एकीकरण का ताना-बाना धर्म आधारित होता है।
                जिसमें क्षेत्रीयता, भाषा-बोली, रहन-सहन, आचार-विचार, कार्य और रोजगार आधारित भिन्नता हो सकती है। जहां धर्माचार्य अपने धर्मावलम्बियों क ो एक सूत्र में पिरोने का तथा बांधने का प्रयास करते है लेकिन जाति-उपजाति, श्रेष्ठ-सर्वश्रेष्ठ और क्षेत्रीयता से ग्रसित होकर हम आदर्श गोंडवाना, विराट गोंडवाना, सशक्त गोंडवाना की संकल्पना को साकार नहीं कर सकते है।

मोतीरावण कंगाली जी ने गोंडी संस्कृति की जानकारी संंग्रहित कर रचा स्वर्णिम इतिहास 


डॉ मोतीरावण कंगाली जी ने स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के पश्चात भारतीय रिजर्व बैंक में सन् 1976 में एक छोटे से कर्मचारी के रूप सिक्का परीक्षण लिपिक पद पर भर्ती हुए तथा अपनी नौकरी के दौरानी गोंडी धर्म, संस्कृति,  रीतिरिवाज, खान-पान, भाषा-बोली, लिपि, रहन-सहन, वेष-भूषा, आचार,-विचार, धार्मिक आस्था, पर्व-उत्सव, संस्कार, जन्म, विवाह, मृत्यु आदि को  साहित्य के माध्यम से रेखांकित एवं लििपबद्ध किया।
             बचपन से ही अपने समाज की दयनीय दशा और बदहाल जीवन को देखकर इनके मन में पीड़ा होती थी, एक तरफ सरकारी नौकरी तथा दूसरी तरफ पारिवारिक जिम्मेदारी बावजूद इसके इन्होने समाजिक कल्याण, समाजिक उत्थान, सामाजिक, जन-जागृति, जनचेतना तथा सामाजिक विकास हेतु अपनी जाति पर शोधकार्य करने का दृढ़ संकल्प किया।
                आपने अलिखित मौखिक साहित्य  को एकत्रित करना शुरू किया। आपके मन में जबरदस्त सामाजिक सोच होने के कारण आप निरंतर इस दिशा में आगे बढ़ते रहे, तिरू कंगाली विलक्षण प्रतिभा के धनी थे, व्यस्त्म जीवन और समयाभाव के बावजूूद आपने कम समय में अनेकानेक यात्रायें कर गोंडी संंस्कृति की विस्तृत जानकारी संग्रहित की ।

मोतीरावण कंगाली जी सिंधुघाटी सभ्यता की चित्रलिपि को गोंडी में पढ़ने में हुये सफल 


तिरू मोतीरावण कंगाली एकमात्र ऐसे व्यक्ति है जिन्होंने सिंधुघाटी सभ्यता की चित्रलिपि को गोंडी में पढ़ने में सफल हुए। पाश्चात्य पुरातत्ववेत्ता एवं शिक्षाविद् जान मार्शल, कंनिघम, आरडी बैनर्जी, डीआर साहनी आदि पुरोधाओं ने उस चित्रलिपि को पढ़ने में असफल रहे।
                तिरू कंगाली जी का संैधवी लिपि का गोंडी में उद्धाचन पूरे वैश्विक जगत के इतिहास, पुरातत्व, धर्म, दर्शन, विज्ञान में नए सिरे से ज्ञान का उद्गम का रास्ता साफ कर दिया तथा दुनिया को यह बता दिया कि सिंधुुघाटी यहां के मूलनिवासियों की सभ्यता थी जो विश्व में सबसे प्राचीन, विकसित और महान सभ्यता थी। 

जन्म से लेकर मृत्यु तक सम्पूर्ण संस्कार की दी जानकारी 


इसके अलावा तिरू कंगाली जी  ने गोेंड समाज को पहला वेबसाइड का निर्माण कर समाज के जन्म से लेकर मृत्यु तक सम्पूर्ण  संस्कार, धार्मिक रीतिरिवाज, धार्मिक आस्था, खान-पान, पेनठाना, कुलदेवता, ग्रामदेवता, गढ, गोत्र, सना, टोटम, अनुष्ठान, पर्व, उत्सव, त्यौहार, धार्मिक पूजा-पाठ, पूजा-पद्धति, विधि-विधान, धार्मिक कार्यों के करने के तरीके, इलाज, आदि जो गोंड समाज से जुड़े समस्त क्षेत्रों को सम्मिलित किया गया है ।
             यह उनकी एक क्रांतिकारी पहल है। अपनी संस्कृति और पहचान को बनाये रखने की तथा मुकाम तक पहुंचाने की पहल है, अपनी अस्मिता और स्वाभिमान को बचाये रखने की पहल है ।

दुनिया के समक्ष बहुमूल्य गोंडी साहित्य प्रदान किया 

आपने तिरू रंगेल सिंह राजनेगी परधान सिवनी द्वारा लिखित कोयापुनेम ता सार, गोंडी सगा बिडार, गोंडवाना ता महाकलडूब ग्रंथ आदि के माध्यम से सन 1989  में कोया पुनेम ता सार ग्रंथ तथा गोंडी धर्म दर्शन की रचना कर गोंडी जनमानस को गोंडीधर्म में दीक्षित करने का कार्य किया।
            मंगलसिंह राजनेगी, परधान कोचेवाड़ा लामता, जिला बालाघाट जिन्होंने 1918-19 ई. में गोंडी लिपि की खोज की एवं उनकी गोंडी किताबें- गोंडी धर्म विचार, गोंडी पहाड़ा आदि प्राप्त कर श्री कंगाली जी ने श्री मंगलसिंह राजनेगी परधान की गोंडी लिपि गं्रथ के वास्तविक स्वारूप में बदलाव करके गोंडी लम्क पुन्दान नामक गोंडीलिपि ग्र्रंथ की सन 1991 में रचना की, श्री कंगाली जी इस ग्रंथ की प्रस्तावना में लिखते हैं कि गोंडीलम्क पुंदान श्री  मंगलसिंह  राजनेगी परधान कृत गोंडी लिपि बोध भाग 01 एवं भाग 02 के आधार पर बनाया गया है                 आगे कहते है कि गोंडी लिपि का प्रचार सन 1838 में सम्पूर्ण मध्य भारत में था और आज भी यह लिपि आंध्र, विदर्भ और मध्यप्रदेश के गोंडी भाषिक क्षेत्रों में प्रचलित हैं। तिरू कंगाली जी ने बाद में इन के माध्यम से कई गोंडी ग्रंथों की रचना की तथा समाज को बहुमूल्य गोंडी साहित्य प्रदान किया । 

गोडियनों के पास भी उनका अपना साहित्य और धर्मग्रंथ है 

गोंडवाना के गोंडीजनों के लिए तिरू कंगाली जी ने कई धार्मिक और सामाजिक ग्रंथों की रचना करके गोंडी समाज के साहित्य के सूखे और अकाल को कुछ हरा-भरा करने का प्रयास किया। दुनियां के सभी धर्मो के पास अपना-अपना एक धर्मग्रंथ है जैसे क्रिश्चियन के पास बाईबिल है, इस्लाम के पास कुरान है, हिन्दू के पास वेद, पुराण, शास्त्र और अन्य ग्रंथ है, सिक्ख के पास गुरूग्रंथ साहिब है, जैन और बौद्धो के पास भगवान महावीर और भगवान बुद्ध के संसार को दिये अमृतवचन और प्रवचनों का संंग्रह है तो गोडियनों के पास गोंंडीधर्मदर्शन और कोया पुनेम ता सार, गोेंडी सगा बिडार 1980 जैसे धार्मिक और सामाजिक, सांस्कृतिक साहित्य है।
                    इसके अलावा उनकी अमर कृतियों में गोंडवाना गढ़ दर्शन, गोंडवाना कोटदर्शन, गोंडी नृत्य का पूर्वोत्तर इतिहासस, कुंवारा भिमालपेन  ता सार, वीन्दाना मांदी, ते वारीना पाटांग,  मुंडारा हीरोगंगा, कोयाभिड़ीता गोंडी सगा विडार, चांदागढ़ की महाकाली कंकाली, दंतेवाड़िन वेनदाई दंतेश्वरी, कोराड़ी तिलकाई दाई, जंगो दाई, प्रियराजा रावण के भजन, गांव देवी-देवताओं के भजन  इसके अलावा गोंडवाना का सांस्कृतिक इतिहास, गोंडों का मूलनिवास स्थल, गोंडी भाषा व्याकरण, गोंडी भाषा शब्दकोष भाग 1 एवं  भाग 2, सिंधुघाटी का गोंडी में उद्वाचन आदि अन्य ग्रंथों को गोडियनों को प्रदान करके दुनिया को यह संदेश देने का प्रयास किया कि गोेंडियनों के पास भी उनका अपना साहित्य और धर्मग्रंथ है। 

गोंडियन समाज के सूर्य का अस्त हो गया 

इस सदी के महानायक ने 30 अक्टूबर, 2015 को 66 वर्ष की उम्र में अपने जीवन के सफर को समाप्त कर दिया। गोंडियन समाज के सूर्य का अस्त हो गया। एक शख्सियत सदा-सदा के लिए अपनों क अलविदा कह दिया। एक हस्ताक्षर, एक कलमकार, एक कलम का योद्धा सदा-सदा के लिए अपने कलम को अलविदा कह दिया।
            इस कलम के सिपाही गोंडियनों को अपूर्णनीय क्षति तो हुई ही सारे बौद्धिक जगत को शोकाकुल कर दिया। आचार्य कं गाली जी जिन्होंने गोंडीजनों की धर्म, संस्कृति, भाषा-बोली, रहन-सहन, आचार-विचार, खान-पान, धार्मिक और सामाजिक पहचान को सहेजने  और संवारने में अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया, जिन्होंने अपने प्रिय राजा रावण के बारे में जानकर समाज  में जागृति एवं चेतना लाने के उद्देश्य से अपना नाम मोतीराम कंगाली से मोतीरावण कंगाली कर लिया यह अपने आप में एक सामाजिक क्रांतिकारी सोच की इंगित करता है।
                ठीक इसी तरह सिर्फ गोंड जाति की बात करने वालों को जाति-उपजाति व संकीर्ण मानसिकता और विचारधारा से उपर उठकर सोचना होगा, विचारना होगा तब विशाल गोंडवाना, विराट गोंडवाना, वैभवशाली गोंडवाना की संकल्पना साकार हो सकती है। 

कोयलीकचारगढ़ को धार्मिक स्थल के रूप में स्थापित किया

आाचार्य तिरू कंगाली जी की महान उपलब्धियों मे से एक कोयली  कचारगढ़ की खोज है। वे नियमित रूपये अंग्रेजो द्वारा लिखित ग्रंथों एवं गजेटियरों का अध्ययन करते रहते थे। इसके साथ ही ग्रामीण अंचल से गोंडी लोकसंगीत, नृत्य, जनश्रुति परधान  पठारियों की किस्से, कहानी, गाथाओं, का संग्रह, गोंडी लोकव्यवहार तथा लोकमान्यताओं का संग्रह करता उनके व्यवहार में शामिल था।
                    वे बिना थके और हार माने निरंतर अपने शोधकार्य के दौरान कोयली कचारगढ़ की वादियों और पहाड़ों की खाक छानते रहे, अंतत: उन्होंने कोयली कचारगढ़ को गोंडियन समुदाय के लिए एक धार्मिक स्थल के रूप में स्थापित करने में सफलता अर्जित की।
                उन्होंने आपने प्रसिद्ध ग्रंथ गोंडी धर्मदर्शन में कोयली कचारगढ़ और वहा की नैसर्गिक वादियों का तथा गोडिजनों के गोंडी  देवी-देवताओं के साथ आदिकाल में हुई घटित घटनाओं का बहुत मार्मिक और रोचक चित्रण  तथा आदि गुरू कुपार लिंगों ने किस प्रकार गोंडियन सामाजिक व्यवस्था प्रतिस्थापित की, इन सब बातों को तिरू कंगाली जी ने सबके सामने लाने का प्रयास किया।
                गोंडी धर्म गुरू पारीकुपार लिंगों के गुरू हीरासूका पाटारी के बलिदान और शहादत को तथा गोंडीधर्म पारीकुपार लिंगों की गोंडी सगावेनों क ो दी गई गोंडीधर्म शिक्षा दीक्षा और ज्ञान-साधना, तपस्या को, माता कलीकंकाली के  त्याग को, दाई रायतारजंगो की सेवा और विश्वास को, शंभू-गौरा के समर्पण और आशीर्वाद को पीढ़ी दर पीढ़ी  चिरस्मरणीय और चिरस्थायी बनाने के उद्देश्य और  प्रयोजन के लिए तिरू कंगाली जी ने सर्वप्रथम सन् 1984 में गोंडी सप्तरंगी ध्वजा फहराकर इस धार्मिक जतरा की शुरूआत की। 

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